अक्तूबर 28, 2012

"तू हर इक पल का शाइर है ........."- श्रद्धांजलि यश चोपड़ा को !


बीते सप्ताह यश चोपड़ा नहीं रहे......... ! यश चोपड़ा नाम है उस शख्सियत का जिसने बीते पचास वर्षों से कहीं ज्यादा बड़े कैरियर में हिंदी सिनेमा को नए नए ट्रेंड दिए..... लोगों के ख्वाबों को परवाज़ दी.  अस्सी बरस की उम्र में यश जी विदा हो गए अपनी बहुत सी यादों को हम सबके जेह्न में छोड़ के. हिन्दी व्यवसायिक सिनेमा में नए ट्रेंड स्थापित करने वाले और बाक्स ऑफिस की नब्ज पकड़ने में यश चोपड़ा को महारत हासिल थी. बीते पचास बरसों में यश चोपड़ा के सामने कई पीढि़यां गुज़री  हैं.  ’धूल के फूल’ के जमाने के युवा या ता उम्र के उस पड़ाव पर आ गये हैं जहां से उन्हें जिन्दगी के साथ तारातम्य स्थापित करना भारी पड़ रहा है या फिर दीवालों पर तस्वीरों में कैद हो गए हैं. इसी तरह  ’दीवार’ के समय के तमाम युवा अब उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं.  ’डर’ के समय के युवा अब जाहिराना तौर पर प्रौढावस्था की दहलीज पर कड़े हैं. मगर स्वयं यश चोपड़ा अभी भी वहीं थे, उसी जगह पे थे, उसी उम्र पर थे जहां से उन्होंने पचास साल पहले  ’धूल के फूल’ की पारी शुरू की थी. इसकी गवाही  थी उनकी आने वाली फिल्म "जब तक है जान ".
यश चोपड़ा का हिन्दी फिल्मों में योगदान कई  वजहों से याद किया जाता रहेगा।.इसमें कोई शक-नहीं कि यश जी ही वह पहले निर्देशक थे जिन्होंने ’बिछड़ने मिलने’ वाले हिन्दी सिनेमा के कालजयी कान्सेप्ट को सेलुलाइड पर्दे पर उतारा और हिन्दी सिनेमा को सफलता की एक नायाब कुन्जी थमा दी. इसके अलावा  यश जी ने  ’मल्टी स्टारर ’ फिल्मों की परम्परा शुरू की. ’वक्त’ (1953) में उनका यह प्रयोग भी फिल्मों की सफलता की गारण्टी के रूप में स्थापित हुआ. 
               यश जी यहीं नहीं रुके उनके अन्य कई प्रयोग थे, जो कालान्तर में हिन्दी सिनेमा के लिए अपरिहार्य तत्व के रूप में काम करते रहे, वे थे- कर्णप्रिय मधुर  गीत-संगीत, भव्य लोकेशंस , फूलों की वादियां, एक दूसरे में डूबते-इतराते प्रेमी -प्रेमिका, अच्छी पटकथा इत्यादि-इत्यादि चीजों का समावेश. ’फिल्म मेकिंग’ में इन अवयवों का इस्तेमाल बेशक यश जी ने शुरू किया, लेकिन आगे का शायद ही कोई निर्देशक रहा हो जिसने इन प्रयोगों का अपनी फिल्मों में प्रयोग  न किया हो वो चाहे सुभाष घई हों या कि करण जौहर...............! यह बात अलहदा है कि  इन प्रयोगों के  बावजूद यश जी अपने आपको लगातार सफल साबित करते हुए आगे बढ़ते  रहे, जबकि उन्हीं के प्रयोगों को आजमाते हुए उनके साथ के और बल्कि यूं कहें कि उनके बाद आये तमाम सफल निर्देशक धीरे-धीरे ’पहचान की संकट’ के शिकार हो गये.  यह जांच-पड़ताल का विषय तो है मगर सामान्य से शोध के बाद यह निष्कर्ष भी सामने आ जाता है  कि इन प्रयोगों की  यश चोपड़ा ने शरुआत ज़रूर की मगर इन्हें हर बार एक ही तरह नहीं आजमाया बल्कि यूँ कहें कि अपनी ’फिल्म मेकिंग’ में इनका दोहराव नहीं किया जबकि अन्य निर्देशक इन प्रयोगों से आगे नहीं निकल पाये. दोहराव तो शायद यश जी की फिल्म मेकिंग में था ही नहीं ............. ’धूल का फूल’ में जब यश ने अवैध संतान की दास्तानगोई  की थी तो यह नया ट्रेंड था, बदलाव था हिन्दी सिनोमाई सोच में.  बहरहाल फिल्म हिट थी, दर्शकों और समीक्षकों  ने खुले मन से तारीफ़ की  लेकिन इसके बावजूद यश जी ने इसी विषय को गांठ से नहीं बांधा. उनकी अगली फिल्म ’धरमपुत्र’ इस बात का प्रमाण थी जिसने हिन्दू-मुस्लिम एकता का अलम  फहराते हुए ’राष्ट्रीय पुरस्कार- भी जीता था. इसके बाद आई ’वक्त’ जिसमें यश जी ने हिन्दी फिल्मों को हिट करने वाले तमाम अवयव एक साथ सौंप दिये. राजकुमार के धारदार संवाद हों या बलराज साहनी का फहराता रूमाल..... सब नशा सा बन कर छा गया हिंदी सिनेमाई बस्ती में. 
          उनकी पीढ़ी के तमाम निर्देशक इन्ही अवयवों में सफलता की इबारत लिखते रहे मगर यश जी ने अपने ही गढ़े फार्मूलों को पीछे छोड़ा और नया तानाबाना रचते हुए ’दाग ’ जैसी सजीदा फिल्म बनाकर अपनी प्रतिभा और अपनी संभावनाओं का नया परिचय दिया. बात यही ख़त्म नहीं होती, इसके बाद एग्री यंग मैन का चरित्र गढ़ कर यश जी ने न केवल सिनेमा के ट्रेंड को बदल दिया बल्कि अमिताभ बच्चन नामक इस नायक का सदी का महानायक बनने का पथ प्रशस्त  कर दिया. अमिताभ के साथ उनकी ट्यूनिंग का सिलसिला आगे  त्रिशूल, कभी-कभी और सिलसिला तक चलता रहा. यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि बेशक अमिताभ अपने आगे के कैरियर में प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई से हमकिनार रहे मगर उनकी शख्सियत में  अगर किसी ने इन्द्रधनुषी रंग भरा तो वे यश चोपड़ा ही थे.
1989 में उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवार की किसी चुलबुली और सपनों में जीने वाली लड़की ’चांदनी ’ को पर्दे पर उतारा. नायिकाएं सचमुच नायिकाएं ही होती हैं और इन्हें कैसे पेश किया जाए इसमें यश जी बेजोड़ थे. सफ़ेद शिफोन साड़ी  में श्रीदेवी - जूही चावला का रूप दर्शक अभी तक शायद ही भूल पाए हों. चांदनी के बाद ’लम्हे’ में उन्होंने जिस तरह की कहानी पर फिल्म बनाई वो जोखिम भरा क्रिएशन था मगर यश जी ने अपनी स्वीकारोक्ति यहां भी कराई.
1993 में यश जी का सफर शुरू होता है उस नायक के साथ जिसने ताज़ा हवा की तरह हिंदी सिनेमा में दस्तक दी.  आज के समय के सबसे दिलकश नायक शाहरूख खान के साथ उन्होंने  'डर' बनायी . इस फिल्म में जुनूनी मगर  दब्बू प्रेमी के रूप में यश जी ने शाहरूख का ऐसा किरदार गढ़ा जो शायद हिन्दी सिनेमा में इससे पहले कभी नहीं रचा गया, यहीं से सिनेमा को एक नया सुपर स्टार मिला. इसके बाद तो शाहरूख के साथ उनकी जुगल बन्दी दिल तो पागल है, वीर जारा और जब तक है जान तक जरी रही.
उनका फैसला था कि ’जब तक है जान’ के बाद वे रिटायर हो जायेंगे, लेकिन क्या पता था कि वे दुनिया से ही चले जायेंगे. 
यश जी को याद करते हुए यही कह जा सकता है कि उन्होंने  सिनेमा को भव्यता और कलात्मकता प्रदान की है. व्यवसायिकता को ध्यान में रखते हुए फिल्मों में कहानी-पात्र-गीत-संगीत का जो सम्पूर्ण पैकेज उनकी फिल्मों में मिलता है वो कहीं नहीं. साहिर की दिल को छू लेने वाली रचनाएँ हों.... खय्याम  का संगीत हो या शिव-हरि की मधुर लहरियां, सलीम-जावेद का ड्रामा हो या रेखा श्री-जूही-माधुरी की दिलकश अदाएं परोसने की बात हो यश जी एक चित्रकार की हैसियत से पेश आते हैं. ये उनका ही अंदाज़ था जो लोग अभी तक "मेरे पास माँ है, या क क क क किरन......" का अंदाज़ नहीं भूले.  बेशक वे बासु चटर्जी, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल की पंरपरा के नहीं हैं लेकिन यह भी सच है कि वे सत्य के खुरदुरे धरातल से दूर हटकर आम आदमी को ख्वाब के उस उफक पर ले जाते हैं जहां प्यार है, रोमांस है, धड़कन है, सांस है, दिल है, जज्बात है, जुनून है, इश्क है .....................। 
             श्रद्धांजलि और नमन यश जी आपको.