अक्तूबर 28, 2012

"तू हर इक पल का शाइर है ........."- श्रद्धांजलि यश चोपड़ा को !


बीते सप्ताह यश चोपड़ा नहीं रहे......... ! यश चोपड़ा नाम है उस शख्सियत का जिसने बीते पचास वर्षों से कहीं ज्यादा बड़े कैरियर में हिंदी सिनेमा को नए नए ट्रेंड दिए..... लोगों के ख्वाबों को परवाज़ दी.  अस्सी बरस की उम्र में यश जी विदा हो गए अपनी बहुत सी यादों को हम सबके जेह्न में छोड़ के. हिन्दी व्यवसायिक सिनेमा में नए ट्रेंड स्थापित करने वाले और बाक्स ऑफिस की नब्ज पकड़ने में यश चोपड़ा को महारत हासिल थी. बीते पचास बरसों में यश चोपड़ा के सामने कई पीढि़यां गुज़री  हैं.  ’धूल के फूल’ के जमाने के युवा या ता उम्र के उस पड़ाव पर आ गये हैं जहां से उन्हें जिन्दगी के साथ तारातम्य स्थापित करना भारी पड़ रहा है या फिर दीवालों पर तस्वीरों में कैद हो गए हैं. इसी तरह  ’दीवार’ के समय के तमाम युवा अब उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं.  ’डर’ के समय के युवा अब जाहिराना तौर पर प्रौढावस्था की दहलीज पर कड़े हैं. मगर स्वयं यश चोपड़ा अभी भी वहीं थे, उसी जगह पे थे, उसी उम्र पर थे जहां से उन्होंने पचास साल पहले  ’धूल के फूल’ की पारी शुरू की थी. इसकी गवाही  थी उनकी आने वाली फिल्म "जब तक है जान ".
यश चोपड़ा का हिन्दी फिल्मों में योगदान कई  वजहों से याद किया जाता रहेगा।.इसमें कोई शक-नहीं कि यश जी ही वह पहले निर्देशक थे जिन्होंने ’बिछड़ने मिलने’ वाले हिन्दी सिनेमा के कालजयी कान्सेप्ट को सेलुलाइड पर्दे पर उतारा और हिन्दी सिनेमा को सफलता की एक नायाब कुन्जी थमा दी. इसके अलावा  यश जी ने  ’मल्टी स्टारर ’ फिल्मों की परम्परा शुरू की. ’वक्त’ (1953) में उनका यह प्रयोग भी फिल्मों की सफलता की गारण्टी के रूप में स्थापित हुआ. 
               यश जी यहीं नहीं रुके उनके अन्य कई प्रयोग थे, जो कालान्तर में हिन्दी सिनेमा के लिए अपरिहार्य तत्व के रूप में काम करते रहे, वे थे- कर्णप्रिय मधुर  गीत-संगीत, भव्य लोकेशंस , फूलों की वादियां, एक दूसरे में डूबते-इतराते प्रेमी -प्रेमिका, अच्छी पटकथा इत्यादि-इत्यादि चीजों का समावेश. ’फिल्म मेकिंग’ में इन अवयवों का इस्तेमाल बेशक यश जी ने शुरू किया, लेकिन आगे का शायद ही कोई निर्देशक रहा हो जिसने इन प्रयोगों का अपनी फिल्मों में प्रयोग  न किया हो वो चाहे सुभाष घई हों या कि करण जौहर...............! यह बात अलहदा है कि  इन प्रयोगों के  बावजूद यश जी अपने आपको लगातार सफल साबित करते हुए आगे बढ़ते  रहे, जबकि उन्हीं के प्रयोगों को आजमाते हुए उनके साथ के और बल्कि यूं कहें कि उनके बाद आये तमाम सफल निर्देशक धीरे-धीरे ’पहचान की संकट’ के शिकार हो गये.  यह जांच-पड़ताल का विषय तो है मगर सामान्य से शोध के बाद यह निष्कर्ष भी सामने आ जाता है  कि इन प्रयोगों की  यश चोपड़ा ने शरुआत ज़रूर की मगर इन्हें हर बार एक ही तरह नहीं आजमाया बल्कि यूँ कहें कि अपनी ’फिल्म मेकिंग’ में इनका दोहराव नहीं किया जबकि अन्य निर्देशक इन प्रयोगों से आगे नहीं निकल पाये. दोहराव तो शायद यश जी की फिल्म मेकिंग में था ही नहीं ............. ’धूल का फूल’ में जब यश ने अवैध संतान की दास्तानगोई  की थी तो यह नया ट्रेंड था, बदलाव था हिन्दी सिनोमाई सोच में.  बहरहाल फिल्म हिट थी, दर्शकों और समीक्षकों  ने खुले मन से तारीफ़ की  लेकिन इसके बावजूद यश जी ने इसी विषय को गांठ से नहीं बांधा. उनकी अगली फिल्म ’धरमपुत्र’ इस बात का प्रमाण थी जिसने हिन्दू-मुस्लिम एकता का अलम  फहराते हुए ’राष्ट्रीय पुरस्कार- भी जीता था. इसके बाद आई ’वक्त’ जिसमें यश जी ने हिन्दी फिल्मों को हिट करने वाले तमाम अवयव एक साथ सौंप दिये. राजकुमार के धारदार संवाद हों या बलराज साहनी का फहराता रूमाल..... सब नशा सा बन कर छा गया हिंदी सिनेमाई बस्ती में. 
          उनकी पीढ़ी के तमाम निर्देशक इन्ही अवयवों में सफलता की इबारत लिखते रहे मगर यश जी ने अपने ही गढ़े फार्मूलों को पीछे छोड़ा और नया तानाबाना रचते हुए ’दाग ’ जैसी सजीदा फिल्म बनाकर अपनी प्रतिभा और अपनी संभावनाओं का नया परिचय दिया. बात यही ख़त्म नहीं होती, इसके बाद एग्री यंग मैन का चरित्र गढ़ कर यश जी ने न केवल सिनेमा के ट्रेंड को बदल दिया बल्कि अमिताभ बच्चन नामक इस नायक का सदी का महानायक बनने का पथ प्रशस्त  कर दिया. अमिताभ के साथ उनकी ट्यूनिंग का सिलसिला आगे  त्रिशूल, कभी-कभी और सिलसिला तक चलता रहा. यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि बेशक अमिताभ अपने आगे के कैरियर में प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई से हमकिनार रहे मगर उनकी शख्सियत में  अगर किसी ने इन्द्रधनुषी रंग भरा तो वे यश चोपड़ा ही थे.
1989 में उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवार की किसी चुलबुली और सपनों में जीने वाली लड़की ’चांदनी ’ को पर्दे पर उतारा. नायिकाएं सचमुच नायिकाएं ही होती हैं और इन्हें कैसे पेश किया जाए इसमें यश जी बेजोड़ थे. सफ़ेद शिफोन साड़ी  में श्रीदेवी - जूही चावला का रूप दर्शक अभी तक शायद ही भूल पाए हों. चांदनी के बाद ’लम्हे’ में उन्होंने जिस तरह की कहानी पर फिल्म बनाई वो जोखिम भरा क्रिएशन था मगर यश जी ने अपनी स्वीकारोक्ति यहां भी कराई.
1993 में यश जी का सफर शुरू होता है उस नायक के साथ जिसने ताज़ा हवा की तरह हिंदी सिनेमा में दस्तक दी.  आज के समय के सबसे दिलकश नायक शाहरूख खान के साथ उन्होंने  'डर' बनायी . इस फिल्म में जुनूनी मगर  दब्बू प्रेमी के रूप में यश जी ने शाहरूख का ऐसा किरदार गढ़ा जो शायद हिन्दी सिनेमा में इससे पहले कभी नहीं रचा गया, यहीं से सिनेमा को एक नया सुपर स्टार मिला. इसके बाद तो शाहरूख के साथ उनकी जुगल बन्दी दिल तो पागल है, वीर जारा और जब तक है जान तक जरी रही.
उनका फैसला था कि ’जब तक है जान’ के बाद वे रिटायर हो जायेंगे, लेकिन क्या पता था कि वे दुनिया से ही चले जायेंगे. 
यश जी को याद करते हुए यही कह जा सकता है कि उन्होंने  सिनेमा को भव्यता और कलात्मकता प्रदान की है. व्यवसायिकता को ध्यान में रखते हुए फिल्मों में कहानी-पात्र-गीत-संगीत का जो सम्पूर्ण पैकेज उनकी फिल्मों में मिलता है वो कहीं नहीं. साहिर की दिल को छू लेने वाली रचनाएँ हों.... खय्याम  का संगीत हो या शिव-हरि की मधुर लहरियां, सलीम-जावेद का ड्रामा हो या रेखा श्री-जूही-माधुरी की दिलकश अदाएं परोसने की बात हो यश जी एक चित्रकार की हैसियत से पेश आते हैं. ये उनका ही अंदाज़ था जो लोग अभी तक "मेरे पास माँ है, या क क क क किरन......" का अंदाज़ नहीं भूले.  बेशक वे बासु चटर्जी, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल की पंरपरा के नहीं हैं लेकिन यह भी सच है कि वे सत्य के खुरदुरे धरातल से दूर हटकर आम आदमी को ख्वाब के उस उफक पर ले जाते हैं जहां प्यार है, रोमांस है, धड़कन है, सांस है, दिल है, जज्बात है, जुनून है, इश्क है .....................। 
             श्रद्धांजलि और नमन यश जी आपको. 

सितंबर 22, 2012

अरसे बाद ग़ज़ल  कही है...... ! आप की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ_____----

किया सब उसने सुन कर अनसुना क्या
वो खुद में इस क़दर था मुब्तिला क्या

मैं हूँ गुज़रा हुआ सा एक लम्हा
मिरे हक़ में दुआ क्या बद्दुआ क्या

किरन आयी कहाँ से रौशनी की
अँधेरे में कोई जुगनू जला क्या


मुसाफ़िर सब पलट कर जा रहे हैं
‘यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या’

मैं इक मुद्दत से ख़ुद में गुमशुदा हूँ
बताऊँ आपको अपना पता क्या

ये महफ़िल दो धड़ों में बंट गयी है
ज़रा पूछो है किसका मुद्दु’आ क्या

मुहब्बत रहगुज़र है कहकशां की
सो इसमें इब्तिदा क्या इंतिहा क्या

अगस्त 16, 2012

भारत छोड़ो आन्दोलन और धानापुर !



इतिहास के राजमार्गों से गुज़रते हुए कुछ अनाम सी पगडंडियाँ भी मिल जाती हैं जिनकी शिनाख्त बेशक उस करीने से न हो पाई हो जिनकी वे हकदार थीं मगर इससे उनकी महत्ता कम नहीं हो जाती. ऐसी ही तमाम पगडंडियाँ स्वतंत्रता के संग्राम के दौरान निकलती हैं जो भले ही इतिहास में उस महत्तव को नहीं पा सकीं पर उनकी गूँज से तत्कालीन परिस्थितियां हुईं. अगस्त 1942 में बम्बई में महात्मा गांधी की 'करो या मरो' की उद्घोषणा देश के कोने-कोने तक पहुँच चुकी थी। पटना, कलकत्ता, गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ सभी जगहों पर तिरंगा लहरा उठा, विद्रोह का बिगुल बज उठा, तार-संचार रेल-पटरी सभी को ध्वस्त करने का सिलसिला शुरू हो गया। सरकारी इमारतों, थानों, सचिवालयों, अदालतों पर तिरंगा फहराने लगा और जगह-जगह लोगों को गोलियों से भूना गया। चन्दौली धरती भी इससे अछूती नहीं रही।
इस जिले में स्थानीय आन्दोलनकारियों ने अपने योगदान का उदाहरण पेश किया10 अगस्त को हेतमपुर ग्राम में कामता प्रसाद के नेतृत्व में सम्पन्न एक बैठक में निर्णय लिया गया किआज़ादी के समर्थन में स्थानीय बाजार बन्द कराये जाएँ । गुलाब सिंह कादिराबाद की अगुआई में 11 अगस्त को कमालपुर बाजार और लल्लन सिंह की अगुआई में धानापुर का बाजार बन्द कराया गया। इसी क्रम में 12 अगस्त को अन्दोलनकारियों का जत्था कामता प्रसाद विद्यार्थी की अगुआई में गुरेहूँ ग्राम पहुँचा जहां बन्दोबस्त का कार्य बन्द कराया। यहां आजादी का झन्डा फहराया गया। यहां बन्दोबस्त अधिकारी व पटवारी को अपना बस्ता समेटने पर विवश किया गया। चन्दौली के स्वतंत्रता सेनानियों ने 13 अगस्त 1942 ई0 को चन्दौली तहसील पर आजादी का झण्डा फहराने का निर्णय लिया। इस आन्दोलन में श्री रामसूरत मिश्र, श्री बिहारी मिश्र, श्री जगत नारायण दुबे, श्री चन्द्रिका शर्मा, श्री रामनेरश सिंह, श्री रामधनी सिंह, श्री सरजू साहू, श्री लालता सिंह, श्री विभूति सिंह, श्री लालजी सिंह, श्री बैजनाथ तिवारी, श्री सरजू साहू एवं श्री उमाशंकर तिवारी आदि महत्वपूर्ण नेता शामिल हुये। 14 अगस्त को उक्त आन्दोलनकारियों के नेतृत्व में एक जत्था सकलडीहा स्टेशन पहुँचा और वहां पर झण्डा फहराया इसके बाद यह निश्चय किया गया कि 16 अगस्त को एक बजे दिन में धानापुर थाने पर झण्डा फहराया जायेगा।
16 अगस्त को ये जत्था धानापुर थाने पहुँचा। हजारों की संख्या में उमड़ती भीड़ थाने की तरफ बढ़ने लगी, लोग ’सर पर बांधे कफन, शहीदों की टोली निकली’ गीत गाते हुये जा रहे थे, जूलूस थाने के फाटक के सामने पहुँच गया। श्री राजनारायण सिंह, सूर्यमनी सिंह, बलिराम सिंह ने तैनात थानेदार को समझाया कि वे आन्दोलनकारियों को शान्तिपूर्ण ढंग से थाने पर झण्डा फहराने दें। थानेदार अनवारूल हक ने आन्दोलन कारियों से साफ़ शब्दों में कहा की अगर झंडा फहराने की कोशिश की तो गोली चला दी जाएगी थानेदार अपनी जिद पर अड़ा था और खुद मोर्चाबन्दी कर 52 चैकीदारों को अर्द्धवृत्ताकार बनाकर मोर्चाबंदी कर लीइसमें लाठी बन्द 08 हवलदार थे और चैकीदार के पीछे राइफल धारी सिपाही तैनात थे। आन्दोलनकारी मगर इन धमकियों से कहाँ डरने वाले थे, कामता प्रसाद विद्यार्थी जी बिजली की तीव्र गति से थाने के धारदार फाटक को लांघकर उस पार पहुँच गये और उनके साथ रामाधार कोहार भी भीतर कूद गये। विद्यार्थी जी के फाटक लांघने के साथ हीरा सिंह, रघुनाथ सिंह, महंगू सिंह, सत्यनाराणय सिंह, शिवनाथ गुप्ता एवं गुलाब सिंह फाटक पर चढ़ चुके थे और इसी बीच थानेदार की रिवाल्वर की गोली धाँय-धाँय कर उठी। एक गोली विद्यार्थी जी के कान के पास से निकल गयी लेकिन हीरा सिंह, मंहगू सिंह, रघुनाथ सिंह को प्राणघातक गोली लगी। कुल आठ आदमियों को गोली लगी। इसी बीच फाटक के भीतर ही नीम के पेड़ के नीचे ही श्री कामता प्रसाद विद्यार्थी ने झण्डा फहरा दिया। झण्डा फहराने के बाद विद्यार्थी जी फाटक लांघ कर बाहर आ गये। भीड़ के उग्र मिजाज़ को समझ कर थानेदार भागने लगा, जनता उद्वेलित हो गयी, क्रुद्ध जनता ने थाने को तीनों ओर से घेर लिया। उसी समय आन्दोलनकारी हरि नारायण अग्रहरि ने दौड़कर थानेदार को पकड़ लिया। क्रुद्ध जनता की अनगिनत लाठी थानेदार पर बरसने लगी और वह लुढ़क कर जमीन पर गिर गया और मौके पर उसकी मृत्यु हो गयी। क्रुद्ध जनता ने हेड कान्सटेबल और 02 सिपाहियों को फाटक के सामने ही मौत के घट उतार दिया और कुछ सिपाही वर्दी उतार कर छुपकर भाग खड़े हुये।हीरा सिंह वहीं शहीद हो गये, रघुनाथ सिंह सकलडीहा अस्पताल में दाखिल हुये और वहां शहीद हुए और मंहगू सिंह रास्ते में शहीद हो गये। उद्वेलित लोगों ने थाने के फाटक तोड़ दिया, कागज जला दिया, थाने के फर्नीचर तथा चारों पुलिस कर्मियों की लाशों को थाने के फाटक के बाहर इकट्ठा करके जला दिया।
16 अगस्त से 26 अगस्त तक धानापुर थाने पर तिरंगे झंडे का कब्जा बना रहा। इस घटना को लेकर स्थानीय लोगों में आज भी असीम उत्साह रहता है. इतिहास में धानापुर का यह संग्राम छोटी सी घटना जरूर हो सकती है मगर इस घटना को लेकर स्थानीय जन आज भी उसी श्रद्धा से जुड़ा है

जुलाई 24, 2012

स्वतंत्रता सेनानी 'कैप्टन लक्ष्मी सहगल' को शत शत नमन !

कल महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज की कैप्टन लक्ष्मी सहगल का कानपुर में 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया. उनका जीवन संघर्ष और मानव सेवा की अद्भुत मिसाल है. एक स्त्री होते हुए भी स्वतंत्रता संग्राम में औपनिवेशिक शक्तियों से मुकाबला करने से लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक दीन - दुखियों की चिकित्सा करने तक, उनके व्यक्तित्व को नयी आभा देते हैं.

1912 में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में जन्मी लक्ष्मी सहगल ने मेडिकल डिग्री हासिल की और उसके बाद सिंगापुर में गरीबों के लिए वर्ष 1940 में एक क्लीनिक की स्थापना की थी. जुलाई 1943 में जब सिंगापुर में सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट का गठन किया जिसका नाम वीर रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में झांसी की रानी रेजिमेंट रखा गया. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अटूट अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं. अक्तूबर 1943 को डॉ0 लक्ष्मी स्वामिनाथन 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट में कैप्टेन पद की सैनिक अधिकारी बन गयीं. बाद में उन्हें कर्नल का पद मिला तो वे एशिया की पहली महिला कर्नल बनीं. बाद में वे आज़ाद हिन्द सरकार के महिला संगठन की संचालिका भी बनीं. वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं. आज़ाद हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया. लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गईं. आज़ादी के बाद उनके संघर्ष का स्वरुप बदला और वे वंचितों की सेवा में लग गईं.

वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा लिया. एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन अपनी अंतिम सांस तक वे अपने घर में बीमारों का इलाज करती रहीं. भारत सरकार ने उन्हें 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया. जीवन के वैभव को त्याग कर दलितों, शोषितों, मेहनतकशों, उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के लिए जीने मरने वाली लक्ष्मी सहगल ने लाखों लोगों को स्वास्थ्य, सुरक्षा, साहस व आत्मविश्वास की सीख दी. कानपुर में उन्होंने दंगों के दौरान दोनों संप्रदायों- समुदायों को समझाने का काम किया. दंगो के दौरान घायलों का इलाज करके मानवता की मिसाल पेश की.

इस महान स्वतंत्रता सेनानी को शत शत नमन !

जून 18, 2012

लावा के मार्फ़त जावेद अख्तर की वापसी.... !





प्यास की कैसे लाए ताब कोई
नहीं दरिया तो हो सराब कोई

शाइरी के शौकीनों के लिए जावेद अख़्तर का नया गज़ल/नज़्म संग्रह ‘लावा’ बेशक एक दरिया ही है, सराब तो (मृगतृष्णा) कतई नहीं। एक मुद्दत बाद जावेद अख़्तर हाजिर हैं,लगभग सत्रह बरसों बाद। वैसे उनकी ये हाजिरी मजमूए के साथ तो सत्रह बरस लम्बी हो सकती है वरना अपने फिल्मी सफर के साथ उनका साथ रोज-रोज का है,चाहे वो उनके फिल्मी गीत हों, पटकथा हो, संवाद हो, रियल्टी शो हो, सेमिनार हो,अखबारों में किसी मुद्दे पर प्रतिक्रया हो या फिर टेलीविजन पर कोई चैट शो हो।
बहरहाल 20 वें विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में जावेद अख़्तर ‘लावा’ के मार्फत फिर एक बार चर्चे में हैं। जावेद साहब जनता की नब्ज बखूबी जानते हैं तभी तो फिल्मी दुनिया में बीते लगभग चालीस बरसों से अपनी मौजूदगी धमक

अपने अदबी प्रशसंकों को ध्यान में रखकर ही जावेद साहब ने ‘लावा’ को पेश किया है। वे ये खूब जानते हैं कि अदब की महफिल में हल्कापन नहीं चल सकता सो उन्होंने ‘लावा’ के जरिए वाकई जांची-परखी चीजें परोसी हैं। वे इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘शायरी तो तब है कि जब इसमें अक्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया है। इसमें असंगति है मगर ‘‘बेखु़दी-ओ-हुशियारी ,सादगी-ओ-पुरकारी,ये सब एक साथ दरकार हैं।’’ तो जाहिर है कि शाइर अपनी जिम्मेदारी से वाकि़फ़ है। के साथ बनाये हुए हैं। जावेद साहब ये भी जानते हैं कि कौन सी चीज ‘पब्लिक’ को पसंद आती है और कौन सी चीज ‘अदबी’ लोगों को
ग़ज़ल के रवायती मिज़ाज के साथ-साथ जावेद साहब के नये-नये प्रयोग ‘लावा’ की जान हैं। वे जब यह लिखते हैं कि " जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता/ मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता" और "ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना,हामी भर लेना/ बहुत हैं फा़यदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता" तो जाहिर कर देते हैं कि ‘लावा’ के जरिए वे क्या कुछ नया देने वाले हैं। नये प्रयोगों का मज़ा इस शेर में लीजिए- "पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत/पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।" पानी के ऊपर बतख की ख़ामोशी और पानी के अन्दर उसके पैरों की हलचल को शायर कि
स तरह महसूस करता है और किसी खूबसूरती से व्यक्त करता है यही जावेद अख़्तर का करिश्मा है। दोस्ती- दुश्मनी के रंग उर्दू शाइरी में भरे पडे़ हैं, मगर जा़वेद के जाविए से इस रिश्ते का एक नया रंग देखें- "जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है/ कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।"

ग़ज़ल की रिवायत को निभाना है तो जाने-अनजाने रिश्तों की,दिल की ,इश्क की गलियों से गुजरना हो ही जाता है। इस अहसास को जावेद अलग अलग तरीके से जाहिर करते हैं- "बहुत आसान है पहचान इसकी/ अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है" या "फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे/ अजीब बात हुई है उसे भुलाने में" और इस शेर के तो क्या कहने हैं- "जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा/ कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।"

सफर में हरेक आदमी है। सफर-मंजिल का यह रिश्ता शाइरी की जान रहा है। इस मजे़दार सिलसिले को कुछ इस तरह वुसअत देते हैं कि "मुसाफि़र वो अजब है कारवाँ में/ कि जो हमराह है शामिल नहीं
है।"

चित्रपट और अदब की दुनिया में जावेद़ अख़्तर बहुत बड़ा नाम है। उनके पीछे कही न कही जां निसार अख्तर, मजाज का नाम भी जुड़ा रहता है। 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर मे जन्मे जावेद अख़्तर का अलीगढ़, लखनऊ, भोपाल के बाद मुंबई तक का सफर जिन्दगी जीने के तरीकों की अपनी अनोखी दास्तान है। जिन्दगी जीने के अन्दाज के बारे में उनसे बेहतर और कौन बता सकता है। उनका ये शेर इसी नसीहत की बानगी है- "अब तक जि़न्दा रहने की तरकीब न आई/ तुम आखि़र किस दुनिया में रहते हो भाई ।" आदमी को परखने का अहसास बहुत नाजुक होता है। जावेद जब यह कहते है कि " लतीफ़ था वो तख़य्युल से,ख्वाब से नाजु़क/ गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में तो इस नाजुकी का अहसास शिद्दत से होता है।"

तन्हाई का आलम और हिज्र की बातें शायरी के लिये मुफ़ीद जमीन बनाती हैं। इन
अनुभवों को महसूस करना शायरी के लिये बेहद जरूरी है। ‘लावा’ के वसीले से जावेद साहब इकरार करते है कि- "बहस,शतरंज, शेर ,मौसी़की/ तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे" और "आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास/ देखिए आज याद आए कौन ।" लेकिन इस तन्हाई को सूफियाना और रूहानी जामा पहनाना हो तो भी जावेद अख़्तर कमतर नहीं पड़ते- "बदन में कै़द खु़द को पा रहा हूँ / बड़ी तन्हाई है,घबरा रहा हूँ ।"

वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। वक्त त के साथ आदमी, समाज, गांव, नगर, जरूरतें सभी का नक्षा बदला है। इन बदलावों को लेकर उनकी नजर-नीयत बिल्कुल साफ है। तभी तो वे इन परिवर्तनों के लिये सच्ची बात कहते हैं कि- "तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहां भी अब शहर ही बसे हैं/ कि ढूँढते हो जो ज़िन्दगी तुम वो ज़िन्दगी अब कहीं नहीं है ।" जि़द और जु़नून जावेद के वे हथियार हैं जो न केवल उनके व्यक्तित्व/ शख्सियत में बल्कि उनकी शायरी में पूरे जोशोखरोस के साथ प्रकट होते हैं . वे कहते हैं - "जो बाल आ जाए शीशे में तो शीशा तोड़ देते हैं/ जिसे छोड़ें उसे हम उम्रभर को छोड़ देते हैं ।"

लफ्जों के जरिये इमेजेज खीचने में जावेद अख़्तर की कोशिशें बेहतरीन हैं। दो मिसरों में पूरी की पूरी तस्वीर खींचने में जावेद साहब का हुनर कमाल का है। ये शेर देखें जिनमे वे दो मिसरों में पू
रा पोर्ट्रेट सा खींच देते हैं- "शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू/ फिर हुआ क़त्ल आफ्ताब कोई" या "फिर बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में/ कै़द अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा ।" यही करिश्मा इन शेरों में भी झलकता है- "थकन से चूर पास आया था इसके/ गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों और कैसे दिल में खु़षी बसा लूं मैं/ कैसे मुट्ठी में ये धुंआ ठहरे ।"
एक कमी जरूर उनके प्रशंसकों को अखर सकती है वो है कुछ शेरों में दोहराव। दोहराव इस मायने मे क्योंकि उनके पहले गज़ल़/नज़्म संग्रह ‘तरकश ’ के कुछ शेर यहाँ भी जस के तस मौजूद हैं। जिन्होंने ‘तरकश ’ को पढ़ा है उन्हें ‘लावा’ मे यह दोहराव खटक सकता है। ‘तुम्हें भी याद नहीं..............’ जैसे कई शेर पहले ही काफी मकबूल हैं उन्हे इस संग्रह मे फिर से प्रस्तुत करना जरूरी नहीं था। ‘लावा’ की खूबसूरती केवल शेर-नज़्मों-कतअ तक ही नहीं सिमटी है। इस मज्मूअ के कवर पेज पर उनकी तस्वीर( जो बाबा आज़्मी ने खींची है) लाजबाव है जो पाठकों को सहज ही अपनी ओर खींचती है। पूरे कलेवर व साज सज्जा के लिये प्रकाषक राजकमल बधाई के पात्र हैं।
जावेद अख़्तर की नज्में जादू की तरह असर करती हैं । उनका कथ्य और विषय दोनों ही
इतने स्पष्ट होते हैं कि नज़्म के आखिरी सिरे तक आते आते पाठक नज़्म से अहसासो के तौर पर चस्पा हो जाता है, एकाकार हो जाता है। इस संग्रह की नज्में शबाना, अजीब आदमी था वो (कैफी आज्मी के लिये) इस बात की गवाह है।

आज सवेरे से
बस्ती मे

कत्लो-खूं का
चाकूजनी का
कोई किस्सा नहीं हुआ है
खै़र

अभी तो शाम है
पूरी रात पड़ी है।
लावा के मार्फत जावेद अख़्तर ने वो नज़्म भी सौगात मे दी है जो उन्होने 15 अगस्त 2007 को संसद मे उसी जगह से सुनाई थी जहां से कभी 15 अगस्त 1947 को आजादी का ऐलान किया गया था। वे इस नज़्म मे कहते हैं-है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना/ मुसाफिरों अभी बाकी है कुछ सफर अपना तो लगता है कि उनकी ग़ज़लें/नज़्मे सच्चाई को बयां करने का कितना हसीं अन्दाज रखती हैं । बहरहाल ‘लावा’ के आखिरी सफहे तक आते आते यह अहसास होता है कि --

कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं

( ***** यह समीक्षा पाखी के जून अंक में प्रकाशित हुई है. )

जून 13, 2012

मेहदी साहब - अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले...!


बात उन दिनों की है जब मैं ग्रेजुएसन फर्स्ट इयर में था. ग़ज़ल सुनने का नया नया शौक लगा था. बिना किसी दुराग्रह के सबकी ग़ज़लें सुन लिया करते थे. ऐसे ही एक रोज़ हॉस्टल के किसी मित्र के कमरे में बैठे हुए अचानक एक नयी ग़ज़ल सुनने को मिली. " मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे ....." यही बोल थे उस ग़ज़ल के जिसको सुनकर गायक की आवाज़ ने मुझे फनकार का नाम जानने को बेचैन कर दिया , कैसेट का कवर उठा कर पढ़ा तो पता चला कि ग़ज़ल मेहदी हसन ने गायी है. बस यहीं से मेहदी साहब को सुनने की ऐसी ललक पैदा हुयी जो हर दिन बढती ही गयी. इसके बाद तो हद यह थी कि सिर्फ मेहदी साहब को सुनना रह गया. दीवानगी का आलम यह रहा कि उसके बाद से अब तक जब भी मेहदी साहब का कोई गीत-ग़ज़ल-ठुमरी- क्लासिकल तराना मिला तुरंत अपने म्यूजिक लाइब्रेरी का हिस्सा बना लिया. लगभग बीस एक बरस गुज़र गए उनकी सोहबत में. कभी " मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है " को गुनगुनाया तो कभी " रफ्ता रफ्ता वो मिरी हस्ती के सामा हो गए" को. रोमांस किया तो उनकी गायी ग़ज़ल " दुनिया किसी के प्यार में ज़न्नत से कम नहीं" नेपथ्य में गूंजती सी प्रतीत हुयी. कभी मुश्किल दौर आया तो दिल को " एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाकी है" याद आया. इनके अलावा जब भी वक्त मिला तो" शोला था जल बुझा हूँ...", " रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ....", "दायम पड़ा हुआ है.... ", " प्यार भरे दो शर्मीले नैन" जैसी ग़ज़लों को सुनते रहे और हैरत करते रहे कि इस ज़मीं पर रहती दुनिया में कोई इतने करीने से किसी कलाम को कोई अपनी आवाज़ दे सकता है.

ऐसे में लम्बे अरसे से बीमार चल रहे शहंशाह ए ग़ज़ल मेंहदी हसन के इंतकाल की खबर संगीत की दुनिया के लिए बहुत ख़राब खबर है. 85 वर्षीय मेंहदी हसन फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन को गत 30 मई को कराची के आगा खान अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था. उनके ख़राब स्वास्थ्य को लेकर लगातार ख़बरें आ ही रहीं थीं. तीन दिन पहले हसन के कई अंगों में संक्रमण हो गया था. हालत से जूझते हुए 13 जून को दोपहर में उन्होंने अंतिम सांस ली.
‘रंजिशें सही’, ‘जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं‘, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा’ जैसी बेहतरीन गजलों को अपनी बेहतरीन आवाज से नवाजने वाले हसन का जन्म राजस्थान के लूना में 18 जुलाई 1927 को हुआ था. हसन को संगीत विरासत में मिला था. वह कलावंत घराने से ताल्लुक रखते थे, वे इस घराने के 16वीं पीढ़ी के फनकार थे. उन्होंने अपने पिता आजम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की तालीम ली जो ध्रुपद गायक थे. हसन ने बेहद कम उम्र से ही गाना शुरू कर दिया और आठ बरस की उम्र में पहला कार्यक्रम पेश किया. भारत के विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे. पाकिस्तान में शुरुआती दिनों में उन्होंने
मोटर मिस्त्री जैसा काम भी किया मगर इस दौरान भी संगीत के प्रति उनका जुनून बरकरार रहा. उन्हें 1957 में पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिए गाने का मौका मिला. उन्होंने शुरुआत ठुमरी गायक के रूप में की क्योंकि उस दौर में गजल गायन में उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुख्तार बेगम का नाम चलता था.धीरे-धीरे वह गजल की ओर मुड़े. इसके बाद मेहदी हसन ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इसके बाद वे फिल्मी गीतों की दुनिया में व गजलों के निर्विवाद बादशाह के रूप में स्थापित हो गए.
यह उनके फन की काबिलियत थी कि उन्हें शहंशाह ए गजल कहा जाने लगा. गंभीर रूप से बीमार होने के बाद उन्होंने 80 के दशक के आखिर में गाना छोड़ दिया.
1957 से 1999 तक संगीत की दुनिया में लगातार सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना लगभग छोड़ दिया था. उनकी अंतिम रिकॉर्डिग 2010 में सरहदें नाम से आई थी. अहमद फ़राज़, फैज़, परवीन शाकिर, ग़ालिब की ग़ज़लों को उन्होंने इस तरह गया कि सुनते हुए यही महसूस होता है कि जैसे ग़ज़लों की रूह पर जमा परतें उखाड़ रही हों. हर लफ्ज़ को उनकी गायकी से नया उफक मिलता था. श्रोता उन्हें सुनते वक्त कहीं खो जाता था. मेहदी हसन वह शख्स थे जिन्हें हिंदुस्तान व पाकिस्तान में बराबर का सम्मान मिलता था. इन्होंने अपनी गायिकी से दोनों देशों को जोड़े रखा था. उनका निधन गजल गायिकी के उस स्तम्भ का गिरने जैसा है जो शायद कभी पुनर्स्थापित किया जा सके.

मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि इस अज़ीम गायक की शान में क्या लिखूं.... बस यही कह सकता हूँ कि ''अब के बिछडे़ तो शायद ख्वाबों में मिले/जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले/ ढूंढ़ उजडे़ हुए लोगों में वफा के मोती/ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिले ..'' !

आज चंद ग़ज़लें मेरे जेहन में आ रहीं हैं जिन्हें बीते दो दशकों में मैंने अनगिनत बार सुना होगा. ये वो ग़ज़लें हैं जिनमें मेहदी साहब की आवाज़ का उतार चढ़ाव और उनकी लफ्ज़ आदायगी का जादू मेरे सर चढ़ कर बोलता रहा है उन्हें याद कर रहा हूँ-----
  • गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले
  • आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
  • पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
  • तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ
  • मुहब्बत करने वाले
  • रफ्ता रफ्ता
  • भूली बिसरी चंद उम्मीदें
  • अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले
  • मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
  • हर दर्द को ए जाँ मैं सीने में सामा लूं
  • रोशन जमाल ए यार से हैं
  • भूली बिसरी चाँद उम्मीदें
  • गुंचा ए शौक लगा है
  • रंजिश ही सही
  • चरागे तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
  • प्यार भरे दो शर्मीले नैन
  • दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है
  • वो दिल नवाज़ है
  • आज वो मुस्कुरा दिया
  • जब आती है तेरी याद
  • मैं नज़र से पी रहा हूँ
  • ये मोजिज़ा भी मुहब्बत कभी
  • दिल की बात लबों पे लाकर
  • दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
  • दायम पड़ा हुआ हूँ
  • मुब्हम बात पहेली जैसी
  • एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा
  • एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाकी है
  • शोला था जल बुझा हूँ
  • ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
  • उसने जब मेरी तरफ प्यार से देखा होगा
  • किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
  • मैं ख्याल हूँ किसी और का
  • राजस्थानी लोक गीत पधारो म्हारे देश
  • जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
  • तूने ये फूल जो जुल्फों में लगा रखा है

अप्रैल 24, 2012

बाय बाय नोयडा....!


करीबन 10  माह के गौतम  बुद्ध नगर के मुख्य विकास अधिकारी की  पोस्टिंग के बाद अब  चंदौली जाने का हुक्म मिला है. तबादले- पोस्टिंग्स तो हमारी सरकारी नौकरी का अटूट हिस्सा हैं..... अगर ये पोस्टिंग्स न हों तो एक शहर में ज़िन्दगी गुज़ारने का कितना बोरिंग अनुभव होगा. खैर  इस बात को छोड़ते हैं..... चंदौली में आने के बाद  गौतम  बुद्ध नगर  में बिताये उन 10 महीनों के बारे में सोचता हूँ तो संतुष्टि का अनुभव होता है.  गौतम  बुद्ध नगर में मेरी पोस्टिंग में गत जुलाई में हुयी थी.  
हाइवे पर दौड़ते वाहन

जुलाई 2011 से अप्रैल 2012 तक का यह कार्यकाल मुझे इसलिए याद रहेगा क्योंकि इस दौरान इस जिले में किसानों - प्रशासन के बीच जो अविश्वास का दौर चल रहा था वो सुलझा.सीनियर अधिकारियों के सानिध्य में रहते हुए इस तरह के माहौल में काम करना निश्चित रूप से मुझे अच्छा  लगा.  यहीं रहकर मुझे भारत में पहली बार  हो रही फार्म्युला -1 रेसिंग का नोडल अफसर रहने का अवसर प्राप्त हुआ. यह अनुभव अपने आप में बेमिसाल था.प्रबंधन के लिहाज से इतनी बड़ी इवेंट्स को सफलतापूर्वक संपन्न कराना  हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रहता है. दुनिया भर की मीडिया और तमाम अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों की उपस्थिति में यह आयोजन सफलता से संपन्न हुआ.  इसके अलावा विधान सभा निर्वाचन का जिम्मेदारी भरा काम..... इत्यादि इत्यादि,  बहरहाल  सभी काम भली प्रकार गुज़र गए. 

गौतम  बुद्ध नगर, उत्तर प्रदेश की प्रगति का पैमाना है. कहने को जिले का नाम गौतम  बुद्ध नगर है मगर हर कहीं इसे  'नोएडा' के नाम से जाना जाता है.दिल्ली और उत्तर प्रदेश के बीच सेतु की तरह होने के कारण इस जिले का अपना ही आर्थिक-  राजनीतिक  और प्रशासनिक महत्त्व है.  1997 में बुलंदशहर और ग़ाज़ियाबाद के हिस्सों को अलग कर इस जिले को बनाया गया था. इस जिले का एक क़स्बा दनकौर है जो गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम होने की कथा से जुड़ा हुआ है. यह भी जनश्रुति है कि इस जिले का बिसरख क़स्बा त्रेता युगीन लंकाधिपति रावण के पिता की जन्मस्थली है. आज के दौर की बात करें तो यह जिला अपने औद्योगिक कारणों, तकनीकी विद्यालयों, उच्च स्तरीय शैक्षिक संस्थानों, मल्टी स्पेशियलटी होस्पिटल्स, बड़े बड़े  मॉल्स , बहुमंजिली इमारतों और बेहतर जीवन शैली के लिए जाना  जाता है. इतना सब होने के बावजूद इस जिले को प्रगति के बहुत से प्रतिमान गढ़ने हैं, उम्मीद है आने वाले समय में ये अपेक्षाएं भी पूरी होंगी.  

अलका याग्निक के साथ
इस जिले में रहकर कई नए अनुभव हुए. इस जिले में रहते हुए कई साहित्यकारों- सृजनधर्मियों  के संपर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ. नोएडा महोत्सव के दौरान सूफी गायक वडाली बंधुओं और अलका याग्निक के साथ मुलाकातें  जीवन की सुखद यादों में संचित हो गयी हैं. इसी तरह लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार अशोक वाजपेई, अज़ीम शायर शीन काफ़ निज़ाम, कवि कुमार विश्वास, कश्मीरी साहित्यकार अफ्ज़ुर्दाह साहब, लेखक जगदीश व्योम, विज्ञान व्रत, चित्रकार लाल रत्नाकर, उर्दू प्रेमी कामना प्रसाद, लोक गायिका मालिनी अवस्थी, पाखी पत्रिका के अपूर्व जोशी और प्रेम भरद्वाज से मिलने का अवसर मिलता रहा. वहीं कुछ पुराने सृजनधर्मियों से लगातार मेल मुलाकातें भी इस दौरान निर्बाध रूप से चलती रहीं. गज़लकार उदय प्रताप, आलोक श्रीवास्तव, तुफैल चतुर्वेदी, कमलेश भट्ट, हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशि शेखर जी से भी इसी कड़ी में मुलाकातें होतीं रहीं. कुछ ऐसे मित्र जिनसे फोन पर तो बातचीत होती रहती थी मगर मिले कभी नहीं थे उनसे भी यहाँ रहते हुए मुलाकातें हो सकीं.इनमे ब्लोगर मित्र अमरेन्द्र त्रिपाठी,  अनुराग आर्य  और सम्प्रति आयरलैंड  निवासी दीपक मशाल प्रमुख रहे. इस जिले का आभार मेरे ऊपर इस रूप में भी रहेगा कि यहीं रहते हुए मेरी गजलों का संग्रह 'वाबस्ता' 20वें विश्व पुस्तक मेले में रिलीज हुआ. नॉएडा रहते हुए मित्र मदन मोहन दानिश के एक कार्यक्रम में ग्वालियर जाने का अवसर मिला जहाँ मशहूर शाइरा  किश्वर नहीद से मुलाक़ात हुई. यहीं मोहम्मद अल्वी और आचार्य नन्द किशोर से भी मुलाक़ात हुई. 

पुस्तक मेले में वाबस्ता 
माल का आनंद उठाते हुए कभी पिक्चर देखना तो कभी किसी रेस्टोरेंट में बैठकर डिनर लेना यहाँ की जीवन शैली का   हिस्सा बने रहे. एक्सप्रेस हाईवे पर दौड़ती गाड़ियों से होड़ करते हुए एक सिरे से दूसरे सिरे पर पहुँचने की हर रोज़ की कवायद भरपूर लुत्फ़ देती रही. बहरहाल इस जिले से जाना है तो सब कुछ याद आ रहा है..... ! बहुत सी उजली यादों के साथ मुस्कुराते हुए यही कहूँगा --- बाय बाय नोयडा. 

मार्च 22, 2012

20वें विश्व पुस्तक मेले में ‘वाबस्ता’ का लोकार्पण !



मुद्दत से ब्लॉग पर अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाया। दरअसल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव में लगातार प्रशासनिक व्यस्तता के चलते ब्लॉग की गलियों से गुजरना जरा कम ही हो पाया।



इसी बीच दिल्ली के २०वे विश्व पुस्तक मेले में मेरी ग़ज़लों/नज़्मों के संग्रह वाबस्ताका लोकार्पण भी हुआ। ऐसे विश्व पुस्तक मेले में जहाँ देश विदेश के हजारों प्रकाशक जमा हुये हों और सैकडों नामचीन-गैर नामचीन लेखकों की रचनाओं का लोकार्पण हुआ हो उस माहौल में मेरी पहली कृति का आना मेरे लिये सुकून की बात रही। वाबस्ताका प्रकाशन, 'प्रकाशन संस्थान -दिल्ली' द्वारा किया गया है। लगभग आयताकार डिजायन वाली इस कृति का आवरण पृष्ठ देश के प्रख्यात चित्रकार डा0 लाल रत्नाकर जी ने तैयार किया है। इस मजमुऐ को सामने लाने में यूँ तो कई करीबी लोगों का आशीर्वाद और मेहनत साथ रही लेकिन फिर भी इस अवसर पर बेतरबीब से पड़े काग़जों को मज़मूए की शक्ल में आप तक लाने में अनुज पंकज (जो आजकल व्यापार कर में उप-आयुक्त हैं), हृदेश (हिन्दुस्तान में सह संपादक), पुष्पेन्द्र, श्यामकांत को भी मैं ज़हृन में लाना चाहूँगा , जिनके बगै़र यह मज़मूआ आना मुमकिन न था।



मेरे जैसे व्यक्ति के लिये वाबस्ताके जरिये दरबारे ग़ज़ल में ठिठके हुये कदमों से अपनी आमद की कोशिश भर है। शुक्रगुजार हूं उर्दू अदब की अजीम शख्सियत जनाब शीन काफ़ निज़ाम का जिन्होंने मेरे जैसे नवोदित रचनाकार के प्रथम प्रकाशित संग्रह पर भूमिका लिखकर मेरी हौसला अफजाई की है। गुजरे आठ-दस बरसों में मैं जो कुछ भी अच्छा बुरा कह सका उनमें से कुछ चुनिन्दा ग़ज़लों/नज़्मों को इस संग्रह के माध्यम से आप सब के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मेरी इन ग़ज़लों/नज़्मों को उस्ताद शाइर जनाब अकील नोमानी की नजरों से गुजरने का भी मौका मिला है। मैं वाबस्ता के प्रकाशन के अवसर पर अपने सभी शुभ चिन्तकों को शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने मुझे इतना स्नेह दिया कि मैं इस संग्रह को प्रकाशित करने की हिम्मत जुटा सका। मैं जनाब शीन काफ़ निजा़म, जनाब मोहम्मद अलवी, प्रो. वसीम बरेलवी, श्री शशि शेखर, जनाब अक़ील नोमानी, श्री हरीशचन्द्र शर्मा जी, श्री अतुल महेश्वरी , डॉ . लाल रत्नाकर, श्री कमलेश भट्ट कमल’, श्री विनय कृष्ण तुफै़लचतुर्वेदी के अलावा मैं अपने माता पिता-पत्नी का दिल की गहराईयों से आभार प्रकट करता हूँ कि जिनकी मदद से मैं यह संग्रह आप सबके समक्ष पेश कर सका। इस संग्रह की एक ग़ज़ल आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ-


इश्क में लज़्ज़ते मिला देखूँ
उससे करके कोई गिला देखूँ

कुछ तो ख़ामोशियां सिमट जाएँ
परदा-ए-दर को ही हिला देखूँ

पक गए होंगे फल यकीनन अब
पत्थरों से शजर हिला देखूँ

जाने क्यूँ ख़ुद से ख़ौफ लगता है
कोई खंडर सा जब कि़ला देखूँ

इस हसीं कायनात बनती है
सारे चेहरों को जब मिला देखूँ

कौन दिल्ली में ‘रेख़्ता’ समझे
सबका इंगलिस से सिलसिला देखूँ

बैठ जाऊँ कभी जो मैं तन्हा
गुजरे लम्हों का का़फि़ला देखूँ


(**** हिंदी समाचारपत्र हिन्दुस्तान ने वाबस्ता पर एक समीक्षात्मक लेख प्रकाशित किया है जो यहाँ पढ़ा जा सकता है http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-227149.html )

फ़रवरी 15, 2012

शहरयार का जाना....... !!!


इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक्त
अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के।

सुबह अखबार पढना शुरू ही किया था कि फिर एक खबर ने सुबह को बेरंग कर दिया........... "शहरयार नहीं रहे" उन्वान छोटा था मगर खबर बड़ी थी. तीर की तरह खबर दिल को वेध गयी.......! शहरयार का जाना किसी ऐसे वैसे का जाना नहीं है उर्दू अदब से एक स्तम्भ का जाना है......! पिछले साल उन्हें 2008 के साहित्य के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया था. हिंदी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के सिरीफ़ोर्ट ऑडिटोरियम में हुए 44वें ज्ञानपीठ समारोह में उन्हें ये पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था कि शहरयार सही मायने में आम लोगों के शायर रहे हैं. कल यह आम लोगों का यह शायर कितनी ख़ामोशी से विदा हो गया.

76 साल के 'शहरयार' का निधन अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर रात आठ बजे हुआ. शहरयार साहब फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे.

अजीब सानेहा मुझ पर गुजर गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो

हर एक नक्श
तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ग़म
मेरे दिल का भर गया यारो

भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो

जैसी ग़ज़ल कहने वाले शहरयार का असली नाम अखलाक मोहम्म्द खान था मगर वे शहरयार के नाम से ही जाने जाते रहे. शहरयार लंबे समय से बीमार चल रहे थे और ब्रेन ट्यूमर के शिकार थे. शहरयार 6 जून, 1936 को आंवला (बरेली ) में पैदा हुए वैसे कदीमी रहने वाले वह बुलन्दशहर के थे. वालिद पुलिस में थे, चाहते थे बेटा भी पुलिस में जाए, मगर बेटे के मन में तो कुछ और ही लिखा था. शहरयार ने ए0एम0यू0 अलीगढ़ में दाखिला लिया , 1961 में उर्दू से एम00 किया और फिर यहीं के होकर रह गए. विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू -मुअल्ला के सेक्रेटरी और अलीगढ़ मैगजीन के सम्पादक बना दिए गए. इसके साथ ही वे अपने जीवन मेंगा़लिब,’ ’शेर-ओ-हिकमत औरहमारी जबाननामक रिसालों से भी जुड़े रहे. 1966 में शहरयारर उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए. 1965 में पहला मजमुआ 'इस्में-आजमप्रकाशित हुआ. 1969 में दूसरा मजमुआ सातवां दर प्रकाशित हुआ. इसके बाद हिज्र के मौसम’ (1978),ख्याल का दर बन्द है (1985) ,नींद की किरचें(1995) छपे. शहरयार उर्दू के चौथे साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. शहरयार को 1987 में उनकी रचना ''ख़्वाब के दर बंद हैं'' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. उर्दू शायरी ने देश की बदलती परिस्थितियों को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है जिसमें शहरयार की क़लम का भी अहम योगदान रहा है. देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं. वे कहते भी थे कि देश और दुनिया में जो बदलाव हुए हैं वो सब किसी न किसी रूप में उर्दू शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं और वो उनकी शायरी में भी नज़र आता है.

उनके साथ निजी जिंदगी में कुछ अप्रिय स्थितियां जरूर साथ में रहीं. हमसफर के साथ राहें अलग हो गयीं, तीनों बच्चे बड़े होकर अपने कारोबार में रम गए. शहरयार तन्हा अलीगढ में रहते रहे, तन्हाई का यही अहसास उनके शेरो- सुखन में दर्ज भी होता रहा. शहरयार की शायरी न तो इंकलाबी है न क्रांतिकारी और न ही किसी व्यवस्था के प्रति अलम.सदा अल्फाजों में उनकी शायरी बेहद सहजता से बड़ी से बड़ी बात कह जाती है. शहरयार ने मुश्किल से मुश्किल बात को आसान उर्दू में बयां किया क्योंकि वो मानते थे कि जो बात वो कहना चाहते हैं वो पढ़नेवाले तक सरलता से पहुंचनी चाहिए.

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या
तमाम ख़ल्क़े ख़ुदा इस जगह रुके क्यों हैं
यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहां रात का नहीं है क्या

जैसे गीतों के माध्यम से फ़िल्मी दुनिया में अपनी मुकम्मल पहचान बनाने वाले शहरयार हमेशा कहते रहे कि मैं फ़िल्म में अपनी अदबी अहमियत की वजह से और अब अदब में मेरा ज़िक्र फ़िल्म के हवाले से किया जाता है. शहरयार ने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे जो बेहद लोकप्रिय हुए. हालांकि वो ख़ुद को फ़िल्मी शायर नहीं मानते. उनका कहना था कि अपने दोस्त मुज़फ़्फ़र अली के ख़ास निवेदन पर उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने लिखे. शहरयार के छ: से ज्यादा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन सहित कई फिल्मों के गीत भी लिखे। वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर और उर्दू के विभागाध्यक्ष रहे थे. उनकी कुछ प्रमुख कृतियों में ख्वाब का दर बंद है’, ‘शाम होने वाली है’, ‘मिलता रहूंगा ख्वाब मेंशामिल हैं.

1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया. वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए. शहरयार ने गमन और आहिस्ता- आहिस्ता आदि कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखे लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लोकप्रियता 1981 में बनी फ़िल्म 'उमराव जान' से मिली. शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक़ सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. शहरयार की अब तक तक़रीबन दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी है. अकेलेपन की बेबसी उनकी शायरी में भी दिखती है..

कोई नहीं जो हमसे इतना भी पूछे

जाग रहे हो किसके लिए, क्यों सोये नहीं

दुख है अकेलेपन का, मगर ये नाज भी है

भीड़ में अब तक इंसानों की खोये नहीं

इस महान शायर को श्रद्धांजलि देते हुए और अदब में उनके योगदान को याद करते हुए उनके चंद शेर पेश हैं.

जिन्दगी जैसी तवक्का थी नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछडे़ लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है
, यक़ीं कुछ कम है

*****

तेज आंधी में अंधेरों के सितम सहते रहे
रात को फिर भी चिरागों
से शिकायत कुछ है

आज की रात मैं घूमूँगा
खुली सड़कों पर
आज की रात मुझे ख़्वाबों से फुरसत कुछ है

*****

शबे -ग़म क्या करें कैसे गुज़ारें
किसे आवाज़ दें
,किसको पुकारें

सरे-बामें-तमन्ना कुछ नहीं है
किसे आँखों से इस दिल में उतारें

वही धुंधले से नन्हे-नन्हे साये
वही सूनी सिसकती रहगुज़ारें