अगस्त 28, 2008

पारिवारिक मूल्य

कल रात हम आइस क्रीम खाने निकल पड़े. खाना खाने के बाद अक्सर रात में परिवार के साथ इस तरह का लघु रतजगा हमेशा अच्छा लगता है. आइस क्रीम के बहाने बीबी - बच्चों के साथ बहस मुबाहिसें भी हो जाती हैं...दिन भर के ऑफिस के झंझटों से दूर हटकर कुछ समय अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए भी मिल जाता है. मैं हमेशा ही इस बात का घोर समर्थक रहा हूँ की हर आदमी को अपने परिवार पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देना चाहिए. इस भागती दौड़ती जिंदगी में अक्सर हम अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को परिवार की कीमत पर पूरा करने की कोशिश करते हैं. मत भूलिए इस आपा - धापी में आप अपने लक्ष्य पा भी ले मगर आपकी पत्नी- बच्चों -माँ- भाई -बहन- बाप के साथ रिश्ते कहीं बोझिल होते जाते हैं और इसका एहसास बहुत बाद में हो पाता है. आप अपनी रेस जीतने के लालच में अपने परिवार के अन्य सदस्यों की खुशियों के साथ अन्याय करते जाते हैं. सिंगल फॅमिली सिस्टम के बाद तो जीवन मूल्यों में इस कारण और भी गिरावट आयी है. हमारी आने वाली पीढीयों को यदि अच्छे संस्कार नही मिल पा रहे हैं तो निश्चित ही हमारी तरफ़ से कोई कमी की जा रही है.....याद करिए हम जब छोटे बच्चे थे तो रात को अपनी दादी- नानी के पास लेट जाते थे और कहानी सुनने की फरमाइश करते थे दादी - नानी की कहानियों में मनोरंजन के साथ साथ जीवन के तमाम सिद्धांत भी हम सिख जाते थे .... परिवार में माहौल भी काफी डेमोक्रेटिक हुआ करता था ....हर एक की बात का महत्त्व था. अब तो जो कमाऊ सदस्य है वही घर को अपने कायदों से चलाने की कोशिश करता है. मैं आप सबका ध्यान इसलिए इस विषय की ओर लाना चाहता हूँ क्योंकि परिवार को पारिवारिक मूल्यों के साथ चलाने के अपने सुखद फायदे हैं......बच्चों के साथ-परिवार के अन्य सदस्यों के साथ लोकतांत्रिक बनिए उनकी इच्छाओं का आदर करके देखिये आपको सचमुच संतुष्टी का एहसास होगा.

अगस्त 26, 2008

राजगुरु एक अद्भुत क्रांतिकारी

आज अखबारों में प्रकाशन विभाग द्वारा एक विज्ञापन देखने को मिला.ये विज्ञापन "जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी " नाम से प्रकाशित हुआ था. विज्ञापन में सूचना दी गयी थी की आज (२५ अगस्त ) को दो क्रांतिकारियों पर दो पुस्तकों का विमोचन किया जा रहा है. ये दो महान क्रांतिकारी हैं- एक खुदीराम बोस और दूसरे राजगुरु. राजगुरु की ये जन्म शताब्दी वर्ष भी है. राजगुरु वो महान क्रांतिकारी है जिन्होंने अपने साथियों के साथ भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में जबरदस्त योगदान दिया.भारतीय स्वाधीनता संग्राम में तीन नाम अक्सर एक साथ लिए जाते हैं भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव. इतिहास में सुखदेव और राजगुरु को शायद वो स्थान नहीं मिल सका जो भगत सिंह को हासिल है. यह साल राजगुरु की जन्म सदी का है लेकिन सिर्फ उनके गांव को छोड़ कर कहीं भी कोई समारोह शायद ही हुआ हो. इस दिशा में कुछ गंभीर आयोजन किया जाना आवश्यक होगा ताकि नयी पीढी इन अमर बलिदानियों से कुछ सीख सके . राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को महाराष्ट्र में पुणे ज़िले के खेड़ा गांव में हुआ था जिसका नाम अब राजगुरूनगर हो गया है. भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी.अब उनकी जन्म शती के अवसर पर भारत सरकार का प्रकाशन विभाग उन पर संभवत पहली बार कोई किताब प्रकाशित कर रहा है. चलिए देर से ही सही लेकिन इस महान क्रन्तिकारी त्रयी के एक अद्भुत सदस्य राजगुरु की सुध तो ली गई. इस सराहनीय प्रयास के लिए न केवल प्रकाशन विभाग धन्यवाद का पात्र है बल्कि उस लेखक को भी कोटि कोटि बधाई है जिसने इस क्रन्तिकारी की जीवन लीला से हमें परिचय कराया है.

अगस्त 23, 2008

खुदा हाफिज़ गाजियाबाद.

गाजियाबाद से मेरा रिश्ता बहुत ज्यादा नही रहा बमुश्किल १० माह का ये साथ रहा. गत नवम्बर में ही यहाँ आया था और अब चलने का तकाजा सामने है .....इस शहर से मैं बहुत ज्यादा नही जुड़ सका एक शेर है न " सुनते थे बहुत ........काटा तो एक कतरा लहू भी न निकला"....वाली हालत रही मेरी नज़र में इस शहर की ....जिसे भी देखिये एक अंधी दौड़ का हिस्सा बना हुआ है....किस प्रोपर्टी की कीमत कितनी हो गयी... इसी बहस मुबाहिसे में पड़े लोग..................जगह जगह हार्न - हूटर की आवाजें और उनमे बीच में किसी अम्बुलेंस की सायरन की आवाज़ और उससे अनजान लोग......हर गली मोहल्ले में इंजिनीरिंग - डॉक्टरी संस्थानों के बड़े बड़े होर्डिंग, जो आने वाली पीढ़ी को बेबकूफ बनाने पर आमादा हैं........एनसीआर का दम भरते लोग जो आने वाले कोमन वेल्थ गेम्स को लेकर अति उत्साहित हैं उन्हें लगता है कि जैसे ही ये गेम शुरू होंगे उनके दिन अचानक बहुर जायेंगे.............और वे अचानक किसी दूसरे लुभावने ग्रह पर चले जायेंगे.........अपराध-अपराधिओं की एक अच्छी शरण स्थली......... .इसी बीच एक और ख़बर मिली कि साहेब ये शहर भारत की 6थ सबसे बड़ी एमर्जिंग सिटी भी है......तो और भी हैरानी हुई जैसे हरिया हर्कुलिस (वही मनोहर श्याम जोशी वाला) को हुई थी.
गाजियाबाद दरअसल दो विपरीत परिस्थितियों से जूझता शहर है ...एकतरफ माल कल्चर है दूसरी तरफ़ अभी भी झुग्गी झोपडी बड़ी मात्रा में हैं..... उसी सड़क पर लैंड क्रूसर है तो उसी सड़क पर बैलगाडी और टट्टू भी...... बड़ी अजीब सी हालत है पैसे के पीछे भागते बदहवास से लोग......
.................. लेकिन मैं इस शहर का यही रूप देखूंगा तो शायद गलती होगी. इस शहर की सबसे ख़ास बात ये है कि हर आदमी को यहाँ पनाह है...जो लोग दिल्ली को अफोर्ड नही कर सकते उनके लिए ये शहर नया जीवन है सस्ते का सस्ता और दिल्ली वाले भरपूर मज़े भी.......साहित्य के क्षेत्र में यहाँ कुंवर बेचैन, पराग के सम्पादक देवसरे जी, गायिका विद्या भारति हैं कुछ बड़े जर्नलिस्ट भी हैं और उद्योग पति होना तो लाजिमी है ही .......इन सबसे ऊपर सुरेश रैना है जो भारत के नए क्रिकेटर हैं....इससे पहले यहाँ के मनोज प्रभाकर अच्छा खासा नाम कमा चुके हैं ....... व्यक्तिगत तौर पर मैं इस शहर का आभारी भी हूँ क्योंकि यहाँ मेरी मुलाक़ात उन चन्द लोगों से हुई जिन्होंने मुझे जीवन को देखने का एक नया तरीका दिया...और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मेरे दिल के करीब भी आए......दोस्त भी बने.......एक साथ मै इन सबके नाम लू तो ज़ाहिर है कुछ नाम तुंरत उभरते हैं......दीपक अग्रवाल, सर्व जीत राम, ओपी शर्मा, जे पी जैन, डॉ जय हरी, कुंवर बेचैन, कमलेश भट्ट, संजय तिवारी, ओझा, आशु गुप्ता, बिमल दुबे, विकाश, मनोज, रजनीश राय, राजपाल सिंह जी,अशोक अग्रवाल, सुदेश शर्मा.( हो सकता है की कुछ नाम जल्दवाजी में छूट भी गए हो ). इस शहर में आकर अपने कुछ पुराने दोस्तों से भी मुलाक़ात हो गयी...प्रो. रोहित,संजू भदौरिया, मोहित और सबसे ऊपर १९९७ बैच के वित्त अधिकारी पवन जी से जो मुझे बेहद पसंद हैं.
तमाम शिकायतों के बावजूद इस शहर को इतनी आसानी से भूला भी नही जा सकता.......आख़िर आई ऐ एस भी तो यहीं से बना हूँ जो मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है... १ सितम्बर से जब मै ट्रेनिंग पर मसूरी जा रहा हूँ तो शहर की तमाम खट्टी मीठी यादें मेरे साथ हैं......दुनिया गोल है शायद कुदरत फ़िर गाजियाबाद से मिलाये .................अहमद फ़राज़ का एक शेर है
फ़िर इसी राह गुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद,
जो भी बिछुडे हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तू इन्तिज़ार कर शायद....
................इन्ही उम्मीदों के साथ खुदा हाफिज़ गाजियाबाद.

अगस्त 21, 2008

एक और सोना चाहिए ....

बड़ी मुश्किल है इन चैनल वालों की ......इनकी praathmiktaayen अब तक clear नही है । sushil kumar के bronze पदक जितने के baawazood उनका dhyaan क्रिकेट पर ही रहा ,बल्कि क्रिकेट को ही jyada tarzih दी । कहाँ ९ देश क्रिकेट khelte हैं और हम bamushkil जीत paate हैं wahin २०५ deshon के olympic me पदक जितना बड़ी achievment है। भारत के ओलंपिक इतिहास में बुधवार का दिन बेहतरीन रहा बुधवार दोपहर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से बीजिंग ओलंपिक से भारत को कुश्ती में कास्य पदक मिलने की सूचना मिली। जहाँ पहलवान सुशील कुमार ने कांस्य पदक जीता और बॉक्सर विजेंदर कुमार का कांस्य पदक पक्का हो गया. पदक तालिका में भारत के नाम के आगे ओलंपिक खेलों में तीन पदक पहली बार दिखाई देंगे.बुधवार को जहां विजेंदर कुमार ने मुक्केबाज़ी के क्वार्टर फ़ाइनल में जीतकर कांस्य पदक सुनिश्चित किया वहीं सुशील कुमार ने कुश्ती में कांस्य पदक जीत लिया. पश्चिमी दिल्ली के बापरौला गांव निवासी सुशील कुमार के कुश्ती में कास्य पदक जीत लिया. इससे पहले 1952 में भारत के केडी जाधव ने कांस्य पदक जीता था. सुशील कुमार ने 75 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक के लिए हुए मुक़ाबले में कज़ाखस्तान के पहलवान लियोनिड स्पिरदोनोव को हराया. अब to हमारी nigaahen vijendar पर लगी हैं। 75 किलोग्राम वर्ग में विजेंदर ने बड़ी ही सधी शुरुआत करते हुए इक्वेडोर के मुक्केबाज़ कार्लोस गोंगोरा को 9-4 से हरा दिया. पहले राउंड में विजेंदर ने सधी हुई मुक्केबाज़ी करते हुए दो अंक जुटाए. दूसरे राउंड में भी वो रुक रुक कर मुक्के लगाते रहे और चार अंक जुटा लिए. तीसरे राउंड में गोंगोरा काफी थके हुए दिखे जिसका फ़ायदा विजेंदर ने उठाया और गोंगोरा को हराने में सफलता प्राप्त की. गोंगोरा को मामूली मुक्केबाज़ नहीं हैं, वे चार बार यूरोपीय चैंपियन रहे हैं. इस जीत के साथ ही विजेंदर सेमी फाइनल में पहुंचे गए हैं और उनका कांस्य पदक पक्का हो गया है, हो सकता है कि अगले मैचों को जीतकर वे रजत या स्वर्ण पदक के दावेदार बन जाएँ.

अगस्त 17, 2008

मनीष एक अदबी शायर

मनीष और मेरा साथ गत १० बरस का है। मनीष से मेरा साथ तब से है जब हमारी नयी नयी नौकरी लगी थी । हम ट्रेनिंग में लखनऊ में थे वित्त संस्थान में ट्रेनिंग ले रहे थे तभी शेर ओ शायरी के शौक ने हम को एक दूसरे के करीब ला दिया । हम लोग नैनीताल में भी ट्रेनिंग साथ साथ कर रहे थे ....तब ये शौक परवान चढा। हम दोनों घंटो एक दूसरे को शेर ओ शायरी को शेयर करते। बहरहाल मनीष के साथ रिश्ते दिन ब दिन मजबूत हुए मुझे ये कहने में कोई हिचक नही की मनीष आज मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक है। उम्र में ५ बरस बड़ा होने के कारण मनीष मेरे बड़े भाई के रूप में भी है। उनकी सबसे ख़ास बात ये है की अच्छे अधिकारी होने के साथ साथ वे एक अच्छे शायर भी हैं। बड़ी खामोशी के साथ वे अपना साहित्य srijan में लगे हुए हैं और मज़े की बात ये है की उनकी शायरी में अदब तो है ही जीवन के मूल्यों की गहरी समझ भी है। मेरे अन्य शायर दोस्तों की तरह वे भी दिखावे और मंच की शायरी से दूर रहते हैं । उनको पहली बार मंच पर लाने का काम मैंने तब किया जब मैं मीरगंज में ऊप जिलाधिकारी था और एक मुशायरा वहां आयोजित कराया था। १९७० को उन्नाओ में जन्मे मनीष शुक्ला की कुछ ग़ज़ल यहाँ पेश है ............निश्चित रूप से अच्छी लगेंगी।

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कागजों पर मुफलिसी के मोर्चे सर हो गए, और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए।

प्यास के शिद्दत के मारों की अजियत देखिये ,खुश्क आखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए।

ज़र्रा ज़र्रा खौफ में है गोशा गोशा जल रहे, अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए।

सबके सब सुलझा रहे हैं आसमा की गुत्थियां, मस आले सारे ज़मी के हाशिये पर हो गए।

फूल अब करने लगे हैं खुदकुशी का फैसला, बाग़ के हालात देखो कितने अब्तर हो गए।

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गए मौसम का डर बांधे हुए है।

परिंदा अब भी पर बांधे हुए है।

मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है,

समंदर को कमर बांधे हुए है।

हकीकत का पता कैसे चलेगा,

नज़ारा ही नज़र बांधे हुए है।

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आसमा धरती समंदर किसलिए, ये तमाशा बन्दा परवर किसलिए।

कौन सी मंजिल पे जाना है हमें,ये सर ओ सामान ये लश्कर किसलिए।

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याद करने का बहाना चाहिए,आरजू को इक ठिकाना चाहिए।

कुछ नही झूठा दिलासा ही सही ,हौसले को आब ओ दाना चाहिए।

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मुय्याँ kaid की मुद्दत नही है, रिहाई की कोई सूरत नही है।

ठहर जाता हूँ हर शये से उलझ कर , अभी बाज़ार की आदत नही है।

अगस्त 12, 2008

शाबास अभिनव ......गर्व है तुम पर

जैसे ही ख़बर मिली कि ओलम्पिक में अपने देश के अभिनव ने गोल्ड मैडल जीत लिया है। दिल बल्लियों उचल गया। उन्होंने सोमवार को यह करिश्मा कर ओलंपिक के 112 वर्षों के इतिहास में पहली बार भारत की ओर से किसी व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक हासिल किया. भारत के शूटिंग स्टार अभिनव बिंद्रा 10 मीटर एयर राइफ़ल में स्वर्ण पदक हासिल किया. भारत ने 1980 के बाद पहला स्वर्ण पदक जीता है. इसके पहले भारत हॉकी में स्वर्ण पदक जीता था.खेल रत्न से सम्मानित बिंद्रा क्वॉलिफाइंग राउंड में चौथे स्थान पर रहे थे. उन्होंने 596 के स्कोर के साथ फ़ाइनल के लिए क्वॉलिफ़ाई किया था. लेकिन अंतिम मुक़ाबले में उन्होंने सबको पीछे छोड़ दिया. एक ऐसे माहौल में जब देश में सिर्फ़ हताशा, निराशा और असंतोष की ख़बरें ही सुर्खियाँ बन रही थीं, उस सबके बीच अभिनव का यह स्वर्ण पदक जैसे एक प्यासे राष्ट्र के लिए आशा की बूंद बन कर आया है. शायद बहुत लोगों को आज भारत में एक अजीब तरह की खुशी का एहसास हुआ होगा. एक ऐसी खुशी जिसमें शायद 20-20 चैंपियनशिप की जीत का उन्माद नहीं है और शायद अभिनव कभी भी धोनी, युवराज जैसी लोकप्रियता की बुलंदी भी नहीं छुए, पर आज के स्वर्ण पदक में एक अलग और अजब से ठहराव, गर्व और राष्ट्रवाद का समिश्रण है. और इस अनुभूति में कुछ भी जिंगोइस्टिक या कहिए नकारात्मक राष्ट्रवाद नहीं है. आज की अनुभूति में एक ख़ास तरह का इत्मिनान है, आत्मसम्मान है कि आख़िरकार दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र में एक अरब से भी ज़्यादा लोगों में एक तो ऐसा निकला जिसने आज भारत को पहली बार अंतरराष्ट्रीय और वह भी ओलंपिक के मंच पर अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया. हम होंगे कामयाब गाने को सुनते हुए इतने वर्ष हो गए थे कि लगने लगा था कि इस गीत के बोल शायद ही कभी यथार्थ बन पाएं. कम से कम ओलंपिक के संदर्भ में तो आज अभिनव ने इस गीत को चरितार्थ कर दिखाया है. और भरा है राष्ट्र में और भारत के युवा में एक नया आत्मविश्वास कि हमारे लिए भी असंभव कुछ नहीं है. अभिनव बिंद्रा ने ओलंपिक तक का सफ़र कड़ी मेहनत और लगन से तय किया है.

देश की तरफ़ से उनको लाख लाख सुभकामनाएँ काश कि हम कुछ और पदक जीत पाते............... ।

अगस्त 07, 2008

डॉ विक्रम सिंघ -यथार्थ के साथ

"यथार्थ के सामानांतर "नाम की किताब डॉ विक्रम सिंह ने कुछ दिन पहले भेंट की। दरअसल डॉ सिंह दिल्ली में आयोजित एक प्रोग्राम में मिले थे। किताब की तह तक जाने से पूर्व एक नज़र डॉ सिंह पर। वे उत्तर प्रदेश सरकार के परिवहन विभाग में सीनियर अधिकारी हैं १९८५ बैच के। यूँ तो उनसे अक्सर फ़ोन पर बात होती ही रहती थी आमने सामने की पहली मुलाकात इसी प्रोग्राम में २७ जुलाइ को हुई। वे सरकारी काम के साथ लेखन से रिश्ता लगातार बनाये हुए हैं। उन्होंने अब तक लगभग १२ किताबें लिखी हैं। वे मैनपुरी के रहने वाले हैं जो कमोबेश मेरा भी जनपद है। वे विदेश मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार रहे हैं। रेडियो और दूरदर्शन पर भी उनकी उपस्थिति बनी रहती है। कई देशों की यात्रा वे कर चुके हैं। १९८७ के मूलादेवी अवार्ड तथा हिन्दी भूषण से वे सम्मानित किए गए हैं। उनकी अन्य कृतियाँ हैं- प्रिंटिंग मिस्टेक, लकड़ बग्घे शहर में ,सरहद, पानी के निशाँ , नोर्वे की यात्रा ( अंग्रेज़ी में भी ), मम्मी और फादर और यथार्थ के समानान्तर .... ।
यथार्थ के.... किताब अपने आप में अनूठी किताब है। जिंदगी के साथ चलते हुए सभी घटना क्रमों पर लेखक की नज़र बड़ी पैनी है। किताब में कुल १७ निबंध हैं। पहला निबंध सर्व प्रथम होने का गौरव देश के पुराने शानदार अतीत की याद दिलाता है। भारत के बाहर हिन्दी का अस्तित्व कहाँ - किस अवस्था में है, इसका विषद विश्लेषण भी यहाँ मौजूद है। दलित-स्त्री चिंतन में वे लाजबाव हैं। आँखों देखा सच और भोगे हुए सच के बीच में उनके अनुभव चिंतन की एक नई राह खोलते हैं। गावों से शहरों का सफर कितना कष्ट दायक है और आगे इसके परिणाम क्या होंगे ..... लेखक की बेचैनी वाजिब लगती है। लेखक केवल पुराणी चीज़ों से ही नही जुदा है उसमे नए परिवर्तनों से जुड़ने का भी सलीका है इसीलिए इस किताब में तीन लेख कंप्यूटर तथा उससे सम्बंधित सॉफ्टवायर के विषय में भी हैं। इस कित्ताब की अद्भुत उपब्धि.... प्रिंटिंग मिस्टेक ....राम चरित मानस की सर्वाधिक आलोचित पंक्ति के बारे में -"ढोल गंवार .................ताडन के अधिकारी" पर उनका लेख नए विचार के साथ है। सहमत न होते हुए भी उनकी राय महत्त्वहीन नही मानी जा सकती। बहरहाल मैंने इस किताब का पूरा स्वाद चखा है अगर आपको कहीं ये किताब मिल जाए तो इसका मज़ा लीजिये........ डॉ सिंह की विद्वता को एक बार पुन: प्रणाम।

अगस्त 03, 2008

fasahat की कविता मेरे लिए

हे पवन !
IAS pariksha me
सफलता प्राप्त करके
माता - पिता
guroo जन
एवं जनपद का मान badhaya है।
mayan ऋषि की tapo भूमि को
भारत के कोने कोने से
parichit karaya है।
निश्चय ही तुम mahan हो
गुणों की अनुपम khan हो
ishwar तुम्हे
सफलता के शिखर तक pahuchaye
विश्व तुम्हारी sajjanta को sarahe ।
pankaj hirdesh और श्याम kant भी
tumhara anusaran करें
भाई के aadarshon को sir माथे dharen।
mainpuri wasion ने तुम्हे
दिल me basaya है
सैकड़ों abhinandan, vandan कर
vatavaran को
पवन maya बनाया है।
'anwar' की duayen sadaiv
तुम्हारे साथ हैं
तुम्हे ashirwad देने के लिए
उठ रहे सैकड़ों हाथ हैं।
जैसा की मैंने अपने २५ july के ब्लॉग me fasahat anwar के baare me लिखा था .उन्होंने जो lifafa दिया था usme yehi कविता थी । fasahat भाई ने ये कविता न केवल अपनी बल्कि पूरे mainpuri की तरफ़ से ashirwad के रूप me दी थी। मैं aabhari हूँ उनका ........... inayten bakhshne का fasahat भाई के साथ साथ mainpuri के हर एक zarre का शुक्रिया.......... ।

अगस्त 01, 2008

एक ग़ज़ल कच्ची सी........

दिलों का रिश्ता कुछ इस तरह निभाया जाए, अजनबी शहर में नया दोस्त बनाया जाए।

वो नही पर उसका ख्याल बिखरा है हरसू, उसके ख्याल की रौशनी से नहाया जाए।

ताल्लुक कुछ तकल्लुफ से भी जुदा हैं, उन ताल्लुकों को तकल्लुफ से निभाया जाए।

उसके आने का कुछ शोर तो है शहर में ,अपने दर को कई रंगों से सजाया जाए.... ।

ये ग़ज़ल मेरी पत्नी अंजू ने लिखी... ग्रामर के हिसाब से ये ग़ज़ल इस्लाह की ज़रूरत महसूस करती है.मैं चाहता तो इसे ठीक कर भी सकता था मगर इस तरह इसकी खोऊब्सूरती और कच्चापन जाता रहता...ये सोच कर बिना मरम्मत के ताजी ग़ज़ल पोस्ट कर रह हूँ........आपको क्या लगता है.............अच्छे ख्याल को बस ठीक से लफ्ज़ मिल जाए.........फ़िर क्या ......या .......और क्या ? आपकी सच्ची प्रतिक्रिया की बात में आपका ही..........

अकील नोमानी - मेरे अज़ीज़ शायर

मैं बरेली में 2004 - ०६ के दौरान उप जिला अधिकारी के पद पर तैनात रहा । इस दौरान मीरगंज नाम की तहसील में मैं लगभग दो साल रहा। बहुत सी यादें उस तहसील की ,तहसील के लोगों की, तहसील की घटनाओं की आज भी जेहन में जिंदा हैं। कई लोगों से मेरा दिली जुडाव रहा। इन्ही लोगों में से एक थे - अकील नोमानी । अकील नोमानी -ब्लाक मीरगंज में ग्राम विकाश अधिकारी के पद पर तैनात थे। मेरे तहसील में पहुँचने के साथ ही वहां के बीडियो का तबादला हो गया। उनके विदाई समारोह में मुझे रस्मी तौर पर jaanaa पड़ा। विदाई karyakram samanyta aupchrik होते हैं। ये program भी कुछ वैसा था किंतु karyakram का sanchalan कर रहे एक shkhash की तरफ़ मेरा dhyan गया जो बहुत खूबसूरत अंदाज़ में बोल रहे थे......पता किया to batya गया की ये अकिल नोमानी हैं, एक शायर ..........बाद में मेरा उनसे इतना जुडाव हो गया की तहसील में roj का उनका आना जाना हो गया। जिस दिन वे न आते to मैं unhe bulaawa bhejata की अकील कहाँ हो ...मैं intezaar कर रहा हूँ। आज मुझे kahne में कोई hichak नही है के उनकी गिनती देश के बड़े शायरों में होना है देर हो सकती है......और वैसे भी हमारे देश में अच्छे की पहचान देर में होती भी है खैर उनके लिए दुआएं कीजिये और मज़ा लीजिये उनकी ग़ज़लों का...
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दिल से निबाह कर के मुसीबत में आ गए, दो हर्फ़ जिंदगी को कहानी बना गए।
महदूद कर दिया था बिखरने ke शौक ने, ख़ुद में सिमट गए तो ज़माने पे छा गए।
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ख़ुद को सूरज का तरफदार बनने क लिए,
लोग निकले हैं चरागों को बुझाने क लिए,
गम तो ये है क parinde ही मदद करते हैं,
जब ही आता है कोई जाल बिछाने क लिए,
कितने लोगों को यहाँ चीखना पड़ता है अकील,
एक कमजोर आवाज़ दबाने क लिए।
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मैं मकान रहा वो मकीं रही,
जो बजाहिर और कहीं रही,
कोई हुस्न मेरी नज़र में रहा,
सो ये कायनात हसीं रही,
उन्हें आसमानों का शौक रहा,
मera ख्वाब सिर्फ़ ज़मीं रही,
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जेहन जैसे तो कभी दिल जैसे, मुझमे कुछ log hain shamil jaise ।
जब भी देखा तो थकन ख्वाब हुई, है कुछ लोग थे मंजिल जैसे।
उसने यूँ भी देखा हमें अक्सर, हम भी हो दीद क काबिल जैसे।
जिंदगानी की ये मुहतातार्वी, कोई दुश्मन हो मुकाबिल जैसे।
जब मिला इज्ने तकल्लुम तो अकील, यों मेरे होंट गए सिल जैसे।
************* खुदा हाफिज़ कैसा लगा.......... जल्दी फ़िर आऊंगा.