कुछेक बरस पहले जब मैं अकादमी की ट्रैनिंग में था... तो लाइब्रेरी जाने का कार्य ’रूटीन’ हो गया था. बुक शेल्फस को खंगालना और कुछ अपनी रूचि की किताबों को छांटना, घर पर लाना, पढना और उन पर अपनी टीका टिप्पणियां करना....यह भी उसी रूटीन वर्क का ही हिस्सा थे. ऐसे ही किसी रोज जब मैं बुक शेल्फस में किताबों को उलट-पुलट रहा था तो एक किताब मुझे ’दावत’ देती हुई लगी. इस किताब का आकार सामान्य से थोडा भिन्न था ,आम डिमाई साइज से अलग वर्गाकार 'आमीन' अपनी सभी सहेली किताबों से कुछ आगे निकली हुई थी ऐसा लगा कि जैसे वह किताब आगे बढकर मुझे बुला रही हो... बहरहाल मैने भी यह दावतनामा बगैर देरी के स्वीकार कर लिया, किताब को शेल्फ से निकाला और अपने नाम इश्यू करा ली. किताब का नाम था ’आमीन’ और किताब के शायर थे’ आलोक श्रीवास्तव’.
तब तक आलोक श्रीवास्तव का नाम मैने सुना भी नहीं था, परन्तु 'आमीन' का प्रस्तुतिकरण इनता ’कैची’ था कि मैं एक बार पढ़ने बैठा तो तभी उठा जब पूरी किताब को पढ़ डाला. 'आमीन', लगभग 80-90 गजल ,नज्म और दोहों का ऐसा मजमुआ था कि दिल को छू गया . एक से एक नगीना शेर , सूफ़ियाना दोहे और बेहतरीन नज़्में .......! यहीं से आलोक श्रीवास्वत का मैं प्रशंसक हो गया।
उनसे मिलने का अवसर मिला बदायूं में..... जब बदायूं महोत्सव में वे आमंत्रित थे और उन्होंने वहाँ मेरी पसदीदा ग़ज़ल पढी. इसके बाद मैनपुरी मुशायरे (संयोजक-ह्रदेश सिंह) में उनसे फिर से मुलाकात हुई और सुनने का अवसर मिला...!
चूँकि आलोक श्रीवास्तव नॉएडा में ही रह रहे हैं सो कल अचानक मैं उनके घर पहुँच गया....... उनकी धर्मपत्नी ने शानदार डिनर कराया. इस दौरान आलोक को शाम उनके घर पर बैठकर सुनने और उनके साथ दुनियावी बातों को सिलसिला चला तो तीन-चार घन्टे तके चलता रहा...... समय का अन्दाजा तब हुआ जब मेरी बेटी ने सुबह स्कूल जाने की बात याद दिलाई.
आलोक को मकबूलियत तो उनके ग़ज़ल मजमुए 'आमीन' से मिली मगर उससे पहले ही वे इस दिशा में काफी काम कर चुके थे....... नामचीन शेरों के कलामों के संकलन का सम्पादन उन्होंने किया है. अली सरदार जाफरी की 'नई दुनिया को सलाम', निदा फाजली की 'हम कदम' और बशीर बद्र की 'अफेक्सन' और 'लास्ट लगेज' जैसे बेहतरीन संकलनों का उन्होने संपादन किया है. आलोक के कुछ गीतों और ग़ज़लों को मखमली आवाज़ में गजल गायक जगजीत सिंह ने भी गाया है . शुभा मुदगल उर्दू के महान शायर 'फैज' की नज़्म के साथ उन्हें अपनी एलबम में पिरो चुकी हैं. आलोक को उनके पहले ग़ज़ल संग्रह 'आमीन' को जिस तरह हाथों हाथ लिया गया है वो अद्भुत है. सामान्यत: किसी कृति को हाथों हाथ लेने की परंपरा अब नहीं रही......! इस कृति को बहुत से सम्मान भी मिले हैं जिनमें ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान 2009 , मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का दुष्यन्त कुमार परस्कार 2007, भगवत शरण चर्तुवेदी पुरस्कार और हेमन्त स्मृति कविता सम्मान प्रमुख हैं ...... इस वर्ष का रूस का 'पुश्किन अवार्ड' भी इसी कृति के खाते में जुड चुका है जिसे लेकर वे हाल ही में वे मास्को से लौटे हैं .
दरअसल आलोक गजल की नई तहजीब में इजाफा करने वाली फेहरिस्त में आगे की पंक्ति में खड़े नज़र आते हैं.........आलोक की ग़ज़लों के कई शेरों में प्रभावित करने का जबरदस्त माद्दा है.उनका यह शेर " घर में झीने रिश्ते मैंने लाखो बार उधड़ते देखे/ चुपके-चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा" उनके लिखने और लिखने में उनके एहसासों को बयां करता है. रिश्तों के मर्म और महत्व को गजलो में पिरोने का अदभुत कौशल उनमें है. 30 दिसम्बर 1971 को शाजापुर(म0प्र0) मे जन्मे आलोक के जीवन का एक बडा हिस्सा विदिशा में गुजरा..... विदिशा से उन्हें कितना लगाव है यह उनके घर की नमकीनें (दालमोठ-सेव) बताती हैं.विदिशा से हिन्दी में एम0ए0 करने के बाद मुम्बई की खाक छानी ...... मुम्बई रास नही आया तो विदिश लौट आये रामकृष्ण प्रकाशन का प्रबन्धन, सपांदन संभाला.......छह वर्षो में डेढ सौ से ज्यादा साहित्यिक कृतियो को अपनी देखरेख में प्रकाशित किया....... उसके बाद कुछ समय दैनिक भास्कर में पत्रकारिता की. इन दिनो वे दिल्ली में एक बड़े टीवी चैनल में प्रोडयूसर भी हैं.
कमलेश्वर जी ,गुलज़ार साहब , नामवर सिंह, कन्हैया लाल नंदन, यश मालवीय जैसे नामचीन हस्तियों का दुलार लूटने वाले आलोक को उनकी रचनाशीलता के लिये सलाम! यह सलाम इसलिये भी कि एक ऐसे दौर में जब स्टेज ने गजल को बहुत ही सतही और कारोबारी बना दिया है तो ऐसे में गंभीर रचनाए करना वाकई चुनौती है और इस चुनौती को आलोक न बड़ी मजबूती से स्वीकार किया है.
आलोक के विषय में मेरा अब लिखना ठीक नहीं.... मैं सीधे उनके कलाम पर आता हूँ. महसूस करिए इस शायर की संवेदनाओं को और उनकी जीवन के मर्म समझने की अदा को.....-
ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का,
यही संभाल के पहना,यहीं उतार चले।
और
भौचक्की है आत्मा, सांसे भी हैरान,
हुक्म दिया है जिस्म ने, खाली करो मकान,
आँखो में लग जाये तो, नाहक निकले खून,
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून।
गुलज़ार साहब भी आलोक की इस अदा के मुरीद हैं . गुलजार ने उनके संग्रह की भूमिका में लिखा भी है ‘‘ आलोक एक रौशन उ़फ़क पर खडा है, नए उ़फ़क खोलने के लिये.’’
उनके दोहे कहने का अंदाज़ तो देखिये-
माँ बेटे के नेह में, एक सघन विस्तार,
ताजमहल की रूह में, जमना जी का प्यार।
वास्तव में आलोक श्रीवास्तव ऐसे युवा गजलकार हैं ,जिनके लेखन में एक अद्भुत जादू है जो पाठक को अपनी और खींचता है... भींचता है. उनकेअंदाज़ में न कठिन लफ्जो का जंजाल न झूटी काफ़िया पैमाई. सब कुछ एक दम सीधा-सादा-सच्चा सुव्यवस्थित सा....! उनकी गजलो की भाषा खालिस हिन्दुस्तानी है. वे कहते है कि मैं जिस जबान में बोलता बतियाता हूँ उसी जबान में गजले कहने की कोशिश करता हूँ.
आलोक रिश्तों को जीते है, उन्हे भोगते है और भोगने के एहसासो को कविता और शेरों में परोसते है. भारतीय परंपरा में हर रिश्ते का का अपना अलग स्वाद है , मिजाज है.... और आलोक इस मिजाज को और भी बखूबी बयाँ करते है.
सारा बदन हयात की खुशबू से भर गया,
शायद तेरा ख्याल हदों से गुजर गया,
किसका ये रंग रूप झलकता है जिस्म से,
ये कौन है जो मेरे लहू में उतर गया।
या फिर
जाने क्यों मेरी नीदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गयी है, सपनो की बारातें सच.
वही आंगन, वही खिड़की , वही दर याद आता है,
मैं जब भी तन्हा होता हूँ, मुझे घर याद आता है,
सफलता के सफर में तो कहाँ फुर्सत के, कुछ सोचें,
मगर जब चोट लगती है, मुकद्दर याद आता है,
मई और जून की गर्मी, बदन से जब टपकती है,
नवबर याद आता है, दिसम्बर याद आता है,
वाह ! क्या अन्दाजे बयाँ है और क्या गुफ़्तगू है।
आलोक ने सबंधो की भावभूमि पर बेहतरीन शेर कहे है जिनमें यकीनन निजता का स्पर्श है. अंत में लीजिये उनकी दो ग़ज़लें जो मुझे बेहद पसंद है पेश कर रहा हूँ .....यक़ीनन आपको भी पसंद आयेंगीं -
घर की बुनियादी दीवारें , बामोदर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबूजी।
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घर में झीने रिश्ते मैने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके -चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा,
सारे रिश्ते जेठ दुपहरी गर्म हवा आतिश अंगारे,
झरना , दरिया, झील, समुंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा।
बाबूजी गुजरे, आपस में सब चीजे तक्सीम हुई, तब
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा।
आलोक के सरोकार संजीदा है. उनकी गजलों की रूह में मुहब्बत के चिराग जलते हैं, उन्होंने चहलकदमी करते हुए शायरों की दुनिया में कदम रखा है मगर उनके क़दमों का आत्मविश्वास बता रहा है की ये कदम अब ठिठकने वाले नहीं.......... "आमीन" !!!!!