ग़ज़ल का सफर यूँ तो सात सौ बरस पुराना है लेकिन मज़मून और मफ़हूम के स्तर पर इसमें मुसलसल तब्दीलियां होती रही हैं। जुबान के तौर पर भी ग़ज़ल ने तब्दीलियों का एक तवील सफ़र तय किया है। ख़ालिस फ़ारसी से लेकर अरबी,
उर्दू,
हिन्दी,
क्षेत्रीय भाषाओं तक में ग़ज़ल को ओढ़ा बिछाया गया है। ग़ज़ल में इन्हीं तब्दीलियों का एक दौर 1991
के बाद से देखा जा सकता है। इस दौर के शाइरों की सोच और उनकी अभिव्यक्ति को ग़ौर से देखें-परखें तो पायेंगें कि क़दीमी शेरी रिवायत से ये शायरी बिल्कुल बदली हुई है। तमाम व्याकरण पाबन्दियों को अपनाने के बाद भी इस दौर की ग़ज़लियात में सोच और ज़़बान में ये परिवर्तन साफ झलकता है। इसी दौर और बदलते वैचारिक परिवर्तन की एक बानगी है’पाल ले एक रोग नादाँ....’ शेरी मजमूआ।
ये शेरी मजमुआ कर्नल गौतम राजरिशी की ग़ज़लों का है। चालीस साला गौतम राजरिशी एकदम नयी सोच व नये लहजे के शायर हैं। बीते दिनों में तमाम अदबी पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित हुई हैं। वर्चुअल वर्ल्ड /सोशल साइट्स पर भी उनकी उपस्थित लगातार बनी रहती है।’पाल ले एक रोग नादाँ....’ पढ़ते वक्त शायर के विषय में कुछ ख़यालात पुख्ता होते हैं। गौतम की ग़ज़लें पढ़ते हुये सामान्य तौर पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे न केवल नई सोच के शायर हैं बल्कि ज़ुबान के तौर पर भी उन्होनें हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी की भाषाई त्रिवेणी के साथ देशज शब्दों का भी भरपूर इस्तेमाल किया है। जाहिर है कि शायर की दिलचस्पी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में कहीं ज्यादा है, बनिस्पत भाषा की बाध्यताओं को समझने के। गौतम इस मजमूअे में कई रंग बिखेरते हैं। उनकी शायरी में यह साफ झलकता है कि वे अपने दौर के कई शायरों से भाषाई, वैचारिक स्तर पर प्रभावित है। गौतम कई स्थानों पर बशीर बद्र, गुलज़ार जैसे लहजे में अपनी बात कहते हुये नज़र आते हैं, लेकिन उनका यह तरीका अनायास भी सम्भव है। गौतम की शायरी का एक मजबूत पक्ष नये-नये विम्बों का इस्तेमाल भी है जो पाठकों को प्रभावित करता है।
ऐसी लफ़्ज़ियात जो ग़ज़ल में आम फहम नहीं मानी जाती है उसका बेरोक टोक प्रयोग गौतम की उस हिम्मत को दिखाता है कि फौज का सिपाही किस हद तक मोरचा ले सकता है। गौतम की ग़ज़लियात का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि वे उस भाषाई ओवर लैपिंग की गिरफ्त में हैं जो आजकल की अवामी जुबान है। वे ये परवाह नहीं करते कि कौन सा लफ़्ज किस ज़बान का है, उन्हें जिद है तो बस यह कि अपने भाव किस प्रकार अभिव्यक्त हो जायें। वे हिन्दी के कठिन शब्दों के साथ पापुलर अंग्रेजी शब्द की चाशनी बनाकर ख़ालिस उर्दू लफ़्जियात का इस्तेमाल कर अपनी शायरी को मुख़्तलिफ़ ज़बानों को त्रिवेणी बना देते हैं। इसी प्रकार वे लोक जीवन के भी तमाम इलाकाई लफ़्ज़ों का भरपूर इस्तेमाल कर अपनी ग़ज़़लों को समृद्ध बनाते हैं। नई लफ्ज़ि़यात, जैसे-बटोही (पृ0 53), बरखरा (पृ0 47), इतउत (पृ0 40), तमक (पृ0 22), चुकमुक (पृ0 26), मसहरी (पृ0 26), नियम (पृ0 27), आयाम (पृ0 37), सपेरे (पृ0 77) इत्यादि उनकी ग़ज़लों का अभिन्न हिस्सा है जो उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति में पाठको तक सीधे रूप से अपने सम्पूर्ण अर्थों के साथ सम्प्रेषित होते हैं। वे इस बहस में भी नहीं पड़ते कि कहाँ उर्दू ग़ज़़ल की सीमा खत्म होती है और कहां से हिन्दी ग़ज़ल शुरू हो जाती है। हिन्दी के काफियों का भरपूर इस्तेमाल उनके इस ग़ज़ल संग्रह में लगातार दिखायी पड़ता है।
बड़के ने जब चुपके-चुपके कुछ ख़ेतों की काटी मेड़
आये-जाये छुटके के संग अब तो रोज कचहरी धूप
बाबूजी हैं असमंजस में, छाता लें या रहने दें
जीभ दिखाये लुक-छिप लुक-छिप बादल में चितकबरी धूप
भाषाई विविधता का यह पराक्रम गौतम की शायरी में आगे भी निर्बाध रूप से जारी रहता है। अंग्रेजी के शब्दों जैसे- सिगरेट, शावर, स्टोव,बालकोनी, मोबाईल, बल्ब, न्यूज पेपर, सोफा, स्कूटी, सिम्फनी, सेंसेक्स, कार, गिटार के अतिरिक्त और भी न जाने कितने अंग्रेजी शब्द गौतम की शायरी में लगातार डूबते इतराते नजर आते हैं। बानगी के तौर पर चन्द शेर मुलाहिज़ा हों-
‘येल्लो पोल्का डॉट‘ दुपट्टा तेरा उड़े
तो मौसम भी चितकबरा हो जाता है।
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इश़्क का ‘ओएसिस‘ हो या हो यादों का
‘धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है‘
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चैक पर ‘बाइक‘ ने जब देखा नज़र भर कर उधर
कार की खिड़की में इक ‘साड़ी‘ संभलती रह गयी।
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एक कप कॉफ़ी का वादा भी न तुमसे निभ सका
कैडबरी रैपर के अंदर ही पिघलती रह गयी।
काफिया पैमाई भी गौतम की ग़ज़लियात का महत्वपूर्ण हिस्सा है। कलर के साथ हुनर, सीलन के साथ रोमन और इंजन का काफिया इस्तेमाल करना गौतम की कामयाबी का प्रतीक है। आशिक-माशूक के ज़ाविये से देखा जाये तो एक उदास नायक तन्हाई में किस तरह अपने इश्क के विषय में सोचता है, यह अन्दाज उनके शेरी कैनवास में कई रंग बिखेरता है। गौतम फौज़ में अफसर हैं और उन्होंने अपनी नौकरी का एक बड़ा वक्त अपने परिवार समाज से दूर रहकर दुर्गम पहाड़ों और ऐसी स्ट्रेटेजिक लोकेशन्स पर गुजारा है जहां जीवन जीना आसान नहीं। मुश्किल परिस्थितियों से एकाकार होते हुये उनका यह एकाकीपन पाठकों को सहज ही आकर्षित करता है-
फुरसत मिले अगर तेरी यादों से इक ज़रा
तब तो कहूँ कि ‘हाय रे फ़ुरसत नहीं मुझे‘।
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लुफ़्त अब देने लगी है ये उदासी भी मुझे
शुक्रिया तेरा कि तूने जो किया, अच्छा किया।
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लिखती हैं क्या क़िस्से कलाई की खनकती चूड़ियाँ
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो
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सुलगी चाहत, तपती ख़्वाहिश, जलते अरमानों की टीस
एक बदन दरिया में मिलकर सब तूफ़ान उठाते हैं।
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’पाल ले एक रोग नादाँ.........’ गौतम की उन कजरारी यादों का एक संकलन है, जिन्हें वे तमाम दुर्गम परिस्थितयों के बीच भी ग़ुनगुनाना नहीं भूलते। यही गुनगुनाहट ग़ज़लों का रूप धर लेती है-
सुलगती हुई उम्र की धूप में
यूँ ही ज़िन्दगी सांवली होती है।
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छू लिया उसने ज़रा मुझको तो झिलमिल हुआ मैं
आस्माँ ! तेरे सितारों के मुक़ाबिल हुआ मैं।
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काँपती रहती हैं कोहरे में ठिठुरती झुग्गियाँ
धूप महलों में न जाने कब से है अटकी हुई।
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होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्ठी में घर आई इरी इन वर्दियों से पूछ लो।
मजमूअे के कवर पेज से ही एक आकर्षण पाठकों को अपनी ओर खींचने लगता है। ज़ाहिर है कि मुख पृष्ठ पर सिगरेट और धुएँ का श्वेत श्याम तस्वीर पाठकों के चिंतन को धधकाने और सुलगने के लिए प्रेरित करती है। इस कलेवर के लिए प्रकाशक और इलस्ट्रेटर टीम को बधाई देनी होगी। कई मर्तबा महसूस होता है कि सिगरेट के धुंओं के छल्ले में फंसी तमाम फ़िक्रों का नाम ही है ’पाल ले इक रोग नादाँ.....।’ अनेकानेक शेरों में प्रयोग किये गये कुछ अल्फ़ाज़ गौतम की नितान्त अपनी क्रियेटिविटी का नमूना हैं-
इक तो तू भी साथ नहीं है, ऊपर से ये बारिश उ़फ
घर तो घर, सारा-का-सारा द़फतर नीला-नीला है।
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उबासी लेते सूरज ने पहाड़ों से जो माँगी चाय
उमड़ते बादलों की केतली फिर खौलती उट्ठी।
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धूप शावर में जब तक नहाती रही
चाँद कमरे में सिगरेट पीता रहा।
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है चढ़ने लगी फिर से ढलती हुई उम्र
तेरी शर्ट ये जा़फ़रानी कहे है।
बहरहाल गौतम की ग़ज़लों को पढ़ते हुये रगों में कभी सिहरन सी दौड़ जाती है तो कभी दिमागी नसें कुलबुलाहट करने लगती हैं। उनकी ग़ज़लों को पढ़ते वक्त यह अहसास होता है कि बर्फीली वादियों में चीड़ के पेड़ों के साये में सन्नाटे को तोड़ती हर आवाज सरहद पार से आने वाली जानलेवा गोलियों की आशंका से लिपटी हुई होती है, और इन्ही आवाजों के दरम्यिान कोई फ़ौजी जीवन के तमाम अहसासात को कुछ इस तरह अपनी जुबान दे रहा होता है-
रगों में गश्त कुछ दिन से
कोई आठों पहर दे है।
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एक सिगरेट-सी दिल में सुलगी कसक
अधजली, अधबुझी, अधफुकी ? हाँ वही।
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फोन पर बात तो होती है खूब यूँ
तिश्नगी फोन से कब बुझी ? हाँ वही।
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चीड़ के जंगल खडे थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से।
’पाल ले इक रोग नादाँ ज़िन्दगी के वास्ते......’ यूँ तो फिराक ने यह ग़ज़ल कोई चालीस-पैंतालीस साल पहले लिखी थी लेकिन गौतम ने इस मिसरे को इस कदर अपनी ग़ज़लों में जिया है कि यह मिसरा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का अभिन्न हिस्सा सा लगने लगा है-
अहमियत सन्नाटे की क्या है बगैर आवाज के
अब करो कुछ शोर यारों खामुशी के वास्ते
थोड़े आँसू भी निकलते हैं हँसी के वास्ते
’ पाल ले इक रोग नादाँ जिन्दगी के वास्ते’
शिवना प्रकाशन ने कर्नल गौतम की इस कृति को पाठकों के सामने लाकर न केवल मनन बल्कि गर्व करने का अवसर भी दिया है कि कश्मीर और ऐसे ही अनेकानेक दुर्गम स्थलों पर देश की रक्षा में अपने जीवन को दाँव पर लगाने वाले सैनिकों के साहस में कहीं न कहीं मासूम सी भावनाएं भी होती हैं। इन भावनाओं को वे बेशक अभिव्यक्त न कर पाते हों मगर उन्हें भावशून्य नहीं माना जा सकता। गौतम की ग़ज़लें सिर्फ एक सैन्य अफसर की रचनाऐं नही हैं, दरअसल वे भारतीय सेना की उन धड़कनों की आहटें हैं जो बेशक अभिव्यक्त नही हैं लेकिन महसूस करिये तो वे आपकी धड़कनों के साथ हमआहंग हो जाती हैं।
डा0 राहत इन्दौरी के लफ़्जों में गौतम की ग़ज़लों में शुरू से आखिर तक एक उदासी की फ़जा पसरी हुयी है और इस रूमानी उदासी से ग़ज़ल का आँगन महक रहा है। मुनव्वर राना की यह बात भी यहां उल्लेखनीय है कि कश्मीर के ब़र्फीले पहाड़ से आईं ये ग़ज़लें अपनी नज़ाकत और अपने नये लह़जे से जहाँ एक ओर हैरान करती हैं, वहीं दूसरी ओर बहुत आश्वस्त भी करती हैं कि ग़ज़़ल हमारे बाद की पीढ़ी के सशक्त हाथों में महफूज़ है।
कुछ करवटों के सिलसिले, इक रतजगा ठिठका हुआ
मैं नींद हूँ उचटी हुई, तू ख़्वाब है चटका हुआ।
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