नवंबर 26, 2010

गाँवों में भी अब पहले सा अपनापन और प्यार नहीं !!


एक मुद्दत से अपनी प्रिय विधा ग़ज़ल को लेकर कोई पोस्ट नहीं लगा पाया था...... शायद इसकी एक वज़ह यह थी कि व्यस्तता बहुत रही। ग़ज़ल पोस्ट करने के लिए जब एक मित्र ने शिकायती लहजे में बात की तो लगा कि ग़ज़ल पोस्ट कर ही देनी चाहिए, सो आज एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ........ मुलाहिजा फरमाएं.

अपने अपने हालातों से कौन यहाँ बेज़ार नहीं !!
ग़म से परेशाँ सब मिलते हैं, मिलते हैं गमख्वार नहीं !!

या के मंजिलें दूर हो गयीं, या के रास्ते मुश्किल हैं,
मेरे पाँवों में पहले सी तेजी और रफ़्तार नहीं !!

महज हाकिमों की दुनिया ही उनकी ख़ातिर ख़बरें हैं,
मज़लूमों के हक में लिखने वाले अब अखवार नहीं !!

शह्रों की तहज़ीब पे जब भी तंज कसूँ तो लगता है,
गाँवों में भी अब पहले सा अपनापन और प्यार नहीं !!

बेच चुका हूँ नज़्में ग़ज़लें महफ़िल महफ़िल गा गाकर,
मेरे हिस्से में अब कोई मेरा ही अशआर नहीं !!

कहने को मैं रंग शक्ल में उसके जैसा हूँ लेकिन ,
मेरे लहज़े में उस जैसा पैराया-ए-इज़हार नहीं !!

मेरे मुँह पर मेरे जैसी उसके मुँह पर उस जैसी,
रंग बदलती इस दुनियाँ में सब कुछ है किरदार नहीं !!
ग़ज़ल का कोई भी शेर अगर आपको पसंद आ सका तो अपनी कोशिश कामयाब समझूंगा........ खुदा हाफिज़ !!!!!!

नवंबर 09, 2010

एक सार्थक उपन्यास.....'ये वो सहर तो नहीं' !

" ये दाग दाग उजाला ये शब ग़जीदा सहर,
वो इन्तिजार था जिसको ये वो सहर तो नहीं "

फैज साहब की नज़्म से प्रारम्भ होने वाला उपन्यास ‘ये वो सहर तो नहीं......‘ वर्तमान परिदृश्य को जिस बेबाकी से बयान करता है उसके लिए लेखक पंकज सुबीर प्रशंसा के पात्र हैं। गुदगुदी करते करते कोई तेजी से कचोट जाये तो कैसा लगता है........ बस यही एहसास है "ये वो सहर तो नहीं".....!
यह उपन्यास विन्यास और शिल्प की दृष्टि से इसलिए अद्भुत है क्योंकि यह उपन्यास 1857-2007 के 150 वर्षों की कहानी कहता है। अगर यह कहा जाए कि डेढ़ सौ वर्षों से अधिक समय की थाह लगाते हुए लेखक पंकज सुबीर ने प्रकारान्तर से लोकतंत्र की सामर्थ्य और सीमा को परखा है, तो कहीं से गलत न होगा. उपन्यास के पात्र आजादी के पूर्व के आशावाद और आजादी के बाद की उपजी परिस्थितियों के बीच हिचकोले खाते नजर आते हैं. देश में तख़्त बदलता है, निजाम बदलता है मगर परिस्थितियॉ जस की तस रहती हैं. उपन्यास सिद्धपुर (जिसे बाद में सीदपुर कहा गया है) के अंग्रेजी केंटोमेंट और नबावी हुकूमत से आरंभ होती हुई आज के सीदपुर तक जाती है. यद्यपि सिद्धपुर की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने में पंकज काफी समय लगाते हैं किन्तु यह परिचय काफी रोचक है सो पाठकों को बोझिलता महसूस नहीं होती कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, पात्रों को वुसअत मिलती है. कहानी की शुरुआत में अँगरेज़ पोलिटिकल एजेण्ट हृयूरोज का बंगला उपन्यास का मुख्य पात्र बनता है. इस बंगले में 1857 में हृयूरोज अपने सहयोगियों के साथ एक पोलिटिकल एजेण्ट की भांति जो कुछ भी कर गुजरने की फिराक में है वही कमोबेश 2007 में इसी जगह सीदपुर के कलेक्टर (आई.ए.एस.) मानवेन्द्र सिंह द्वारा अपनी चाण्डाल चैकडी के मार्फत दोहराया जाता है। शासन -प्रशासन -पत्रकारों की यह तिकड़ी जिस भी तरह अपने स्वार्थों की पूर्ति करती है, उसे यह उपन्यास बखूबी प्रस्तुत करता है.

राजनीतिक व्यक्तित्वों और उनके सोचने की प्रवृत्ति को यह उपन्यास जिस बेबाकी से प्रस्तुत करता है वह लाजबाव है। उपन्यास के पात्र और घटनाएं भले ही काल्पनिक हों लेकिन वास्तव में वे हमारे आस-पास से उठाए गए प्रतीत होते हैं....! यही इस उपन्यास की सफलता है...!पात्र और घटनाएँ किस तरह पाठक से नाता जोड़ लेते हैं, इसकी एक बानगी उपन्यास के इस अंश में देखिये....... ‘‘बात तब की है जब उस घटना को बीते कुछ ही दिन हुए थे जब एक संन्यासिन ने एक राजा को सूबे के चुनावों में हरा कर सत्ता हथिया ली थी. यह भी बिल्कुल अलग बात है कि राजा, राजा नहीं थे केवल नाम के ही थे और संन्यासिन भी संन्यासिन होकर केवल नाम की ही थीं. राजा केवल इसलिए राजा थे क्योंकि उनके पूर्वज किसी रियासत के राजा हुआ करते थे और संन्यासिन केवल इसलिए संन्यासिन थीं क्योंकि वे भगवा रंग के वस्त्र धारण करती हैं. इसके अलावा न तो राजा के आचरण में राजा जैसा कुछ था और ना ही संन्यासिन के आचरण में संन्यासिन जैसा ही कुछ था. संन्यासिन के हाथ से सत्ता जानी थी सो अन्ततः चली ही गयी. सत्ता गयी इसका मतलब यह कि उनकी पार्टी से उनको चलता कर दिया गया. उनकी पार्टी यूज एंड थ्रो में बहुत विश्वास करती थी.‘‘

आई।ए.एस.-पत्रकार-नेताओं की यह तिकड़ी किस प्रकार निजी स्वार्थों में लिप्त और आकण्ठ डूबी हुई है, यह इस उपन्यास का केन्द्र बिन्दु है। विकास और जनता के हितों की अनदेखी कर कैसे यह तिकड़ी अपने स्वार्थों की पूर्ति करती है....उपन्यास में यह रोमांचक मोड़ है. सिद्धपुर का कलेक्टर मानवेन्द्र जो एक आई.ए.एस. अफसर है वो जिस कूटनीतिक ढंग से अपने विरोधी पत्रकार ‘परमार‘ से निपटता है वो उपन्यास में ‘थ्रिल‘ पैदा करता है.

बहरहाल इस उपन्यास में आज की सच्चाईयों को पंकज सुबीर ने बहुत ही बेबाकी से परोसा है। ‘तंत्र‘ किस प्रकार अपने हितों तक सिमट कर रह गया है, यह उपन्यास इस सोच की बेहतरीन प्रस्तुति है. भाषा की दृष्टि से तो उपन्यास बेजोड़ है. स्थानीय लोकोक्तियों को समाहित करते हुए पात्रों का आपसी संवाद सहज रोचकता पैदा करता है,जैसे ‘हाथ पुंछे भैरों', ‘बीमार कुत्ते वाला किस्सा' (पृष्ठ 111), 'कच्चा कैरी पक्का आम, टॉई टुईँ लेंडी फुस्स' (पृष्ठ 32) जैसे कई जुमलों का प्रयोग इतनी सावधानी से किया गया है कि लेखक पंकज सुबीर का लेखकीय कौशल देखते ही बनता है.

ब्लोगर नीरज गोस्वामी यदि यह कहते हैं कि "ये वो सहर तो नहीं" पढते वक्त कई बार ऐसा लगता है कि जैसे हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित व्यंगकारों जैसे परसाई जी, शरद जोशी जी, श्री लाल शुक्ल जी या फिर ज्ञान चतुर्वेदी जी को पढ़ा जा रहा है तो गलत अथवा अतिश्योक्ति नहीं लगता.......! दो काल में सामानांतर चल रही कहानियों में तालमेल बिठाना कोई हंसी खेल नहीं, पंकज जी का ये विलक्षण लेखन उन्हें अपने समकक्ष लेखकों से बहुत आगे ले जाता है। बकौल नीरज, लेखन की इतनी खूबियां एक ही उपन्यास में समेटना बहुत आश्चर्य का विषय है और ये पंकज जी के गहन अध्यन और हमारे समाज में घट रही गतिविधियों पर उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है. उन्होंने जिस अंदाज़ से पात्रों का चरित्र चित्रण किया है उसे पढ़ कर लगता है जैसे हम उन्हें जानते हैं और वो हमारे बीच के ही हैं.

बहरहाल जागरूक पाठकों के लिए यह कृति संग्रहणीय व अपरिहार्य है। एतिहासिक पगडण्डियों से गुजरते हुए वर्तमान की गंदी गलियों तक पहुँचने में यह कृति एक ‘गाइड‘ की तरह कार्य करती है. वैसे तो पंकज सुबीर युवा लेखकों की श्रेणी में अग्रिम पंक्ति में आ ही चुके हैं मगर फिर भी पंकज सुबीर जैसे लेखकों को प्रोत्साहित करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि नयी पीढी के लेखकों में महान कथाकार कमलेश्वर सरोखी ‘किस्सा गोई‘ की प्रवृत्ति इतनी दृढ़ रूप में कम ही देखने को मिलती है. कथा-शिल्प-भाषा की दृष्टि से उपन्यास ‘ये वो सहर तो नहीं‘ के लिए लेखक पंकज सुबीर को इस उपन्यास के लिए कोटिश: बधाई, साधुवाद. भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार से यह कृति यदि सम्मानित की गयी है तो यह कृति इसकी सही हकदार है भी.

निष्कर्षत: फैज के मोहभंग ‘वो इन्तजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं‘ से साहिर के प्रबल आशावाद ‘वो सुबह कभी तो आएगी‘ के बीच यह कृति एक साहित्यिक, सामाजिक दस्तावेज है जिसके लिए लेखक पंकज सुबीर की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है.

अक्तूबर 29, 2010

अलविदा वियतनाम !











वियतनाम दरअसल अंकल 'हो' का देश माना जाता है............... सो इस यात्रा वृत्तांत की चर्चा इसी महान व्यक्तित्व से किया जाना उचित होगा। अंकल 'हो' अर्थात 'हो-चि-मिन्ह', जिनका नाम मार्क्स क्रांति के प्रबल पुरोधा के रूप में लिया जाता है. हो-चि-मिन्ह को मार्क्स, ऐंजिल्स, लेनिन, स्टालिन के समकक्ष माना जाता है. अंकल 'हो' की कहानी, सर्वहारा क्रांति तथा राष्ट्रवादियों के लिए विश्व की तत्कालीन साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष की अद्भुत दास्तान हैं. 1890 में हो-चि-मिन्ह का जन्म साम्राज्यवादी शोषण से पीड़ित देश, वियतनाम में हुआ था जहाँ उस समय राष्ट्रवाद की सजा मौत होती थी..............! साम्राज्यवादियों को चुनौती के रूप में 'हो' ने वियतनाम में राष्ट्र नायक की पहचान बनाई...... इसी दरमियां हो-चि-मिन्ह ने फ्रांस, अमेरिका, इंग्लैंड देशों की यात्रा की और साम्राज्यवादी शोषण को और करीब से समझा-देखा. इन यात्राओं के बाद साम्राज्य वादी शक्तियों के विरुद्ध 'हो' के तेवर और मुखर हो गए. 1917 की रूसी क्रांति से आकर्षित होकर वे फ्रांसीसी कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य बने और 'दी पारिया' नमक पत्र प्रकाशित करना आरंभ किया, जो फ्रांसीसी साम्राज्यवाद के विरुद्ध उसके सभी उपनिवेशों में शोषित जनता को क्रांति के लिए प्रोत्साहित करती थी. साम्राज्वाद से अपने देश को मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने 1933 में 'वियत मिन्ह' नामक संयुक्त मोरचा बनाया। 'हो' 1945 तक हिंद चीन के कम्यूनिस्ट आंदोलन तथा गुरिल्ला युद्ध के सक्रिय नेता रहे. वे 'लंबे अभियान' और जापान विरोधी युद्ध में भी उपस्थित थे. कालांतर में सितंबर, 1945 में 'हो' ने वियतनाम जनवादी गणराज्य की स्थापना की. आज़ादी के इस संघर्ष में उनकी सेना का फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों से युद्ध शुरू हुआ, यहाँ फ़्रांसिसी- अंग्रेजों का गठबंधन हुआ, साम्राज्यवादियों ने साम्राज्य वापस लेना चाहा. भयंकर लड़ाइयों का दौर आरंभ हुआ और आठ वर्षों की खूनी लड़ाई के पश्चात् फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों को 'दिएन वियेन फू' के पास 1954 में भयंकर मात खानी पड़ी, तत्पश्चात् जिनेवा सम्मेलन बुलाना स्वीकार किया गया. इसी वर्ष हो-चि-मिन्ह वियतनामी जनवादी गणराज्य के राष्ट्रपति नियुक्त हुए. बहरहाल 1969 तक जब तक हो जिंदा रहे , ताउम्र साम्राज्यवादियों की आखों की किरकिरी बने रहे.

इस महान नेता के मेमोरिअल म्यूजियम पर जाना और इस सर्वकालिक महान नेता के पार्थिव शरीर को देखना वास्तव में इस यात्रा की बड़ी उपलब्धि रही। मद्धम प्रकाश में मुसोलियम के केन्द्रीय कक्ष में इस नेता को शरीर को जिस तरह रासायनिक तरीके से संरक्षित किया गया है, वो चमत्कारिक था. इस नेता के प्रति इस देश की जनता की अगाध श्रद्धा है, इसका प्रमाण यह है कि इस नेता को याद करने और इनके संरक्षित शरीर के दर्शनार्थ मुसोलियम के बाहर लम्बी लाइन हमेशा देखी जा सकती है.

वियतनाम का दूसरा आकर्षण यहाँ की 'लाइफ स्टाइल' देखना रहा............ हनोई की सडकों को दोनों और स्ट्रीट फ़ूड की हजारों दुकाने है.......... जहाँ अलसुबह से रात भर चहल-पहल बनी रहती है। यहाँ छोटे छोटे स्टूलों पर बैठकर वियतनामी जनता सूप-व्यंजनों का आनंद लेते हुए हमेशा देखी जा सकती है. सड़क के फुटपाथ इन्ही स्ट्रीट फ़ूड दुकानों से हर समय सजी रहती हैं. यहाँ के नाईट मार्केट के बारे में अवश्य लिखना चाहूँगा......... यहाँ नाईट मार्केट में शौपिंग करने का अपना अनोखा अनुभव है.............! इस मार्केट में भारी भीड़ में धक्के खाते हुए रोज़मर्रा की चीजों को खरीदते हुए जन सामान्य का उत्साह देखते ही बनता है....!

वियतनाम का एक अन्य आकर्षण यहाँ का सिल्क है . वियतनाम में सिल्क (रेशम) निर्माण करने की पुरानी परम्परा है. वियतनाम में सदियों से सिल्क को बनाने और एम्ब्रोइडरी का काम किया जा रहा है. वियतनाम के ग्रामीण अंचलों में बड़े पैमाने पर सिल्क को बुनने का काम किया जाता है. इस काम में वियतनामी महिलाओं को विशेषज्ञता हासिल है, वे समूह बनाकर सिल्क को बुनने का काम करती हैं. वियतनाम के सिल्क मार्केट से हमने सिल्क के बहुत से वस्त्र हमने ख़रीदे............ ये प्रोडक्ट अपेक्षाकृत सस्ते और बहुत खूबसूरत थे.

हमारा अगला पड़ाव 'हेलोंग बे' रहा. यह यूनेस्को द्वारा संरक्षित स्थल भी है........... लगभग 1600 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में फैली इस साईट को पानी के जहाज से देखना अत्यंत रोमांचक रहा। चरों और विशालकाय लाइमस्टोन के पहाड़ों के बीच से गुजरते हुए इन प्राकृतिक दृश्यों को देखना रुचिकर रहा. इस देश की प्रशासनिक व्यवस्था को जानना समझना भी नवीन अनुभव रहा. ‘कम्यूनों‘ को और उनकी व्यवस्थाओं को देखना रूचिकर था, ‘कम्यून‘ एक प्रशासनिक इकाई है,ठीक वैसे ही जैसे हमारे देश में ‘लोकल अर्बन बॉडी‘ हो. स्थानीय 'कम्यून' अपने सीमा के अन्तर्गत सार्वजनिक सम्पत्तियों, प्रशासन, पब्लिक डिलीवरी सिस्टम के लिए जिम्मेदार होती है. हमने हनोई से लगभग पचास कि0मी0 आगे एक ‘कम्यून‘ की व्यवस्था का अध्ययन किया. कम्यून द्वारा संचालित स्कूल, स्टेडियम और अस्पताल को देखने का अवसर मिला. कम्यून जिस प्रतिबद्धता और ईमानदारी से इन सार्वजनिक संस्थाओं को संचालित कर रहे हैं, वह वियतनाम के प्रशासन में कम्यून व्यवस्था की प्रभावशीलता को प्रकट करते हैं.

बहरहाल एक सप्ताह बाद जब हनोई से हम भारत के लिए विदा हुए तो, इस देश की बहुत सी यादों का पिटारा हमारे साथ था। विदाई के समय एहसास हुआ कि हम एक ऐसे विकासशील देश की यादों को संजोकर वापस हो रहे हैं जो असीम संभावनाओं से भरा हुआ देश है. एक ऐसा देश जो भले ही आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न न हो, मानसिक रूप से अत्यन्त दृढ है। अपनी मुख्तलिफ पहचान बनाये रखने के लिए इस देश के न केवल नेताओं ने बल्कि जन सामान्य ने साम्राज्यवादी शक्तियों से जिस मजबूती से लोहा किया है वह अदभुत तो है ही प्रेणादायक भी.

इस देश में भारतीयों से मुलाकातें नहीं हो सकीं. अंकल 'हो' के इस देश को इतने करीब से देखना किसी के लिए भी नया अनुभव हो सकता है....इस देश का इतिहास, लोक संस्कृति, परम्पराएं इस देश को और करीब से जानने की उत्कंठा जगाती हैं........! इन्ही यादों को जेहन में समेटे हुए अपने प्लेन की खिड़की से वियतनाम को अलविदा कहा तो लगा कि इस विकासशील देश को अगले दस वर्षों में विकास की सीढियां चढ़ने से शायद ही कोई रोक पाए......!

अक्तूबर 05, 2010

वियतनाम यात्रा पार्ट-1







सिंगापुर के चांगी एयरपोर्ट से वियतनाम विदा होते वक्त दिल में उदासी और प्रशन्नता दोनों भावों का अहसास हो रहा था। उदासी का एहसास इसलिए कि बीते सप्ताह सिंगापुर को बहुत नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिला था। सिंगापुर की बहुलवादी संस्कृति, विकास के प्रतिभान, सिविक सेंस, प्रशासनिक कर्मठता इत्यादि को करीब से देखने के बाद दिल में यह जज्बा कुलांचे मारने लगा था कि कुछ ऐसा ही परिवर्तन अपने देश में भी किया जाए। सिंगापुर में भारतीय मित्रों ने जो प्यार-सम्मान दिया था , उसे भी दिल भुला नहीं पा रहा था। सिंगापुर के दर्शनीय स्थलों ने दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी थी, उसे भुलाना भी इतना आसान न था। सिंगापुर की यादों से निकलने का जी नहीं चाह रहा था, सो उदासी का घेरा मन के चारों ओर था किन्तु वियतनाम जैसे देश में पहुँचाने की लालसा भी अपनी जगह थी।



बहरहाल इस मानसिक उतार-चढाव में हिलोरे खाते हम सिंगापुर से विदा हुए। लगभग तीन घण्टे की हवाई यात्रा के बाद हम वियतनाम के नोई-बाई एअरपोर्ट पर जब उतरे तो विकसित एवम् विकासशील राष्ट्र के बीच का अन्तर स्पष्ट दिखने लगा। सिंगापुर में जहॉ सब कुछ व्यवस्थित सा था वहीं हनोई के इस एअरपोर्ट पर वह 'प्रोफेसनल कॉम्पीटेंसी' नहीं दिखी। इमीग्रेशन इत्यादि क्लीयर कराने में ही दो घण्टे से ज्यादा वक्त लग गया। इस थकाऊ प्रक्रिया के बाद हम ‘मिनी बस‘ से रवाना हुए अपने होटल ‘सिल्क पथ‘ की तरफ। हनोई एअरपोर्ट से हमारा होटल लगभग 35किमी0 दूर था। होटल की तरफ जाते वक्त हनोई की सड़कों का नज़ारा ऐसा एहसास दिला रहा था था कि जैसे हम अपने ही देश में हों। इन सडकों पर भी भारी ट्रैफिक था। सडको पर कार, बड़े वाहन, दुपहिया वाहन, साइकिल, पैदल और तो और पशु-जानवर सब एक साथ चल रहे थे। हनोई शहर में ट्रैफिक भी उतना ही अव्यवस्थित था जितना कि हमारे देश के किसी मध्यम स्तर के शहरमें हों। सडकों पर दुकानों का फैलाव भी कमोबेश अपने देश के ही किसी शहर की याद दिला रहा था। 35 डिग्री सेल्सियस तापमान और 70 प्रतिशत हयूमिडिटी के वातावरण में हनोई के 'सिल्क पथ' होटल में पहुँच कर यहॉ के मौसम में गर्मी की तीव्रता का एहसास हुआ। सिल्क पथ पहुँच कर यह आदेश मिला कि हमें तत्काल 'नेशनल अकेडमी ऑफ़ पब्लिक एड्मिनिस्त्रेसन' पहुँचना है। हालांकि हम हवाई यात्रा व तदोपरान्त इस सड़क यात्रा के बाद पर्याप्त रूप से थक चुके थे किन्तु आदेश के पालन के लिए तत्काल राष्ट्रीय अकादमी निकल लिए।



हनोई की सडकों पर यात्रा करने का यह अनूठा अनुभव था। होटल से अकादमी की दूरी लगभग 10-12 कि0मी0 रही होगी। इस यात्रा के दौरान हनोई के बाजार, लोगों, सामान्य रहन-सहन, व्यवहार आदि के विशय में एक राय पुख्ता आकार लेने लगी थी। हनोई की इन कम चौड़ी सडकों पर दुपहिया वाहनों की भरमार थी हालाँकि चैपहिया वाहनों की संख्या काफी कम थी। लगभग आधे घण्टे की यात्रा के बाद हम अकादमी पहुंचे । अकादमी में घुसते ही लगा कि किसी ‘‘टिपिकल गवर्नमेण्ट आफिस बिल्डिंग‘‘ में आ चुके हैं। अकादमी के परिचयात्मक सत्र में वियतनाम के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों से मिलने-वार्ता करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनसे मिलते समय हैरानी हुई की वरिष्ठतम नौकरशाह भी ‘वियतनामीज‘ भाषा में ही वार्तालाप कर रहे थे। हमारी सम्प्रेषण की भाषा तो अंग्रेजी थी किन्तु वियतनामी अधिकारी अपनी राष्ट्र भाषा में ही वार्तालाप कर रहे थे, सहूलियत के लिए अनुवादक की व्यवस्था थी , लेकिन इसके बावजूद आपसी सम्प्रेषण में तारतम्यता का अभाव साफ दिख रहा था। बहरहाल इस अभाव के बावजूद वियतनामी लोगों का अपनी भाषा के प्रति लगाव प्रशंसनीय तो था ही.........।



अगले कुछ दिन इसी तरह वियतनाम में गुजरे। हर दिन वियतनाम से जुडाव गहराता गया। यहॉ के जन सामान्य पर अपनी प्राचीन इतिहास- संस्कृति-सभ्यता और भाषा का प्रभाव साफ नजर आता है। वियतनाम के वर्तमान पर कुछ लिखने से पूर्व वियतनाम के बारे में कुछ सामान्य जानकारी देना आवश्यक समझता हूँ । 86 मिलियन जनसंख्या वाले इस देष में 90% साक्षरता है और आधी जनसंख्या बौद्ध धर्म की अनुयायी है। 02 सितम्बर, 1945 को आजाद होने के बाद 15 अप्रैल, 1952 को इस देश में नया संविधान बना। प्रशासकीय दृष्टिकोण से यह देश 58 प्रान्तों तथा 5 म्यूनिसपैलिटीज में विभाजित है। ‘हनोई‘ जो वियतनाम की राजधानी है, वह भी एक म्यूनिसपैलिटी ही है। 1052डॉलर प्रति व्यक्ति आय वाले इस देश की विकास दर 5% से कुछ ज्यादा है । इस देश में आय के साधन कोयला, कच्चा तेल, जस्ता, तांबा सोना, मैगनीज जैसे खनिज हैं। इनके अतिरिक्त चावल, कॉफी, मक्का, काजू, मसाले (काली मिर्च), आलू, मूंगफली मछली आदि उत्पाद भी देश के विकास में महती योगदान देते हैं।



वियतनाम का इतिहास लगातार बनता-बिगड़ता रहा है। चीन, जापान और फ्रांस की सभ्यताओं ने इस देश के इतिहास- सभ्यता को समय-समय पर प्रभावित किया है। इन देशों में वियतनाम जनता के साथ लगातार संघर्ष भी होता रहा है। यही संघर्ष वियतनाम की जनता को अपनी ‘अलग पहचान‘ स्थापित करने के लिये लगातार प्रेरित करते रहे। वियतनामियों को अपनी भाषा-संस्कृति से जुडाव यकीनन इन्हीं संघर्षों का परिणाम है। 1985 तक यह देश अंतर्राष्टीय नवाचारों से बहत ज्यादा नहीं जुड पाया था, 1986 में आर्थिक सुधारों को अपनाने के बाद वियतनाम अंतर्राष्टीय अर्थव्यवस्था से जुडा है। यह सुधार वियतनाम में डोई-मोई (क्व्प्।डव्प्) के नाम से जाने जाते हैं। ये सुधार केन्द्रीकृत नियोजन से इस देश को खुले अंतर्राष्टीय बाजार से जोडते हैं।



फिलहाल इस बार अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ, अगली पोस्ट में वियतनाम के महान नेता 'हो-ची-मिन्ह‘, प्रशासनिक व्यवस्था, यहाँ के लोक-पक्ष‘ और ‘लोक-व्यवहार‘ के विषय में लिखने का प्रयास करूंगा।




***** एक बात और वियतनाम जाने से पूर्व इस देश के बारे में बड़े भाई और देश के नामचीन पत्रकार (संपादक-हिंदुस्तान) श्री शशि शेखर जी से भी विस्तृत वार्ता हुई थी.....वे इस देश के इतिहास- संस्कृति-सभ्यता और भाषा से बहुत प्रभावित थे। वियतनाम जाने से पूर्व उनसे हुई बात-चीत ने वियतनाम को और भी करीब से देखने-समझने की दृष्टि विकसित की. आभारी हूँ श्री शशि शेखर जी का जिन्होंने इस देश को देखने और समझने के लिए परिष्कृत दृष्टि को अंकुरित-पल्लवित होने का अवसर दिया.




क्रमश:

सितंबर 06, 2010

सिंगापुर से.......! (पार्ट -2)



सिंगापुर यूँ तो ऐसा देश है जिसमें इतने दर्शनीय स्थल हैं कि जिन्हें देखने के लिए काफी वक्त चाहिए.............. किन्तु हमारे पास वक्त की कमी थी, सो चाहकर भी कुछ ही दर्शनीय स्थलों का भ्रमण कर पाए।


दरअसल दिन भर के क्लासरूम सेसन तथा विभिन्न संस्थाओं/ प्राधिकारियों से ‘इन्टरएक्शन’ के बाद सांय का वक्त ही हमें ऐसा मिलता था कि जब हम सिंगापुर के दर्शनीय स्थलों और यहां के खूबसूरत बाजारों का अवलोकन कर सकते थे। सिंगापुर में ऐसे कई दर्शनीय स्थल हैं, जो किसी भी पर्यटक को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त हैं-जैसे, मेगाजिप एडवेंचर पार्क, सेन्टोसा पार्क, मिंट म्यूजियम ऑफ ट्वायज, चांगी बार म्यूजियम, एशियन सिविलाइजेशन म्यूजियम, पेरनकान म्यूजियम, सिंगापुर डिस्कवरी सेंण्टर, मेरीना बैराज, न्यूवाटर विजिटर सेण्टर, साइंस सेण्टर सिंगापुर, चेंग हो क्रूज, ज्वेल केबल कार ड्राइव, क्लार्क क्वे, रेड डॉट डिजाइन म्यूजियम, सिंगापुर फ्लायर, सिंगापुर रिवर क्रूज, सिगापुर टर्फ क्लब, बटरफ्लाई पार्क, नेशनल आर्चिड गार्डेन इत्यादि इत्यादि। भारतीय पर्यटकों के लिए यहां लिटिल इण्डिया, मुस्तफा कामर्शियल सेण्टर घूमना अपने देश में ही घूमने जैसा है।

बहरहाल समयाभाव के बावजूद हमने सिंगापुर को अधिकाधिक ‘एक्सप्लोर’ करने का प्रयास किया। सिंगापुर सिविल सर्विसेज कॉलेज से छूटते ही हम वापस अपने ‘फ्यूरामा रिवर फ्रंट’ होटल आते और इन स्थलों को देखने के लिए निकल पड़ते। कुछ स्थानीय भारतीय मित्रों ने कहा कि सिंगापुर दर्शन ‘सेण्टोसा बीच’ के भ्रमण के बिना अधूरा है सो हमने तय किया कि ‘सेण्टोसा बीच’ जरूर देख लिया जाए। सेण्टोसा पार्क में अण्डर वाटर सी व जलचरों का सजीव प्रदर्शन, स्काई ड्राइविंग तथा सिंगापुर म्यूजियम देखना शानदार अनुभव था। इस अनुभव में अपना रोमांच तब चरम पर पहुंचा जब हमनें ‘सांग ऑफ द सी’ पर जबरदस्त वाटर लेजर शो देखा। हजारों दर्शकों की भीड़ के बीच इस वाटर लेजर शो के प्रदर्शन ने हमारा मन मोह लिया। सेण्टोसा में इसके अलावा 4-D थिएटर, फोर्ट सिलिसों को घूमना भी अदभुत क्षण थे।

सेण्टोसा के अलावा मुझे सिंगापुर के ‘फ्लायर’ ने बहुत आकर्षित किया। 165 मीटर ऊंचाई वाले इस फ्लायर में ‘ट्रांसपेरेण्ट बॉक्स’ से सिंगापुर को देखना अत्यंत रोमाचंक अनुभव था। इस फ्लायर से यूथ ओलम्पिक की गतिविधियाँ देखना तो और भी रोमांचकारी था। सिंगापुर के बाजारों में देर रात तक रौनक रहती है। यहां जगह-जगह फूड कोर्टस देखे जा सकते है। इन फूड कोर्टस में दुनिया के अलग-अलग देशों के लजीज व्यंजन खाए जा सकते हैं। एम॰आर॰टी॰ (भारतीय मेट्रो ट्रेन की तरह) से चंद सिंगापुरी डालर्स में सिंगापुर को घूमना यादगार अनुभव रहा। विश्वास नहीं होता कि महज 700 वर्ग कि॰मी॰ में फैले किसी देश में इतने पर्यटक स्थल हो सकते हैं। इस देश की प्रगति में भारतीयों का भी बहुत बड़ा योगदान है।

जनसंख्या में लगभग दस फीसदी भागेदारी भारतीयों की है और कोई भी क्षेत्र हो, चाहे उद्योग या उत्पादन या फिर तकनीक....... सर्वत्र भारतीयों की भूमिका सहज स्वीकार्य है।

सिंगापुर में बिल्डिंग्स की बनावट तथा भू-खण्डों के प्रयोग को देखकर बार-बार इस देश के नीति निर्माताओं को धन्यवाद देने का मन करता रहा, जिन्होंने छोटे-से-छोटे भूखण्ड का ‘आप्टिमम यूज’ करते हुए उसे सुंदर से सुंदरतम बना दिया है। सड़क पर पैदल यात्रियों को सड़क पार करते हुए ट्रैफिक का रूक जाना......... रेड-ग्रीन लाइट सिग्नलस का शत-प्रतिशत अनुपालन करना ऐसे उदाहरण थे जो वास्तव में इस देश में ‘‘सिविक सेंस’’ होने का अहसास कराते थे। रेन वाटर हार्वेस्टिंग, रूफ टॉप ग्रीनरी इत्यादि को देखकर यहां की प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता रहा।

एक सप्ताह की इस सिंगापुरी यात्रा से निश्चित रूप से प्रशासनिक समझ विकसित हुई। यहां की चुस्त-दुरूस्त कानून और व्यवस्था को देखकर मन बार-बार यही सोचता रहा कि योजनाबद्ध प्रतिबद्धता और योजनाओं के क्रियान्वयन में ईमानदारी ने इस देश को विगत 45 साल में कहां से कहां पहुंचा दिया है। 1965 में आजाद हुये इस देश ने आशा से कहीं ज्यादा तेजी से विकास किया है और दुनिया में अपने अस्तित्व का सशक्त प्रमाण प्रस्तुत किया है।

सिंगापुर से लौटने के बाद भी कुछ स्थानीय भारतीय मित्रों की याद आती रही। इस यात्रा के दौरान श्रद्धा जैन जी, प्रशांत जी, अरूण दीक्षित दम्पत्ति, विक्रम-अम्बिका द्वारा दिए दिए गए स्नेह-सम्मान के प्रति मन अब तक आभारी है। सिंगापुर के बाद हमारा अगला पड़ाव वियतनाम था, जिसके बारे में तफसील से अगली प्रस्तुति में लिखने का प्रयास करूंगा।

क्रमशः

सितंबर 01, 2010

सिंगापुर से (पार्ट-1) !











13 अगस्त की सुबह 7.30 बजे सिंगापुर के चाँगी एअरपोर्ट पर उतरने के बाद यह महसूस होने लगा था कि हम अब दुनिया के उस देश की सरजमीं पर कदम रख चुकें हैं जिसे दुनिया के सबसे विकसित और प्रगतिशील देश के रूप में जाना जाता है। सिंगापुर के अगले पाँच दिन नये - नये अनुभवों से परिपूर्ण रहे, वो चाहे सिविल सर्विसेज कॉलेज में सिंगापुर के प्रशासन के बारे में जानकारी लेना रहा हो अथवा भारतीय उच्चायुक्त कार्यालय में स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगा फहराने का गौरवशाली क्षण रहा हो।
सिंगापुर के पब्लिक डिलीवरी सिस्टम को देखना समझना अपने - आप में नया अनुभव था। इस सिस्टम में सिंगापुर के लोकल ट्रेन (एम0आर0टी0) का सफर, लोकल बस सर्विस में यात्रा करना, पानी की कमीं से झूझते हुए देश में स्वच्छ पानी की आपूर्ति देखना, कन्क्रीट और सीमेण्ट की बहुमंजिली इमारतों के बीच जगह-जगह हरियाली व पार्कों का होना इस देश की बेहतरीन प्रशासनिक व्यवस्था और सुलझे हुए सिविक-सेन्स की अद्भुत दास्तान जैसा था। अपने सीमित संसाधनों के माध्यम से कोई देश कैसे आर्थिक प्रगति और खुशहाली का सफर तय करता है यह सिंगापुर से बेहतर दुनिया में शायद ही कहीं पर देखने को मिले। सिविल सर्विसेज कॉलेज सिंगापुर में बहुत रोचक क्लास रूम माहौल में वहां के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ सिंगापुर के प्रशासन के बारे में जानना-समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। योजनाओं का निर्माण और उनका सफलता पूर्वक क्रियान्वयन सिंगापुर की पहचान है। हैरानी की बात यह थी कि सिंगापुर में नीति निर्माण को लेकर उच्च प्रशासकीय स्तर पर जब़रदस्त प्रतिबद्धता देखने को मिली। अर्बन रि-डेवलपमेण्ट अथॉरिटी तथा पब्लिक यूटीलिटी बोर्ड के अधिकारियों से मिलने के बाद यह धारणा और भी पुख्ता हुई कि किसी भी योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए दूरदर्शिता, संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग तथा प्रशासकीय प्रतिबद्धता अत्यन्त आवश्यक है।
पचास लाख जनसँख्या वाले सिंगापुर की एक पहचान यह भी है कि इस सिटी - स्टेट में सब-कुछ व्यवस्थित सा दिखता है। बड़ी-बड़ी इमारतों के ऊपर हरियाली बनाए रखने का जज्ब़ा इस देश को इको-फ्रेण्डली बनाए हुए है। मरीना बीच पर फ्लायर पर पूरे शहर को देखना अद्भुत था। सत्तावन मंजिली इमारत की छत पर बाग होना एक आश्चर्य से कम नहीं था।यह सौभाग्य था कि जब हम सिंगापुर पहुँचे तो दो महत्वपूर्ण घटनाक्रम हमारे सामने हुए। सिंगापुर मे स्वतंत्रता दिवस 09 अगस्त को मनाया जाता है। 13 अगस्त को जब हम सिंगापुर पहुँचे तो यह देश स्वतंत्रता दिवस के जोश मंे पूरी तरह डूबा हुआ था। जगह-जगह राष्ट्रीय ध्वज फहरे हुए थे। दूसरी महत्वपूर्ण घटना यह थी कि 13 अगस्त को ही सिंगापुर में यूथ-ओलम्पिक गेम्स का शुभारम्भ हुआ था, जिस कारण पूरा शहर/राष्ट्र जोश मंे डूबा हुआ था।
सिंगापूर में कुछ भारतीय मित्रों से मिलना सुखद अहसास रहा। अरुण दीक्षित जी से यहाँ पहली बार मुलाकात हुई। वे एसेन्चर कन्सल्टेण्ट कम्पनी में कार्यरत हैं। उनके कुछ रिश्तेदारों से मेरी मित्रता भारत मे थी, उन्हीं के माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि सिंगापुर में श्री अरुण दीक्षित कार्यरत हैं। सिंगापुर जाने के बाद स्वयं अरुण दीक्षित द्वारा मुझसे सम्पर्क करना उल्लेखनीय बात थी। श्री दीक्षित द्वारा अपने स्थानीय भारतीय मित्रों से मिलवाना भी इसी मुलाकात को महत्वपूर्ण अंग रहा। यहाँ आने के बाद लखनऊ से सर्वत एम0 द्वारा फोन पर बताया गया कि ब्लागर श्रद्धा जैन भी सिंगापुर में ही है। श्रद्धा जी को मैं विगत लम्बे अर्से से पढ़ता चला आ रहा था। गज़ले लिखने में श्रद्धा जी ने ब्लॉग समुदाय में अपनी अच्छी पहचान बनाई है। सर्वत एम साहब ने मुझे और श्रद्धा जी को मिलवाने में महत्वपूर्ण मध्यस्थ की अदा की। श्रद्धा जी के घर जाकर उनको सुनना और लज़ीज डिनर लेना इस यात्रा की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। श्रद्धा जी के साथ उनके पति प्रशान्त जैन से मिलना अतिरिक्त उपलब्धि रही प्रशान्तजी भी कम्प्यूटर एनालिस्ट हैं जो किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत हैं। प्रशान्तजी का सेन्स ऑफ ह्यूमर इतना लाजबाब था कि हम तीन-चार घंटे लगातार हंस-हंस कर लोट-पोट होते रहे। हर एक बात पर उनके ‘‘वन लाइनर कमेण्ट’’ हंसी-ठहाके का वातावरण तैयार कर देते थे। इसके अलावा मैनपुरी के ही एक अन्य कम्प्यूटर एनालिस्ट श्री विक्रम और उनकी पत्नी अम्बिका से मिलना और उनके साथ लिटिल इण्डिया, फेयरर पार्क घूमना अविस्मरणीय रहा।
क्रमश:

जुलाई 31, 2010

यार जुलाहे...... गुलज़ार !

लाइब्रेरी के रैक में रखी किताबों को उलटते पलते अचानक यार जुलाहे...... गुलज़ार हाथ में आ गयी. यह स्थिति मेरे लिए समंदर में सीपी-मोती मिल जाने वाली थी....याद आया कि यह किताब मैंने लखनऊ के पुस्तक मेले में देखी थी, बस किसी वज़ह से खरीद नहीं पाया था. बहरहाल किताब तुरंत इश्यू कराई और पढने बैठ गया.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.


गुलों को सुनना ज़रा तुम, सदायें भेजी हैं
गुलों के हाथ बहुत सी, दुआएं भेजी हैं
जो अफताब कभी भी गुरूब नहीं होता
हमारा दिल है, इसी कि शुआयें भेजी हैं.
तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं
सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी, घटायें भेजी हैं
तुम्हारे ख्वाब से हर शब लिपट कर सोते हैं
सज़ाएँ भेज दो, हमने खताएं भेजी हैं
**********
तिनका तिनका कांटे तोड़े ,सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लम्बी होती है चांदनी रात जुदाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
**********
तेरे शहर तक पहुँच तो जाता
रस्ते में दरिया पड़ते हैं--

पुल सब तूने जला दिए थे.
**********

मैं कायनात में,
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा

गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों

तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ


लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको

तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ॥

जुलाई 23, 2010

समंदर सामने और तिश्नगी है.......!


मित्रों अपने ब्लॉग पर एक नयी- ताज़ा ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ....! पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत ज़रूर कराईयेगा ....!

समंदर सामने और तिश्नगी है !
अज़ब मुश्किल में मेरी ज़िन्दगी है !!

तेरी आमद की ख़बरों का असर है,
फ़िज़ा में खुशबूएं हैं,ताज़गी है !!

दरो-दीवार से भी हैं मरासिम,
मगर बुनियाद से बावस्तगी है !!

वो आते ही नहीं हैं कर के वादा,
हमारी मौत उनकी दिल्लगी है !!


तेरी आँखों से रोशन है नज़ारे,
तेरी ज़ुल्फों से कोई शब जगी है !!

सुनाये थे जो नग्में कुर्बतों में,
ख्यालों में उन्हीं से नग्मगी है !!


लुटाता रोशनी है बेसबब जो,
उसी के हक में देखो तीरगी है !!

ख़फ़ा मुझसे हो तो मुझको सज़ा दो,
ज़माने भर से क्या नाराज़गी है !!


तुम्हें हर सिम्त हो मंज़िल मुबारक,
हमारे हक में बस आवारगी है !!

जुलाई 14, 2010

"जार्ज एवरेस्ट" पर ब्रेकफास्ट.....!

गत शुक्रवार को अकादमी में आदेश जारी हुआ कि शनिवार कि सुबह सभी लोग "जार्ज एवरेस्ट" प्वाईंट ट्रेकिंग करते हुए चलेंगे.....शनिवार का ब्रेकफास्ट वहीँ लेकर लंच वापस अकेडमी में करेंगे....! जार्ज एवरेस्ट प्वाइंट मसूरी से लगभग 6 किमी दूरी पर है.......पैदल ट्रेकिंग करते हुए अपने 100 साथियों के साथ इस प्वाईंट तक पहुँचना बहुत ही मजेदार अनुभव था......100 अफसरों का यह दल हंसी-ठहाके करते हुए चल पड़ा.....लगभग एक-डेढ़ घंटे के पैदल सफ़र के बाद जब जार्ज एवरेस्ट पहुंचे तो लगा कि क्या ही खूबसूरत जगह पर हम पहुँच गए है....चोटी पर आकर अचानक फैले हुए घास के मैदान जैसा था यह गंतव्य और इस मैदान के बीचों-बीच एक बड़ा सा बंगला भी था, जिसे 'जार्ज एवरेस्ट का बंगला' कहा जाता है ........! यहाँ पहुँच कर हमारे साथियों ने पहले तो नाश्ता लिया....फोटोग्राफी की गयी....देर तक हम सब इस चोटी से पहाड़ों की खूबसूरती को निहारते रहे......! ब्रेकफास्ट लेकर दोस्तों ने इसी पहाड़ी पर अन्त्याक्षरी का दौर शुरू कर दिया जो अगले दो-ढाई घंटे तक चला.
इसी बीच एक जिज्ञासा यह भी जगी कि जार्ज एवरेस्ट के बंगले का जायजा भी ले लिया जाए....यह विशालकाय बंगला जार्ज एवरेस्ट द्वारा 1832 में बनवाया गया था.....! हम देर तक यही सोचते रहे कि आज जबकि दुनिया बहुत आगे पहुँच गयी तब यहाँ छोटा सा घर बनाया जाना मुश्किल काम है.....1832 में यह काम कितना कठिन रहा होगा.....इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है. जार्ज एवरेस्ट (1790-1866) वेल्श के सर्वेक्षणकर्ता थे जो भारत में 1830-43 की अवधि में सर्वेयर जनरल ऑफ़ इंडिया रहे. उन्हें भारत के दक्षिण भारत से लेकर नेपाल तक तकरीबन 2400 किमी तक के भूभाग का ट्रिगोनोमेत्रिक सर्वे करने के लिए जाना जाता है. यह भी जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है कि माउन्ट एवरेस्ट का नाम इसी महान सर्वेयर के नाम पर रखा गया है. मसूरी में के जार्ज एवरेस्ट के बंगले तक जाना एक नया अनुभव था......उन्होंने यह घर 1832 में बनवाया था. वे यह भी चाहते थे कि सर्वे ऑफ़ इंडिया का हेड ऑफिस मसूरी में ही बने....हालाँकि उनकी यह इच्छा अधूरी ही रही...यह ऑफिस बाद में देहरादून में बनाया गया. इस प्वाईंट से हिमालय पर्वत श्रृंखला का दृश्य बहुत ही मनोरम था.
बहरहाल एक मनोरंजक- खुशनुमा दिन का प्रथमार्ध जार्ज एवरेस्ट पर बिताने के लिए लम्बे समय तक याद रहेगा....!

जुलाई 07, 2010

लाज़िम है बारिशों का मियां इम्तिहान अब......!

एक अरसे से ब्लॉग से गायब रहने के बाद फिर से हाज़िर हो रहा हूँ.....दरअसल गोरखपुर से आने के बाद मसूरी की ट्रेनिंग में ऐसा व्यस्त हुआ कि पढना- लिखना सब पीछे छूट गया....जीवन बस जैसे पीपीटी प्रेजेंटेसन'स तक सिमट कर रह गया। सोचा इस चादर के बाहर भी पैर फैलाए जाएँ इसी कोशिश- मशक्कत में ये ग़ज़ल लिख गयी सो बगैर देरी किये ये ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ.....!


उतरा है खुदसरी पे वो कच्चा मकान अब,
लाज़िम है बारिशों का मियां इम्तिहान अब !!

मुश्किल सफ़र है कोई नहीं सायबान अब,
है धूप रास्तों पे बहुत मेहरबान अब !!

क़ुर्बत के इन पलों में यही सोचता हूँ मैं,
कुछ अनकहा है उसके मिरे दरमियान अब !!

याद आ गयी किसी के तबस्सुम की एक झलक,
है दिल मिरा महकता हुआ ज़ाफ़रान अब !!

यादों को कैद करने की ऐसी सज़ा मिली,
वो एक पल बना हुआ है हुक्मरान अब !!

जुलाई 01, 2010

"आइस ब्रेकिंग" ग़ज़ल......!

काफी दिनों के बाद आज ब्लॉग को देखा तो अपनी मशरूफियत का एहसास हुआ.....न कोई पोस्ट न कोई टिप्पणी .......गोरखपुर से मसूरी का ये सफ़र बहुत ही शांति से गुज़र रहा है.....इस ख़ामोशी को एक ग़ज़ल के साथ तोड़ रहा हूँ एक ग़ज़ल के साथ......मगर यह ग़ज़ल मेरी न होकर मेरी हमसफ़र और शरीके हयात अंजू की है...... ग़ज़ल कच्ची है, गलतियाँ होनी ही हैं....! मगर फिर भी पेश है ये ग़ज़ल अपने उसी रूप में बगैर किसी इस्लाह के.......!

हवाओं का दरख्तों से मुसलसल राब्ता है
कि उसकी याद का खुश्बू से जैसे वास्ता है !!
हसीं मंज़र है वो नज़रों में उसको कैद कर लो
इन्ही लम्हों से सदियों का निकलता रास्ता है !!
तेरी चाहत के दरिया में उतर कर सोचते हैं
कि इसके बाद भी जीने का कोई रास्ता है !!
हरे पत्तों पे ठहरी बारिशों कि चाँद बूँदें
इन्ही आँखों से उन अश्कों का गहरा रस्स्ता है !!
किसी भी हाल में 'गेसू' कभी तन्हा कहाँ है
कि गोया साथ उसके चल रहा एक रास्ता है !!
जल्दी मुलाक़ात होगी एक नयी ग़ज़ल के साथ

जून 04, 2010

एक शाम बेकल उत्साही साहब के साथ.....!


बीते सप्ताह अनायास और अनियोजित तरीके से देश के महान शाइर पद्म श्री बेकल उत्साही से मुलाकात हुई। दरअसल हुआ यूं कि एक शाम मेरे स्थानीय शाइर दोस्त जनाब कलीम कैसर ने मोबाईल पर सूचित किया कि बेकल उत्साही साहब गोरखपुर में आज किसी काम से आये हुये हैं, कल सुबह वापस बलरामपुर (उत्साही साहब यहीं के रहने वाले है।) चले जायेंगे। मैंने जनाब कलीम कैसर से अपनी इच्छा प्रकट की कि उत्साही साहब से मुलाकात किस तरह सम्भव है ? उनका जबाब आया कि यदि शाम को आप घर पर रहें तो उत्साही साहब को लेकर हम लोग आपके घर पर ही आ जाते हैं। इससे अच्छा प्रस्ताव भला मेरे लिए और क्या हो सकता था। मैंने तुरन्त हामी भर दी। वादे के मुताबिक जनाब कलीम कैसर शाम 7 :00 बजे अपने मित्र डॉ0 अजीज के साथ ‘बेकल उत्साही’ साहब के साथ मेरे घर तशरीफ ले आये। मैंने इसी बीच अपने मित्र और अग्रज बी0आर0 विप्लवी साहब को भी आमंत्रित कर लिया था, सो वे भी समय पर हाजिर हो गये। महफिल जम गई।
उल्लेखनीय बात यह थी कि इधर कुछ दिनों से पंकज सुबीर, अर्श तथा वीनस केशरी जी के ब्लाग पर सीहोर कवि सम्मेलन और बेकल उत्साही साहब के बारे लेकर लगातार लिखा पढ़ा गया था। बेकल साहब से मुलाकात के वक्त यह भी जेहन में बनी रही........ !
बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ......शुरुआत हुई उनके जीवन परिचय से, वे स्वयं बताने लगे कि 1928 में गोण्डा जनपद के रमवांपुर गाँव में उनका जन्म हुआ और उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन......घर पर शाइरों का आना जाना रहता था........उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी ......पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं .................आरम्भ गीतों से ही हुआ...........बाद में वे बेकल उत्साही के नाम से लोकप्रिय हुये। बहरहाल आज देश का कोई भी मंच हो, चाहे वहाँ पर कवि सम्मेलन हो अथवा मुशायरा उत्साही साहब की उपस्थिति पूरे जोशो खरोस के साथ वहां रहती है। 1976 में बेकल उत्साही साहब को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया और 1986-92 तक वे राज्य सभा में सांसद मनोनीत हुए। उन्होंने न केवल गज़लें लिखीं बल्कि हिन्दी गीत और दोहे लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण दिया। उन्होंने भाषा और विधा को भावनाओं के आदान-प्रदान में बाधक नहीं बनने दिया और शायद यही स्थिति किसी भी साहित्यकार को उसके कालजयी होने के लिए धरातल प्रदान करती है। उनके गीत जन भाषा में हैं। खड़ी बोली में लिखे गये ये गीत उर्दू और हिन्दी के बीच एक सन्धि स्थल का निर्माण करते हैं। यदि वे यह कहते है ‘मेरे सामने गज़ल है, मैं गीत लिख रहा हूँ’ तो वे अपनी भावनायें ही प्रकट कर रहे होते हैं। उनका यह कहन बरबस ही दिल में बैठ जाता है कि-नज़्म के अंदाज़ में हुस्ने-गज़ल का बांकपनमिल गई हिन्दी के रस को फ़ारसी की चाशनी दोस्त मेरे गीत का लहजा नई काविष के साथमीर के अहसास में है फ़िक्र तुलसी दास की।बेकल उत्साही साहब की खूबसूरती यह है कि उनकी जितनी पकड़ उनकी ‘अरूज’ पर है, उससे ज़्यादा पकड़ ‘पिंगल शास्त्र पर है। इसलिए जिस अधिकार से वे गज़ल कहते हैं, उतने ही अधिकार से वे दोहे-गीत भी कहते हैं। उनके काव्य में धर्म, दर्शन , भक्ति, सामाजिक मूल्यों के दर्षन होते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि गज़ल का आरम्भ कबीर और तुलसी करते हैं, तो उसे सिद्ध करने के लिए उनके पास अकाट्य प्रमाण भी है। वे कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में जितने शब्दों का प्रयोग किया है, उतना तो दुनिया के किसी भी साहित्यकार ने नहीं किया। कबीर के दर्षन को वे अद्भुत मानते हैं। बहरहाल उनके चन्द दोहे पेश करने का जी चाह रहा है मुलाहिजा फरमाएं -


मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम।
सांस उसके सीता बसे, रोम-रोम में राम।।
मैं खुसरों का वंश हूँ, हूँ अवधी का सन्त।
हिन्दी मिरी बहार है, उर्दू मिरी बसन्त।।
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात जब, आया मौसम सर्द।।
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।

‘बेकल’ साहब उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-

गोरी तेरे गाँव में।
पीपल बरगद टहल रहे हैं।
मौसम बाँधे पाँव में।।

और

छत पर बैठी देर से
गोरी चोटी गूँथ रही है
गेंदा और कनेर से

वे कृष्ण को बहुत प्यार करते हैं, कहते हैं, कि कृष्ण बहुत नटखट हैं और वे सबको छेड़ते रहते हैं। एक रचनाकार के रूप में मैंने भी उनसे बहुत छेड़-छाड़ की है। उसी छेड़-छाड़ का एक नमूना यह है-

ऐसा दर्पन मुझे कन्हाई दे।
जिसमें मेरी कमी दिखाई दे।।
गति मिरी साँसों की ठहर जाए।
जब तिरी बाँसुरी सुनाई दे।।
श्याम मैं दूर रहके हूँ बीमार।
पास आकर मुझे दवाई दे।।
वस्त्र वापस दे साधनाओं के।
आस्था को न जग हँसाई दे।।
दे कलम अपनी बाँसुरी जैसी।
अपनी रंगत की रोशनाई दे।।
तूने माखन चुराये हैं छलिये।
दिल चुराने की मत सफ़ाई दे।।
दोस्ती का उधार है तुझ पर।
हक़ सुदामा का पाई-पाई दे।।


और अन्त में भारतीय परम्परा के इस महान वाहक कवि गज़लकार बेकल उत्साही की एक गज़ल पेशे खिदमत है जो भारतीय आम आदमी की स्थिति-परिस्थिति को किस खूबसूरती के साथ बयान करती है-
अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम,
शहर जाकर मकान बोते हैं।।
धूप ही धूप जिनकी खेती थी,
अब वही सायाबान बोते हैं।।
कोंपलें दुश्मनी की सब्ज़ हुई,
दोस्ती मेह्रबान बोते हैं।।
तीर तरकाश से जब नहीं उगते,
लोग ज़द पर कमान बोते हैं।।
अब उजालों की चोटियों पे न जा,
तेरे साये ढलान बोते हैं।।
लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़,
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं।।
फ़स्ल तहसील काट लेते हैं,
हम मुसलसल लगान बोते हैं।।
रूत के आँसू ज़मीन पर बेकल।
इन दिनों आसमान बोते हैं।।


और...........

ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!

अजब है आजकल की दोस्ती भीए दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!

तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!

मई 27, 2010

कुशीनगर यात्रा वृतांत.....!


बुद्ध पूर्णिमा से ठीक एक दिन पूर्व कुशीनगर जाने का कार्यक्रम बन गया। यह कार्यक्रम दरअसल अनुज पंकज, हृदेश , अनुज वधू प्रिया और संदीप के आने पर बना। ये लोग पहली बार गोरखपुर आये थे, गोरखपुर और इसके आस-पास के दर्शनीय स्थलों को देखने की ललक ने कुशीनगर भ्रमण का कार्यक्रम बन गया। इस कार्यक्रम में मेरे मित्र स्वतंत्र गुप्ता का परिवार भी शामिल हो गया और इस तरह 27 मई को 15-20लोगों का एक जत्था कुशीनगर के लिए रवाना हुआ।
सुबह 8:00 बजे हम सबने गोरखपुर आवास से कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया। कुशीनगर, गोरखपुर से लगभग 50 किमी0 की दूरी पर स्थित है। तकरीबन एक-डेढ़ घंटे की यात्रा के बाद हम कुशीनगर पहुँचे। कुशीनगर के ‘पथिक गेस्ट हाउस’ में जलापान लेने के बाद हम लोग कुशीनगर के दर्शनार्थ निकल दिये। कुशीनगर प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक ‘मल्ल’ राज्य की राजधानी था। कुशीनगर में ही महात्मा बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था। कहा जाता है कि मल्लों ने भगवान बुद्ध के अंतिम संस्कार का समुचित प्रबन्ध किया था। पाँचवीं शताब्दी में फाह्यान ने तथा सातवीं शताब्दी में ह्वेनसाँग ने कुशीनगर का भ्रमण किया था। इन यात्रियों ने अपने यात्रा विवरण में इस स्थान को निर्जन बताया।
कालान्तर में 1860-61 में कनिंघम द्वारा इस क्षेत्र की खुदाई की गई और इसके बाद कुशीनगर को महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल माना गया। कनिंघम के उत्खनन के समय यहाँ पर 'माथा कुँवर का कोट' एवं 'रामाभार' नामक दो बड़े व कुछ अन्य छोटे टीले पाये गये। 1875-77 में कार्लाईल ने, 1896 में विंसेंट ने तथा 1910-12 में हीरानन्द शास्त्री द्वारा इस क्षेत्र का उत्खनन किया गया।
कुशीनगर के बौद्ध स्मारक वस्तुतः दो स्थानों में केन्द्रित है। शालवन जहाँ बुद्ध को परिनिर्वाण प्राप्त हुआ था और मुकुट बंधन चैत्य, जहाँ उनका दाह संस्कार हुआ था। परिनिर्वाण स्थल को अब ‘माथा कुँवर का कोट’ नाम से जाना जाता है, जबकि 'मुकुट बंधन चैत्य' का प्रतिनिधित्व आधुनिक रामाभार का टीला करता है। ‘माथा कुँवर का कोट’ के गर्भ में परिनिर्वाण मंदिर एवं मुख्य स्तूप छिपे हुए थे। ये दोनों स्तूप कुशीनगर के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक हैं। इनके चारों ओर समय-समय पर अनेक स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों का निर्माण होता रहा। मुख्य परिनिर्वाण मंदिर की खुदाई कार्लाईल द्वारा 1876 में की गई थी। इस स्तूप में महात्मा बुद्ध की 21 फुट लेटी हुयी प्रतिमा स्थापित की गयी। इस प्रतिमा की विषेशता यह है कि तीन कोणों से देखने पर यह प्रतिमा अलग-अलग भाव प्रकट करती है।
बताया जाता है कि परिनिर्वाण प्रतिमा की स्थापना पाचवीं शताब्दी में हुयी किन्तु इसका रख-रखाव ऐसा है कि यह मंदिर बहुत ज्यादा प्राचीन नही लगता। इस मंदिर के चारों तरफ विहार बने हुए हैं। मंदिर के चारों तरफ बड़ी संख्या में वृक्ष इत्यादि भी लगाये गये हैं। पतली ईंटों और हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित यह स्थल बहुत ही मनोरम दृश्य प्रस्तुत करता है।
परिनिर्वाण मंदिर से 200 मीटर आगे चलने पर माथा कुँवर का मंदिर मिलता है। इसका भी उत्खनन कार्लाईल ने किया था। यहीं बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था। आगे चलने पर कुशीनगर-देवरिया मार्ग पर रामाभार नाम का स्तूप है। इस स्तूप के समीप एक नदी भी बहती है।कुशीनगर का पुरातात्विक महत्व यह भी है कि यहाँ से बड़ी मात्रा में पत्थर, मिट्टी तथा विभिन्न धातुओं की मूर्तियाँ, सिक्के, पात्र, नक्काषीदार ईंटें आदि प्राप्तु हुये हैं। कई मोहरें ऐसी भी है जिन पर धर्मचक्र तथा कुछ महत्वपूर्ण लेख अंकित है।
कुशीनगर में कई देशों के बौद्ध मंदिर भी हैं, जिनमें श्रीलंका, कोरिया, जापान, थाईलैण्ड आदि प्रमुख हैं। पर्यटकों की दृष्टि से यह ‘आफ सीजन’ था। इसलिए यहाँ पर विदेशी पर्यटक काफी कम संख्या में थे। थाईलैण्ड के ‘वाट थाई कुशीनारा छर्लभराज’ मंदिर का भी भ्रमण किया गया। यह मंदिर 1994 में बुद्धिस्टों द्वारा दिये गये दान से निर्मित हुआ है, इसका नामकरण थाईलैण्ड के 'महाराजाधिराज भूमिवोल अधुल्यादेज' के सिंहासनारूढ़ होने के स्वर्ण जयन्ती वर्ष के अवसर पर किया गया। यह मंदिर खूबसूरती के लिहाज से उत्कृष्ट है। इस मंदिर के प्रांगण में की गई बागवानी तो नयनाभिराम है।
इस ऐतिहासिक स्थल को देखना बहुत ही संतुष्टि दायक रहा। परिजनों को यह स्थल बहुत पसन्द आया। ‘आफ सीजन’ होने के कारण होटल्स में निष्क्रियता फैली पड़ी थी। पर्यटकों के अभाव में होटल भी अनुत्पादक इकाईयों की तरह बेजान से दिखे। सबसे अच्छे बताये जाने वाले होटल में हम लोग लंच के लिए पहुँचे तो वहाँ के मैनेजर ने बताया कि लंच तैयार नहीं है, खाने में हमें बमुश्किल चायनीज नूडल्स तथा क्रिस्पी चिली पनीर ही मिल सका। कुशीनगर में कोई बाजार भी नहीं है। यहाँ होटल और रेस्टोरेन्ट भी बड़ी संख्या में नहीं है। कहा जा सकता है कि इस नगर को पर्यटन की दृश्टि से और भी विकसित किये जाने की आवष्यकता है। बहरहाल इन कमियों के बावजूद हमारी कुशीनगर यात्रा अत्यन्त मनोरंजक और स्मरणीय रही।

मई 21, 2010

अनौपचारिक मुलाकात, बात-चीत चेतन भगत से.........!

सुबह-सुबह स्थानीय मित्र शोभित अग्रवाल ने मोबाईल पर फोन किया, पूछा आज शाम का क्या प्रोग्राम है ? प्रतिउत्तर में मैंने कहा कि वैसे तो कुछ खास नहीं......। शोभित ने कहा कि यदि शाम को कहीं किसी शासकीय कार्य में व्यस्त न हों तो शाम को एक डिनर पार्टी में आप को आमंत्रित करना चाहता हूँ। मैंने शोभित से इस पार्टी की वजह जाननी चाही तो शोभित ने कहा कि किसी कोचिंग संस्थान की लांन्चिग प्रोग्राम में मशहूर लेखक चेतन भगत आ रहे हैं, प्रोग्राम तो कल है, चूँकि चेतन भगत आज खाली हैं, तो यह कार्यक्रम बना है कि उनके साथ हम लोग डिनर पर चलंे। शोभित ने बड़ी सहजता से यह कार्यक्रम बना लिया था, जबकि मैं जानता था कि चेतन भगत आज के समय के सबसे ज्यादा बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक हैं। विगत 5-7 सालों में उनके लेखन की प्रसिद्धि चारों ओर फैली है। वे आज युवा वर्ग में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले हिन्दुस्तानी अंग्रेजी लेखक हैं। युवाओं को उनकी किताबें सम्मोहित सी करती हैं। उनको हाल ही में मीडिया ने भी काफी प्रचारित व प्रसारित किया है। ‘‘थ्री इडियट्स’’ जैसी सफल हिन्दी फिल्म की कहानी लिखने वाले मामले में विधु विनोद चोपड़ा और उनकी कंट्रोवर्सी अभी जे़हन में ताजा बनी हुई है।
बहरहाल यह सारी वज़हें तो एक तरफ............ चेतन भगत से से मिलने की उत्कंठा ने मुझे सारे काम दर-किनार कर उनसे मिलने के लिए प्रेरित किया। मैंने शोभित से कहा कि शाम को मैं पार्टी में आ रहा हूँ। अपने तमिल मित्र नवीन कुमार जी0एस0 के साथ शाम 8:30 बजे निर्धारित स्थल पर मैं पहुँच गया। जिस होटल में यह डिनर पार्टी थी, उसी होटल में युवा लेखक चेतन भगत रूके हुए भी थे। तकरीबन 30-35 लोग इस डिनर पार्टी में आमंत्रित थे। इन आमंत्रित लोगों में भी अधिकांश वही थे, जिन्होंने अपनी कोचिंग की लॉन्चिग में चेतन भगत को बुलाया था। 10 मिनट बाद चेतन भगत डाइनिंग हॉल में आ गये। चेतन भगत बिल्कुल टीन एजर युवा की भांति हॉल में आये, नीली जीन्स पर काले रंग की शार्ट टी-शर्ट और रिमलेस चश्मा लगाये हुए चेतन भगत पहली मुलाकात में ही बिल्कुल अपने से लगे। ऐसा लगा ही नहीं कि चेतन भगत से हम पहली बार मिल रहे हैं।
हम लोग खाना भी लेते रहे और चेतन भगत से बात-चीत भी करते रहे, बात-चीत के दौरान उनकी जीवन कथा और उसके बाद उनके लेखन पर भी चर्चा हुई। बात-चीत के दौरान पता चला कि 22 अप्रैल 1974 को जन्मे चेतन भगत की आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा दिल्ली के आर्मी स्कूल में हुई, उसके बाद उन्होंने आई0आई0टी0 दिल्ली से मैकेनिकल इन्जिीनियरिंग में बी0-टेक किया, तदोपरान्त आई0आई0एम0 अहमदाबाद से प्रबन्धन की डिग्री हासिल की। अहमदाबाद में प्रबन्धन की डिग्री लेने के दौरान ही दक्षिण भारतीय सहपाठी अनुशा से उन्हें लगाव हो गया जो बाद में उनकी पत्नी बनीं। 1997 में प्रबन्धन की डिग्री पाने के बाद वे कुछ दिनों सिटी बैंक में भी कार्यरत रहे, लेकिन उनकी असली इच्छा तो लेखन की थी, सो लेखन के मैदान में कूद पड़े। एक बार जब लेखन शुरू किया तो फिर पीछे मुड़कर नही देखा।
उनकी पहली किताब Five Point Someone उनके अपने आई0आई0टी0 छात्र जीवन पर आधारित थी। यह किताब इतनी ज्यादा पसंद की गयी कि देश के अधिकांश अंग्रेजी दॉ युवक-युवतियों के लिए यह किसी आवश्यक ‘टेक्स्ट बुक’ सरीखी हो गयी। गत वर्ष की सबसे हिट हिन्दी फिल्म ‘‘थ्री इडियट्स’’ इसी रचना पर आधारित बतायी जाती है। उनकी दूसरी किताब 2005 में One night@ the call center आयी। यह किताब कॉल सेन्टर में काम करने वाले ऐसे 6 व्यक्तियों के मनोभावों को प्रकट करती थीं, जिन्हें एक रात ‘‘भगवान’’ से कॉल आती है। चेतन भगत की इस किताब पर भी एक पिक्चर बनी, जिसका नाम था ‘‘हैलो’’, इस पिक्चर में सलमान खान, सुहेल खान आदि थे। लगभग 3 साल बाद 2008 में उनकी किताब The 3 Mistakes of My Life आयी। यह किताब क्रिकेट, राजनीति और प्यार के त्रिकोण पर आधारित थी और मजे की बात यह थी कि इस किताब पर भी फिल्म बनाये जाने की तैयारी है। उनकी अभी तक के लेखन में अंतिम कृति 2 States – The Story of my marriage है जो उनके ही जीवन पर ही आधारित है। यह किताब मुझे इसलिए भी अच्छी लगी कि इस किताब में भारत के अखण्ड-एकता के स्वरूप के दर्शन होते हैं। चूँकि चेतन भगत की पत्नी दक्षिण भारतीय हैं, जाहिर है कि सांस्कृतिक-क्षेत्रीय विविधताओं से रोजाना वे दो-चार होते ही होंगे। इस किताब में उसी विरोधाभाषों का चित्रण बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। इस किताब में उत्तर भारतीय पात्र ‘वर्मा’ तथा दक्षिण भारतीय पात्र ‘स्वामीनाथन’ के बीच क्षेत्रीय विवादों का वार्तालाप बड़े ही दिलचस्प ढंग से लिखा गया है।
चेतन भगत आज-कल दैनिक भाष्कर और टाइम्स ऑफ इण्डिया में स्तम्भकार के रूप में भी लेखन कर रहे हैं। वे अपने ब्लाग पर भी कॉफी सक्रिय हैं। हमेशा चेहरे पर मुस्कान ओढ़े रहने वाले शान्तचित्त वाले चेतन भगत से अनौपचारिक बात-चीत करना बहुत अच्छा लगा। उनकी यह साफगोई मुझे बहुत प्रभावित कर गयी कि ‘‘मैं बहुत साधारण बोल-चाल वाली अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी रचनाओं में करता हूँ, ताकि बहुत ज्यादा गम्भीर हुए बिना अपनी बात आम आदमी तक पहुँचा सकूं।’’ वे युवाओं को अंग्रेजी सीखने के लिए भी प्रेरित करते हैं। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दी और अंग्रेजी में सास-बहू का रिश्ता है और आज का प्रत्येक युवा एक ऐसा घरेलू लड़का है जिसे माँ भी चाहिए और पत्नी भी। भले ही सास-बहू में तकरार चलती रहे। ’’ मैंने जब चेतन से यह जानना चाहा कि आई0आई0टी0 और फिर आई0आई0एम0 से एम0बी0ए0 और उसके बाद लेखन........... क्या यह बदलाव कुछ ज्यादा नहीं है? चेतन भगत मुस्कुराते हुए बोले जिस काम में खुद को संतुष्टि मिले आदमी को वही काम करना चाहिए। मैंने उनसे जब यह जानना चाहा तो अगला प्रोजेक्ट क्या है, तो वे बोले ‘‘भाई, अभी डिलीवरी प्रोसेस से बाहर आया हूँ और आप पूँछ रहे हैं कि अगला बेबी कब होगा? अभी 2 States – The Story of my marriage रिलीज हुई है, थोड़ा आराम कर लू तब नये प्रोजेक्ट के बारे में सोचूंगा।’’ और वे इतना कहकर खिलखिला कर हँस पड़ते हैं।
चेतन भगत से यह मुलाकात निश्चित रूप से इसलिए याद रहेगी कि एक 35-36 वर्षीय युवक किस तरह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है और उन्हें पाता भी है। बौद्धिकता किसी जगह-काल की मोहताज नहीं होती। वे चाहे आई0आई0टी0 में रहे हों या आई0आई0एम0 में और अब लेखन में..........हर देशकाल-परिस्थिति में वे एक दम फिट हैं और अपने होने का पुख्ता सबूत भी देते हैं। दावे के साथ कहा जा सकता है कि चेतन भगत के लेखन की गम्भीरता को लेकर भले ही प्रश्न चिन्ह उठाये जाये, लेकिन आज के युवा दिमाग में वे एक शाइनिंग स्टार हैं, जिन्हें बहुत आगे तक जाना है।

मई 08, 2010

सोहगौरा को बचाना ही होगा...!



गोरखपुरके बांसगाँव तहसील क्षेत्र में सोहगौरा गाँव के विषय में लम्बे अरसे से सुनता चला आ रहा था कि यह गाँव ऐतिहासिक महत्व का है। किन्तु चाहते हुए भी प्रशासकीय व्यवस्थाओं ने इस गाँव का मुझे पहुँचने न दिया। कल अचानक मैं इस गाँव के पास से ही गुजर रहा था, तो तय किया कि सोहगौरा गाँव का भ्रमण भी कर लिया जाय।



दरअसल सोहगौरा गाँव प्रागैतिहासिक सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल है। ऐसा माना जाता है कि मानव सभ्यता ने जब खेती करना आरम्भ किया तो, पहले पहल जिन क्षेत्रों में खेती के प्रमाण मिले उनमें से एक गाँव सोहगौरा भी है।


पुरातत्व विदों तथा इतिहास वेत्ताओं द्वारा इस क्षेत्र के विषय में अभी बहुत विस्तार से नही लिखा गया किन्तु 1960 तथा तदोपरान्त 1974 के उत्खनन के बाद यह तथ्य प्रकाश में आया कि सोहगौरा वह गाँव है जहाँ पहले पहल हुयी धान की खेती के प्रमाण मिले हैं . इस गाँव का जब पहले पहल 1960 में उत्खनन हुआ तो इस तथ्य को गम्भीरता से नही लिया गया था, किन्तु 1974 की खुदाई में मिले मृदभाण्डों से स्पष्ट हुआ कि मृदभाण्डों को मजबूती देने के लिए मिट्टी में धान की भूसी मिलाई गई है। यही से इस धारणा को बल मिला कि धान की खेती के पहले प्रमाण विन्ध्य क्षेत्र के इस इलाके से ही मिले । इस प्रकार गाँव सोहगौरा इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक कालीन स्थल सिद्ध हो सकता है। बताया जाता है कि खुदाई के दौरान जो मृदभाण्ड और औंजार मिले थें वे 8000 ई0पू0 के हैं। निश्चित रूप से यह गाँव ताम्र पाषाण कालीन सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थल सिद्ध हो सकता है। इस गाँव के भ्रमण के उपरान्त दुःख भी हुआ कि इस प्रागैतिहासिक कालीन स्थल के संरक्षण के लिए गम्भीरता पूर्वक कोई प्रयास नही किया गया है। स्थिति यह थी की भ्रमण के दौरान जब मैंने इस बावत स्थानीय ग्रामीणों से जानकारी चाही तो ग्रामीण यह बता पाने में असमर्थ की कि वास्तव में किस जगह उत्खनन किया गया था। महज 40 साल में ही अपनी खुदाई के उपरान्त यह स्थल महत्वपूर्ण होने के बावजूद यदि महत्वहीन हुआ है, तो इसके पीछे निश्चित रूप से यही कारण है कि इस स्थल को अपेक्षित रूप से संरक्षित नही किया गया। भ्रमण के दौरान मेरा यह प्रयास रहा कि 1974 के उत्खनन में श्रमिक के रूप में काम किये हुए कुछ लोगों से वार्ता की जाय तथा तत्कालीन खुदाई की स्थिति-परिस्थिति को समझा जाय। कुछ लोग ऐसे सामने आये भी जिन्होंने उस खुदाई में श्रमिक के रूप में काम किया था किन्तु वे भी बहुत ज्यादा जानकारी नही दे पाये।


हैरानी की बात यह है कि जिस स्थल पर खुदाई होना बताया गया उस स्थल पर वर्तमान में स्थानीय ग्रामीणों द्वारा घर तथा धार्मिक स्थल निर्मित कर लिये गये हैं और उस उत्खनन का कोई भी अवशेष इस गाँव में नही मिल सका। यही कहा जा सकता है कि मानवीय आवासीय तथा धार्मिक आवश्यकताओं ने एक पुरातात्विक स्थल को महत्वहीन बना दिया है।



इस बारे में जो रिपोर्ट अमर उजाला,राष्ट्रिय सहारा तथा हिन्दुस्तान दैनिक में भी प्रकाशित हुयी है ......सलंगन कर रहा हूँ

मई 06, 2010

....दिल में कोई खलिश छुपाये हैं !

अपनी प्रशासकीय व्यस्तता के चलते इधर बहुत दिनों से न अपने प्रिय ब्लोगर्स को पढ़ पा रहा था और न ही उन्हें अपनी प्रतिक्रियाएं भेज पा रहा था........मगर ब्लॉग जगत पर आज विचरण किया तो पता चला कि मैं ही नहीं बहुत से ब्लोगर मित्रों ने इधर चुप्पी सी लगा रक्खी है......उनके ब्लॉग पर भी नया ताज़ा कुछ नहीं मिला.......अपने मित्र गौतम राजरिशी के ब्लॉग पर भी देखा मगर हताशा हाथ लगी.......सुबीर साहब तो मशरूफ रहते ही हैं......इस्मत जी ने जरूर इस गतिरोध को तोड़ा है, उन्होंने बहुत सुन्दर ग़ज़लें लिखी है.......पाखी,अभिषेक ओझा,वंदना जी, रंजना,कुश, अमरेन्द्र, महफूज़ भी खामोश हैं.........उड़न तश्तरी समीर जी ने ४०० पोस्ट लिख कर इस ख़ामोशी के दौर में अपनी सक्रियता बनाये रखते हुए वाकई उपलब्धि हासिल की है........! अपनी निष्क्रियता का अंदाजा तब हुआ जब क्षमा जी ने लिख कर और शिवम् मिश्र ने आज फोन कर मुझसे न लिखने का उलाहना दिया तो लगा कि वाकई लिखना जरूरी है.....सो आज सोच लिया कि आज एक पुरानी ग़ज़ल पोस्ट कर दूं, ताकि जमी हुयी बर्फ पिघले ........उसी क्रम में यह ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ......

दिल में कोई खलिश छुपाये हैं,
यार आईना ले के आये हैं !!

अब तो पत्थर ही उनकी किस्मत हैं,
जिन दरख्तों ने फल उगाये हैं !!

दर्द रिसते थे सारे लफ़्ज़ों से,
ऐसे नग्में भी गुनगुनाये हैं !!

अम्न वालों की इस कवायद पर,
सुनते हैं " बुद्ध मुस्कुराये हैं" !!

ये भी आवारगी का आलम है,
पाँव अपने सफ़र पराये हैं !!

जब कि आँखें ही तर्जुमाँ ठहरीं,
लफ्ज़ होठों पे क्यूँ सजाये हैं !!

कच्ची दीवार मैं तो बारिश वो,
हौसले खूब आजमाये हैं !!

देर तक इस गुमाँ में सोते रहे,
दूर तक खुशगवार साये हैं !!

जिस्म के ज़ख्म हों तो दिख जाएँ,
रूह पर हमने ज़ख्म खाये हैं !!







अप्रैल 19, 2010

वीनस भाई और उनके बेहतरीन प्रयास के नाम ग़ज़ल........!

बीते दिनों ब्लॉग पर वीनस केसरी ने "आइये एक शेर कहें" नमक बेहतरीन श्रृंखला शुरू की ......यह अलग बात कि यह श्रृंखला उनकी व्यक्तिगत वजहों के कारण बीच में ही गतिरोध का शिकार हो गयी, मैंने वीनस से इस बावत बात भी की, दरख्वास्त भी की कि इस शानदार श्रृंखला को यूँ ख़त्म न करें........कई ग़ज़लकारों के लिए उनका ब्लॉग संजीवनी सिद्ध हो सकता था , मगर..............! खैर तिलक राज कपूर साहब के माध्यम से जिस अंदाज़ में शेरों की बुनावट पर स्वस्थ टिप्पणियां आ रही थीं, वे अनपैरेलल थीं.....! चलिए वीनस भाई की मजबूरियों का सम्मान करते हैं. एक नयी ग़ज़ल इधर मुझसे लिख गयी सोच इस ग़ज़ल को क्यूँ न वीनस भाई और उनके बेहतरीन प्रयास के नाम कर दूं........! तो हाज़िर है वीनस भाई के नाम यह ग़ज़ल.......मुलाहिजा फरमाएं......!

हम तुम हैं आधी रात है और माह-ए-नीम है,
क्या इसके बाद भी कोई मंज़र अजीम है !!

वो खुश कि उसके हिस्से में आया है सारा बाग़,
मैं खुश कि मिरे हिस्से में बाद-ए- नसीम है !!

लहरें वसूलयाबी को आती हैं बार-बार,
साहिल है कर्ज़दार समंदर मुनीम है !!

क्या वज्ह पेश आई अधूरा है जो सफ़र,
रास्ता ही थक गया है कि राही मुकीम है !!

जब जब हुआ फसाद तो हर एक पारसा,
साबित हुआ कि चाल- चलन से यतीम है !!

फेहरिस्त में तो नाम बहुत दर्ज हैं मगर,
जो गर्दिशों में साथ रहे वो नदीम है !!

मज़हब का जो अलम लिए फिरते हैं आजकल,
उनकी नज़र में राम न दिल में रहीम है !!

साया है कम तो फ़िक्र नहीं क्यूंकि वो शजर,
ऊँचाई की हवस के लिए मुस्तकीम है !!

*माह ए नीम = आधा चाँद, नदीम = दोस्त, मुस्तकीम = सीधा खड़ा हुआ

अप्रैल 08, 2010

वृंदा और कंचन का विलाप कानों में गूंजता है.......!


मंगलवार दिनांक 6 अप्रैल 2010 का दिन भारत के इतिहास में हिंसात्मक नक्सली गतिविधियों के लिए जाना जायेगा....इस दिन नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में दंतेवाडा जिले में 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया.......यह घटना तब घटी जब केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवानों को ले जा रही एक बस को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया गया ......इस बस में 76 जवान सवार थे. मुकरना के जंगल में घटी इस घटना ने देश को हिला कर रख दिया. इस हादसे में शहीद हुए जवानों में 42 जवान उत्तर प्रदेश के थे.........और इन जवानों में भी 4 गोरखपुर के थे.......! बुधवार की रात जब इन जवानों के शव गोरखपुर लाये गए तो दिल हिला देने वाले दृश्य देखने को मिले ........दो जवानों की अंत्येष्टि में मैं भी शामिल हुआ, जवान थे-अवधेश यादव और प्रवीन राय......! 28 वर्षीय प्रवीण अपने तीन भाईयों में सबसे बड़े थे.......बचपन में ही माँ का देहांत हो जाने के बाद उन्होंने अपने पिता के साथ अपने दो छोटे भाइयों को सहारा दिया ......पिता के साथ कन्धा मिलाते हुए जीवन का सफ़र तय किया था.......2002 में वे सी. आर. पी. एफ. में भर्ती हो गए.......2004 में शादी की ........उनकी पत्नी वृंदा बस अगले महीने ही माँ बनने वाली थीं...........उससे पहले ही यह दुखद घटना घट गयी........! अल सुबह 2 बजे जब मैं शहीद के पार्थिव शरीर को लेकर बघराई गाँव पहुंचा तो ग्रामीणों का जमघट वहां था..........सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था........जैसे सी. आर. पी. एफ. की गाड़ी से तिरंगे में लिपटा शव उतारा गया तो लगा कि जवान यह पूरे गाँव का लाडला था..........हर और विलाप की आवाजें ........पत्नी और छोटे भाई का हाल रो-रो के जो हो रहा था .....मैं चाह के भी बयां नहीं कर सकता......पिता तो जैसे घटना पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे........चुप्पी सी लगी हुयी थी उनके होठों पर. यही हाल दूसरे शहीद अवधेश के घर का था. 25 साल सेवा कर चुके 45 वर्षीय अवधेश यादव ने अपने बड़े पुत्र की शादी अगले जून माह में तय कर दी थी.............तारीख भी मुकर्रर हो गयी थी.......11 जून............मगर शायद नियति को कुछ और ही मंज़ूर था उससे पहले यह घटना घट गयी . उनके दोनों बेटों और चौदह वर्षीय बेटी कंचन का विलाप देखकर किसी की आँखें नम हो सकती थीं.............सरयू के किनारे मुक्तिधाम घाट पर इन दोनों जवानों को सलामी के बीच अंत्येष्टि करते वक्त जो मंज़र था वो अब तक मेरी आँखों से उतरा नहीं है............ रात भर जगे होने के बावजूद......... उदास -टूटे हुए मन से पोस्ट लिखने बैठ गया.........बार-बार प्रवीन की पत्नी वृंदा का विलाप और अवधेश की चौदह वर्षीय बेटी कंचन का करुण क्रंदन कानों में गूंजता रहा ..............ऐसे में मन में बारम्बार यही प्रश्न कौंधता रहा कि आंतरिक अशांति से जूझते देश को इन दुखद स्थितियों से कैसे निजात मिलेगी ?

मार्च 24, 2010

एक नयी ग़ज़ल.......!


इधर काफी दिन से कोई ग़ज़ल ब्लॉग पर पोस्ट नहीं की थी.......दोस्तों की तरफ से उलाहने आ रहे थे कि ग़ज़ल पोस्ट करो..................... पीसिंह, शिवम् मिश्र, सुमति, सत्यम, अमरेन्द्र, मनीष ,पंकज, विप्लवी साहब जैसे दोस्तों की बात का आदर करते हुए एक नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ...........इस उम्मीद में कि आपको ये पेशकस शायद पसंद आये..........! हाज़िर है ग़ज़ल............!

वो कभी गुल कभी खार होते रहे,
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!

इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!

वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!

काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!

मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!

मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला,
हौसले हादसों में जो खोते रहे !!

आर्ज़ू थी उगें सारे मंज़र हसीं,
इसलिए फसल ख्वाबों की बोते रहे !!

जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!

ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!

मार्च 15, 2010

कुछ नज्में......डायरी से !

एक अरसे बाद कल अपनी डायरी लेकर बैठ गया..........ऐसा लगा कि जैसे पुराने कुछ फूल फिर से नए रंगों में खिल गए...........चंद नज्में जो कुछेक बरस पहले लिखी थीं ........फिर से रोशन सी हो गयीं........जी चाहा कि इन कुछ नज्मों को क्यों न आप सबके हवाले कर दूं ..........ग़ज़लों को तो अपने ब्लॉग पर लिखता ही रहता हूँ, कुछ नज्में आपको नज्र करने की हिमाकत करने का जी चाह है.........सो खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ......मुलाहिजा फरमाएं.......!

1-याद
बस
एक लम्हा
गुज़ारा था तेरे साथ,
एक
भरी पूरी उम्र
कट गयी
उस लम्हे की
यादों के सहारे !
काश !
एक उम्र
तेरे साथ
गुजरने पाती..................!

***************
2-गिरहें ......!
तुम्हारे
जिस्म में
वो कौन सा
जादू छुपा है कि
जब भी तुम्हें
एक नज़र देखता
हूँ........
मेरी निगाह में
यक-ब- यक
हजारों
रेशमी गिरहें
सी लग जाती हैं............!
****************
3-रात
वक्त के मेले में
जब भी रात
घूमने निकलती है
तो न जाने क्यूँ
वो अपने कुछ बच्चों को
जिन्हें "लम्हे" कहते हैं,
छोड़ आती है.........!
ये गुमशुदा लम्हे
जुगनू की शक्ल अख्तियार करके
बेसबब
अपनी माँ की तलाश में
भटकते रहते हैं...........,
मचलते रहते हैं............!
***************
4-अमानत
परत दर परत
तह ब तह
जिंदगी जिंदगी
.......यही एक अमानत
बख्शी है मेरे नाम
मेरे खुदा ने........!
इसी में से
ये जिंदगी
ये उम्र
तुम्हारे नाम कर दी है.......!
पर सुनो
ये तो सिर्फ पेशगी है
तुम कहो तो
ये सारी
अमानत
तुम्हारे नाम कर दूं.....!


मार्च 08, 2010

डोर से बंधी पतंग का दर्द कौन समझेगा........'महिला दिवस' !

आज आठ मार्च है.................अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस.......! कायनात की अगर सबसे हसीं कोई चीज है तो वो निश्चित रूप से 'स्त्री' है.......! कभी माँ के रूप में तो कभी बहन के रूप में..........कभी पत्नी के रूप में तो कभी बेटी के रूप में स्त्री अपने रंग रूप में तब्दील होती रही है........ यह अलग बात है कि पूरी दुनिया में चाहे वो विकसित देश हों या विकास शील देश ........महिलाओं को हमेशा हर जगह दोयम दर्जे का ही समझा गया है........दकियानूसी समाज ने तो महिलाओं की स्थिति और भी कमजोर की है.... ,मगर यह "स्त्री शक्ति" ही है जो इन तमाम विरोधाभाषों से लड़कर तप कर निखरती रही है........वैदिक कालीन सभ्यता हो या कि महाकाव्य कालीन समाज ..........हमेशा सीता-अहिल्या के रूप में स्त्री को पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होना पड़ा है............तथाकथित विकसित सोच रखने वाले देशों में भी महिलाओं की स्थिति कमोबेश ऎसी ही रही है.....वर्ना कोई तो कारण नहीं क़ि अमेरिका जैसे देश में अब तक कोई महिला प्रेसीडेन्ट नहीं हुयी.......! सामाजिक- आर्थिक- साहित्यिक- राजनीतिक-खेल-प्राशासन.......सभी मंचों पर आज स्त्री निर्णायक भूमिका में है...........हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि यदि समाज में "इन्क्लूसिव सोशल ग्रोथ" का सपना साकार करना है तो हमें स्त्री-पुरुष जैसी लिंगभेदी मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को बराबरी का अधिकार देना ही होगा....! यह महिला दिवस मानाने वाली रीति मुझे कम समझ में आती है की हम किसी एक दिवस को ही महिला दिवस मनाएं......बहरहाल इसे 'प्रतीक दिवस' के रूप में मनाने का प्रचलन आ ही चूका है तो ऐसे में यह दिवस मना कर खुद को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास तो दिला ही सकते हैं...........! ऐसे अवसर पर, कैफ़ी आज़मी साहब जैसे प्रगतिशील शायर ने एक अरसा पहले "स्त्री शक्ति" से जो कहा था उसे दोहराने का मन कर रहा है......

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़ -ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नही
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमे में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
टुक यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में जमीन
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड्खादायेगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे !
निदा साहब ने माँ के रूप में स्त्री का जो सुन्दर रूप देखा है उसके तो क्या कहने........
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
जी चाहता है कि अपनी एक नज़्म इस मौके पर आपको पेश करूँ, जो मैंने खास महिलाओं को ही ध्यान में रख कर लिखी थी ..........
तूने
बख्शा तो है
मुझे खुला आसमान
साथ ही दी हैं
तेज़ हवाएं भी
हाथों की
हल्की ज़ुम्बिस देकर
ज़मीं से ऊपर उठा भी दिया है
.......मगर
ये सब कुछ
बेमतलब सा लगता है
ये आसमान,
ये हवाएं,
ये हलकी सी जुम्बिश................
काश
तूने ये कुछ न दिया होता
बस मेरी कमान खोल दी होती.......
एक धागा है ,
जिसने बदल दिए हैं
मायने
मेरी आज़ादी के,
................डोर से बंधी पतंग का दर्द कौन समझेगा।


फ़रवरी 27, 2010

फिर कमसिन होली आई है........!

यूँ तो भारत त्योहारों का देश है ........हर बारह-पंद्रह दिनों पर एक त्यौहार पड़ ही जाता है जो तन मन को स्पंदित कर जाता है.........मगर फिर भी कुछ त्यौहार ऐसे होते हैं जो पूरे जोश खरोश से मनाये जाते हैं..................होली भी वो त्यौहार है जो जन मानस के छुपे अल्हड़पन और बचपन को बाहर निकाल कर रख देता है.............होली का माहौल अपने आप में बड़ा नशीला टाईप का होता है............आँखों में मदहोशी .........हाथों में रंग-पिचकारी ........मुंह में मीठी गुजिया- अनरसे ..........ढोलक -मंजीरे की थाप...........मदमस्त फाग गाते हुए गलियों से से निकलती टोलियाँ .............उम्र के फासले टूटने लगते है, क्या बूढ़े-क्या नौजवान सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगने लगते हैं.............सब देवर बनने की चाहत में रंग जाते हैं.....! मैं भी तो कमोबेश इन्ही रंगों में रंगा हुआ हूँ .......सोचा इस बार क्यों न उन कवियों -शायरों के हाल उन्ही की जुबानी आपको सुना दूं जो होली पर आप और हम जितने ही मस्त और बिंदास हो जाते हैं............मैंने होली के अवसर पर कुछ पुराने जाने पहचाने कवियों शायरों की रचनाओं को इस पोस्ट में शामिल किया है तो कुछ नए ज़माने के लोगों को भी न्योता दिया कि वे भी होली के रंग बिखेरें ................यह प्रयास कैसा रहा यह तो आप ही तय करंगे फिलहाल तो पोस्ट हाज़िर कर रहा हूँ................तो हुज़ूर देरी क्यों, आइये शुरू करते हैं प्रेम की दीवानी मीरा की ब्रज भाषा में रंगी एक रचना से जो खालिस होली का रंग बिखेर रही है........कृष्ण भक्ति में मीरा होली के रंग में इस तरह रंग जाती हैं और कह उठती हैं......

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
सील सन्तोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥

हिन्दवी के उस्ताद और भारत की पहचान गंगा जमुनी संस्कृति की अलख जगाने वाले अमीर खुसरो साहब रंगों का जलवा कुछ यूँ बिखेर रहे हैं................
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब ए इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे

लोक भाषा के उस्ताद शायर नजीर अकबराबादी की अल्हड नज़रों में होली कुछ ऐसी होती है.......
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के,
कुछ बढ़ बढ़ के,कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के,
कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून , रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।

हिंदी के पहले लेखक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद अपनी बिंदास शैली में होली का फाग कुछ यूँ गाते हैं.............
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीलीआँख दिखाकर करो सरशार होली में

जय शंकर प्रसाद जी भला होली पर कैसे चुप बैठ सकते हैं, होली पर उनकी अभिव्यक्ति क्या ही निराली है.........
बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।
चाँदनी धुली हुई हैं आज बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख।
तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।
पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।
उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल।
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियाँ जावें झूल।
विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात!
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हाँ, होली की रात॥


होली पर मधुशाला कवि हरिबंश राय बच्चन की पिचकारी कुछ इस तरह रंग छिड़कती है.........
तुम अपने रँग में रँग लो तो है
होली देखी मैंने बहुत दिनों तक दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने, मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
घूमेगा जग राह-राह में आलिंगन की मधुर चाह में,
स्नेह सरसता से घट भरकर, ले अनुराग राग की झोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
उर से कुछ उच्छवास उठेंगे, चिर भूखे भुज पाश उठेंगे,
कंठों में आ रुक जाएगी मेरे करुण प्रणय की बोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
आँसू की दो धार बहेगी, दो-दो मुट्ठी राख उड़ेगी,
और अधिक चमकीला होगा जग का रंग, जगत की रोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
असली रंग तो महान कवि निराला जी खेल रहे हैं......सारे बंधन तोड़ के.......
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!

उस्ताद शायर वसीम बरेलवी साहब विरहन का दर्द होली पर कुछ ऐसे बिखेर रहे हैं.........
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचौली
मगर अब साजन कैसी होली !
तन के सारे रंग भिखारी, मन का रंग सुहाग
बाहर बाहर पूरनमासी अन्दर अन्दर आग
अंग अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहुत शर्माए
कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने इक इक रंग में
कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आँख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहाना रंग जमाना
रंग दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन
रंग को रंग ना जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगों रंगों बोली
मगर अब साजन कैसी होली !

युवा शायर और मेरे अज़ीज़ शायर अकील नोमानी भी लड़खड़ाते क़दमों के साथ कह रहे हैं........
दिल में बजता है प्यार का संगीत, रूह फागुन के गीत गाती है,
जब बिखरते हैं रंग होली के, जिंदगी झूम झूम जाती है !

और..........,
आइये होलिका दहन के साथ, नफरतों को जला दिया जाये !
अबके होली में दुश्मनों को भी, प्यार करना सिखा दिया जाये !!

कुंवर बेचैन जीवन की सच्चाइयों से रु ब रु होते हुए तल्ख़ मिजाजों में कहते हैं..........
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
हमने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी
यह मत पूछो हमको क्या-क्या दुनिया ने त्यौहार दिए
मिली हमें अंधी दीवाली गूँगी होली बाबू जी

ये क्या........... रेलवे के अफसरान भी होली खेलने पर उतर आये.......विप्लबी साहब तो गले में ढोलक डाले पंचम स्वर में फाग गा रहे हैं.........
होली आयी तो मचा होली का हुडदंग,
दुश्मन मिलते बदल कर गिरगिट जैसा रंग
गिरगिट जैसा रंग लबों पे हंसी सुहानी
हम अब्दुल्ला हुए देख शादी बेगानी
कहें ‘बिप्लवी’ चढ़ी भँग की ऐसी गोली
हुआ मुहर्रम अपना उनकी होली हो ली

.............नहीं मानेंगे........ कह रहे हैं एक ग़ज़ल और पेश करूंगा.......तो लीजिये बचिए.....
जुटा लें एक जहती का सरो सामान होली में
मिले कुछ इस तरह इंसान से इंसान होली में
किसी को हाथापाई करके रंगों में डुबो डाला
तो जैसे जा रहा है मार कर मैदान होली में
नज़र से रंग बरसे पैरहन से खुशबुएँ निकलें
मगर वो शोख खुद से लग रहा अनजान होली में
हवाएं हाथ पकडे हैं घटायें घर बुलाती हैं
हुयी है किस तरह आवो हवा शैतान होली में
हमारी ‘बिप्लवी’ तहजीब ही इंसानियत की है
भुला दें रंजिशें पिछली ये हो उन्वान दें होली में

मेरे अपने शहर मैनपुरी के शायर दोस्त फ़साहत अनवर साहब ने भी होली का रंग कुछ यूँ बिखेरा है........
त्यौहार है ये खुशियों का क्या मस्त सुहाना है,
जी चाहे जिसे रंग दो होली का बहाना है !
गुजियों या अनरसों से भरता ही नहीं मनवा,
पकवान ये जी भर के जन जन को खिलाना है !

पोस्ट का अंत अपने जिगरी यार मनीष की एक रचना से कर रहा हूँ जो भाँग के नशे में उछल उछल कर कह रहे हैं........
रंग लाल गुलाल का बादल है,मदमाती आँख का काजल है
कुछ हवा नशे में चूर सी है,हर सांस में महका संदल है
पत्ता पत्ता बौराया है, हर ज़र्रा जोश में आया है !
......रंगों की वो तकरार उधर,देखो टेसू की धार उधर
क़दमों का भी है हाल अज़ब,एक बार इधर इक उधर
क्या बात बताएं होली की, मदहोश फज़ाएँ होली की.......
गुलमोहर की रंगत का मौसम,रंगीन शरारत का मौसम
मौला मेरे फिर फिर आये,रंगों की इबादत का मौसम !

यह प्रस्तुति मुझे यहीं ख़त्म करने की इज़ाज़त दें............इतनी लम्बी पोस्ट लिखने की आदत नहीं रही.........होली पर आप सभी को मेरी शुभकामनायें..............इस उम्मीद के साथ


"ढोलक की थापों पे गाते फगुओं की टोली आई है
टेसू की रंगत बिखर गयी फिर कमसिन होली आई है........"