फ़रवरी 15, 2012

शहरयार का जाना....... !!!


इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक्त
अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के।

सुबह अखबार पढना शुरू ही किया था कि फिर एक खबर ने सुबह को बेरंग कर दिया........... "शहरयार नहीं रहे" उन्वान छोटा था मगर खबर बड़ी थी. तीर की तरह खबर दिल को वेध गयी.......! शहरयार का जाना किसी ऐसे वैसे का जाना नहीं है उर्दू अदब से एक स्तम्भ का जाना है......! पिछले साल उन्हें 2008 के साहित्य के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया था. हिंदी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के सिरीफ़ोर्ट ऑडिटोरियम में हुए 44वें ज्ञानपीठ समारोह में उन्हें ये पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था कि शहरयार सही मायने में आम लोगों के शायर रहे हैं. कल यह आम लोगों का यह शायर कितनी ख़ामोशी से विदा हो गया.

76 साल के 'शहरयार' का निधन अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर रात आठ बजे हुआ. शहरयार साहब फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे.

अजीब सानेहा मुझ पर गुजर गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो

हर एक नक्श
तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ग़म
मेरे दिल का भर गया यारो

भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो

जैसी ग़ज़ल कहने वाले शहरयार का असली नाम अखलाक मोहम्म्द खान था मगर वे शहरयार के नाम से ही जाने जाते रहे. शहरयार लंबे समय से बीमार चल रहे थे और ब्रेन ट्यूमर के शिकार थे. शहरयार 6 जून, 1936 को आंवला (बरेली ) में पैदा हुए वैसे कदीमी रहने वाले वह बुलन्दशहर के थे. वालिद पुलिस में थे, चाहते थे बेटा भी पुलिस में जाए, मगर बेटे के मन में तो कुछ और ही लिखा था. शहरयार ने ए0एम0यू0 अलीगढ़ में दाखिला लिया , 1961 में उर्दू से एम00 किया और फिर यहीं के होकर रह गए. विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू -मुअल्ला के सेक्रेटरी और अलीगढ़ मैगजीन के सम्पादक बना दिए गए. इसके साथ ही वे अपने जीवन मेंगा़लिब,’ ’शेर-ओ-हिकमत औरहमारी जबाननामक रिसालों से भी जुड़े रहे. 1966 में शहरयारर उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए. 1965 में पहला मजमुआ 'इस्में-आजमप्रकाशित हुआ. 1969 में दूसरा मजमुआ सातवां दर प्रकाशित हुआ. इसके बाद हिज्र के मौसम’ (1978),ख्याल का दर बन्द है (1985) ,नींद की किरचें(1995) छपे. शहरयार उर्दू के चौथे साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. शहरयार को 1987 में उनकी रचना ''ख़्वाब के दर बंद हैं'' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. उर्दू शायरी ने देश की बदलती परिस्थितियों को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है जिसमें शहरयार की क़लम का भी अहम योगदान रहा है. देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं. वे कहते भी थे कि देश और दुनिया में जो बदलाव हुए हैं वो सब किसी न किसी रूप में उर्दू शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं और वो उनकी शायरी में भी नज़र आता है.

उनके साथ निजी जिंदगी में कुछ अप्रिय स्थितियां जरूर साथ में रहीं. हमसफर के साथ राहें अलग हो गयीं, तीनों बच्चे बड़े होकर अपने कारोबार में रम गए. शहरयार तन्हा अलीगढ में रहते रहे, तन्हाई का यही अहसास उनके शेरो- सुखन में दर्ज भी होता रहा. शहरयार की शायरी न तो इंकलाबी है न क्रांतिकारी और न ही किसी व्यवस्था के प्रति अलम.सदा अल्फाजों में उनकी शायरी बेहद सहजता से बड़ी से बड़ी बात कह जाती है. शहरयार ने मुश्किल से मुश्किल बात को आसान उर्दू में बयां किया क्योंकि वो मानते थे कि जो बात वो कहना चाहते हैं वो पढ़नेवाले तक सरलता से पहुंचनी चाहिए.

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या
तमाम ख़ल्क़े ख़ुदा इस जगह रुके क्यों हैं
यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहां रात का नहीं है क्या

जैसे गीतों के माध्यम से फ़िल्मी दुनिया में अपनी मुकम्मल पहचान बनाने वाले शहरयार हमेशा कहते रहे कि मैं फ़िल्म में अपनी अदबी अहमियत की वजह से और अब अदब में मेरा ज़िक्र फ़िल्म के हवाले से किया जाता है. शहरयार ने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे जो बेहद लोकप्रिय हुए. हालांकि वो ख़ुद को फ़िल्मी शायर नहीं मानते. उनका कहना था कि अपने दोस्त मुज़फ़्फ़र अली के ख़ास निवेदन पर उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने लिखे. शहरयार के छ: से ज्यादा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन सहित कई फिल्मों के गीत भी लिखे। वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर और उर्दू के विभागाध्यक्ष रहे थे. उनकी कुछ प्रमुख कृतियों में ख्वाब का दर बंद है’, ‘शाम होने वाली है’, ‘मिलता रहूंगा ख्वाब मेंशामिल हैं.

1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया. वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए. शहरयार ने गमन और आहिस्ता- आहिस्ता आदि कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखे लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लोकप्रियता 1981 में बनी फ़िल्म 'उमराव जान' से मिली. शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक़ सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. शहरयार की अब तक तक़रीबन दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी है. अकेलेपन की बेबसी उनकी शायरी में भी दिखती है..

कोई नहीं जो हमसे इतना भी पूछे

जाग रहे हो किसके लिए, क्यों सोये नहीं

दुख है अकेलेपन का, मगर ये नाज भी है

भीड़ में अब तक इंसानों की खोये नहीं

इस महान शायर को श्रद्धांजलि देते हुए और अदब में उनके योगदान को याद करते हुए उनके चंद शेर पेश हैं.

जिन्दगी जैसी तवक्का थी नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछडे़ लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है
, यक़ीं कुछ कम है

*****

तेज आंधी में अंधेरों के सितम सहते रहे
रात को फिर भी चिरागों
से शिकायत कुछ है

आज की रात मैं घूमूँगा
खुली सड़कों पर
आज की रात मुझे ख़्वाबों से फुरसत कुछ है

*****

शबे -ग़म क्या करें कैसे गुज़ारें
किसे आवाज़ दें
,किसको पुकारें

सरे-बामें-तमन्ना कुछ नहीं है
किसे आँखों से इस दिल में उतारें

वही धुंधले से नन्हे-नन्हे साये
वही सूनी सिसकती रहगुज़ारें