सितंबर 19, 2009

"साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों "-2

एक अरसे बाद मैंने दो तीन दिनों पहले अपने ब्लॉग पर अपनी नयी ग़ज़ल पोस्ट की ........मैं जब भी ग़ज़ल लिखता हूँ तो सबसे पहले जिन लोगों को उसे सुना कर प्रतिक्रिया लेता हूँ उनमे अकील नोमानी, मनीष, अंजू, जोनी, सुमति शामिल होते हैं....ये वे लोग हैं जिनसे मुझे मेरी किसी भी रचना पर त्वरित प्रतिक्रिया मिलती है ....ये प्रतिक्रियाएं अच्छी -बुरी दोनों तरीके की होती हैं मगर होती एक दम निष्पक्ष हैं.................."साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों " पर इन सबकी प्रतिक्रियाएं मुझे उत्साह बढ़ने वाली रही....
मैंने ये ग़ज़ल अपने एक शायर दोस्त फ़साहत अनवर को भी एस एम् एस के जरिये भेजी...उन्होंने मुझे स्वरूप कमेन्ट भेजा की उन्हें इस ग़ज़ल की ज़मीन इतनी अच्छी लगी की उसी काफिये पर उन्होंने चार पांच शेर लिख डाले ........अनवर साहब के वो शेर आपके हवाले कर रहा हूँ गौर फरमाएं..........

मुझसे हर पल आँख चुराना आखिर क्यों !
दुश्मन के घर आना जाना आखिर क्यों !!

छोटे तबके वाले भी तो इंसान हैं,
महफ़िल में उनसे कतराना आखिर क्यों !!

मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!

मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आँखों में मैखाना आखिर क्यों !!

मुट्ठी में जो बंद किये हैं सूरज को,
उसको जुगनू से बहलाना आखिर क्यों !!

अनवर तेरी गज़लों के सब दीवाने हैं,
तू है ग़ालिब का दीवाना आखिर क्यों !!

एक सी ज़मीन पर दो ग़ज़लें पढना सचमुच अच्छा एहसास रहा.

सितंबर 16, 2009

साँसों में लोबान जलाना........

काफी दिनों बाद इधर ब्लॉग पर लिखने की भूख बढ़ गयी . दिल नहीं माना और फिर से लिखना शुरू किया....... व्यस्तता के बाद ब्लॉग पर लिखने का क्रम जोड़ना वाकई सुखद रहा. इधर कल बारिश हो रही थी....ऐसे शानदार मौसम में मैंने एक ग़ज़ल लिखी...... या यूँ कहिये बस लिख गयी. अपने दोस्त शायर अकील नोमानी से कुछ ज़ुरूरी इस्लाह कराने के बाद ग़ज़ल आप की नज़र कर रहा हूँ ……….गौर फरमाएं..............!

साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों !
पल पल तेरी याद का आना आखिर क्यों !!

जिसको देखो वो मशरूफ है अपने में,
रिश्तों का फिर ताना बाना आखिर क्यों !!

एक से खांचे सांचे में सब ढलते है,
फिर ये मज़हब-जाति-घराना आखिर क्यों !!

एक खता, यानी चाहत थी जीने की
पूरी उम्र का ये जुर्माना आखिर क्यों !!

मसअले उसके शम्सो -कमर के होते हैं,
मेरी मशक्कत आबो दाना आखिर क्यों !!

सितंबर 13, 2009

बोरलाग का जाना

ख़बर मिली कि नॉर्मन बोरलाग नही रहे.....एक टीस सी उठी. बोरलाग वही शख्स थे जिन्होंने 1970 के दशक में भारत और तमाम विकासशील देशों को भोजन उपलब्ध कराने में महती योगदान दिया था। हरित क्रांति के मसीहा के रूप में उन्होंने पिछड़े देशों में खाद्यान्न उपज के प्रति जो आन्दोलन चलाया उसका सम्मान उन्हें नोबेल पुरुस्कार के रूप में मिला। ऐसे में डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन का यह कहना बिल्कुल सटीक ही है कि "नॉर्मन बोरलॉग भूख के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले महान योद्धा थे. उनका मिशन सिर्फ़ खेतीबाड़ी से पैदावार बढ़ाना ही नहीं था, बल्कि वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते थे कि ग़रीब तक अन्न ज़रूर पहुँचे ताकि दुनिया भर में कही भी कोई भी इंसान भूखा ना रहे।"
यदि वैज्ञानिक लहजे में कहा जाए तो उन्होंने छोटे कद वाले गेंहूं और अन्य फसलों के पौधों को उगाने पर ज़ोर दिया ताकि अपनी ऊर्जा को बचा कर पेड़ ज्यादा उत्पाद दे सकें......ऐसा करने से फसली उत्पादन इस हद तक बढ़ा कि फौरी ज़रूरतें पूरी हो सकीं । यह अलग बात है कि कालांतर में इसके बहुत नकारात्मक प्रभाव भी देखे गए क्योंकि उनके बीजों की और खेती-बाड़ी के तरीक़ों की निर्भरता उर्वरक खादों पर बहुत थी जिससे ज़मीन की उत्पादक क्षमता धीरे-धीरेकम होती जाती है. लेकिन फिलहाल हम उन पर न जाकर बस नॉर्मन बोरलॉग को इसलिए याद कर रहे हैं कि उन्होंने ही हमारे जैसे देशों को 1970 में भूख से निजात दिलाई।