अक्तूबर 28, 2012
"तू हर इक पल का शाइर है ........."- श्रद्धांजलि यश चोपड़ा को !
सितंबर 22, 2012
किया सब उसने सुन कर अनसुना क्या
वो खुद में इस क़दर था मुब्तिला क्या
मैं हूँ गुज़रा हुआ सा एक लम्हा
मिरे हक़ में दुआ क्या बद्दुआ क्या
किरन आयी कहाँ से रौशनी की
अँधेरे में कोई जुगनू जला क्या
मुसाफ़िर सब पलट कर जा रहे हैं
‘यहाँ से बंद है हर रास्ता क्या’
मैं इक मुद्दत से ख़ुद में गुमशुदा हूँ
बताऊँ आपको अपना पता क्या
ये महफ़िल दो धड़ों में बंट गयी है
ज़रा पूछो है किसका मुद्दु’आ क्या
मुहब्बत रहगुज़र है कहकशां की
सो इसमें इब्तिदा क्या इंतिहा क्या
अगस्त 16, 2012
भारत छोड़ो आन्दोलन और धानापुर !
जुलाई 24, 2012
स्वतंत्रता सेनानी 'कैप्टन लक्ष्मी सहगल' को शत शत नमन !
कल महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज की कैप्टन लक्ष्मी सहगल का कानपुर में 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया. उनका जीवन संघर्ष और मानव सेवा की अद्भुत मिसाल है. एक स्त्री होते हुए भी स्वतंत्रता संग्राम में औपनिवेशिक शक्तियों से मुकाबला करने से लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक दीन - दुखियों की चिकित्सा करने तक, उनके व्यक्तित्व को नयी आभा देते हैं.
1912 में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में जन्मी लक्ष्मी सहगल ने मेडिकल डिग्री हासिल की और उसके बाद सिंगापुर में गरीबों के लिए वर्ष 1940 में एक क्लीनिक की स्थापना की थी. जुलाई 1943 में जब सिंगापुर में सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट का गठन किया जिसका नाम वीर रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में झांसी की रानी रेजिमेंट रखा गया. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अटूट अनुयायी के तौर पर वे इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हुईं. अक्तूबर 1943 को डॉ0 लक्ष्मी स्वामिनाथन 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट में कैप्टेन पद की सैनिक अधिकारी बन गयीं. बाद में उन्हें कर्नल का पद मिला तो वे एशिया की पहली महिला कर्नल बनीं. बाद में वे आज़ाद हिन्द सरकार के महिला संगठन की संचालिका भी बनीं. वे 1943 में अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं. आज़ाद हिंद फ़ौज की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सैनिकों की धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया. लक्ष्मी सहगल ने 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर आकर बस गईं. आज़ादी के बाद उनके संघर्ष का स्वरुप बदला और वे वंचितों की सेवा में लग गईं.
वे बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हो गई थीं और जब महात्मा गाँधी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो लक्ष्मी सहगल ने उसमे हिस्सा लिया. एक डॉक्टर की हैसियत से वे सिंगापुर गईं थीं लेकिन अपनी अंतिम सांस तक वे अपने घर में बीमारों का इलाज करती रहीं. भारत सरकार ने उन्हें 1998 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया. जीवन के वैभव को त्याग कर दलितों, शोषितों, मेहनतकशों, उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के लिए जीने मरने वाली लक्ष्मी सहगल ने लाखों लोगों को स्वास्थ्य, सुरक्षा, साहस व आत्मविश्वास की सीख दी. कानपुर में उन्होंने दंगों के दौरान दोनों संप्रदायों- समुदायों को समझाने का काम किया. दंगो के दौरान घायलों का इलाज करके मानवता की मिसाल पेश की.
इस महान स्वतंत्रता सेनानी को शत शत नमन !
जून 18, 2012
लावा के मार्फ़त जावेद अख्तर की वापसी.... !
अपने अदबी प्रशसंकों को ध्यान में रखकर ही जावेद साहब ने ‘लावा’ को पेश किया है। वे ये खूब जानते हैं कि अदब की महफिल में हल्कापन नहीं चल सकता सो उन्होंने ‘लावा’ के जरिए वाकई जांची-परखी चीजें परोसी हैं। वे इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘शायरी तो तब है कि जब इसमें अक्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया है। इसमें असंगति है मगर ‘‘बेखु़दी-ओ-हुशियारी ,सादगी-ओ-पुरकारी,ये सब एक साथ दरकार हैं।’’ तो जाहिर है कि शाइर अपनी जिम्मेदारी से वाकि़फ़ है। के साथ बनाये हुए हैं। जावेद साहब ये भी जानते हैं कि कौन सी चीज ‘पब्लिक’ को पसंद आती है और कौन सी चीज ‘अदबी’ लोगों को ।
जून 13, 2012
मेहदी साहब - अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले...!
- गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले
- आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
- पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
- तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ
- मुहब्बत करने वाले
- रफ्ता रफ्ता
- भूली बिसरी चंद उम्मीदें
- अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले
- मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
- हर दर्द को ए जाँ मैं सीने में सामा लूं
- रोशन जमाल ए यार से हैं
- भूली बिसरी चाँद उम्मीदें
- गुंचा ए शौक लगा है
- रंजिश ही सही
- चरागे तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
- प्यार भरे दो शर्मीले नैन
- दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है
- वो दिल नवाज़ है
- आज वो मुस्कुरा दिया
- जब आती है तेरी याद
- मैं नज़र से पी रहा हूँ
- ये मोजिज़ा भी मुहब्बत कभी
- दिल की बात लबों पे लाकर
- दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
- दायम पड़ा हुआ हूँ
- मुब्हम बात पहेली जैसी
- एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा
- एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाकी है
- शोला था जल बुझा हूँ
- ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
- उसने जब मेरी तरफ प्यार से देखा होगा
- किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
- मैं ख्याल हूँ किसी और का
- राजस्थानी लोक गीत पधारो म्हारे देश
- जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
- तूने ये फूल जो जुल्फों में लगा रखा है
अप्रैल 24, 2012
बाय बाय नोयडा....!
हाइवे पर दौड़ते वाहन |
अलका याग्निक के साथ |
पुस्तक मेले में वाबस्ता |
मार्च 22, 2012
20वें विश्व पुस्तक मेले में ‘वाबस्ता’ का लोकार्पण !
एक मुद्दत से ब्लॉग पर अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाया। दरअसल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव में लगातार प्रशासनिक व्यस्तता के चलते ब्लॉग की गलियों से गुजरना जरा कम ही हो पाया।
इसी बीच दिल्ली के २०वे विश्व पुस्तक मेले में मेरी ग़ज़लों/नज़्मों के संग्रह ‘वाबस्ता’ का लोकार्पण भी हुआ। ऐसे विश्व पुस्तक मेले में जहाँ देश विदेश के हजारों प्रकाशक जमा हुये हों और सैकडों नामचीन-गैर नामचीन लेखकों की रचनाओं का लोकार्पण हुआ हो उस माहौल में मेरी पहली कृति का आना मेरे लिये सुकून की बात रही। ‘वाबस्ता’ का प्रकाशन, 'प्रकाशन संस्थान -दिल्ली' द्वारा किया गया है। लगभग आयताकार डिजायन वाली इस कृति का आवरण पृष्ठ देश के प्रख्यात चित्रकार डा0 लाल रत्नाकर जी ने तैयार किया है। इस मजमुऐ को सामने लाने में यूँ तो कई करीबी लोगों का आशीर्वाद और मेहनत साथ रही लेकिन फिर भी इस अवसर पर बेतरबीब से पड़े काग़जों को मज़मूए की शक्ल में आप तक लाने में अनुज पंकज (जो आजकल व्यापार कर में उप-आयुक्त हैं), हृदेश (हिन्दुस्तान में सह संपादक), पुष्पेन्द्र, श्यामकांत को भी मैं ज़हृन में लाना चाहूँगा , जिनके बगै़र यह मज़मूआ आना मुमकिन न था।
मेरे जैसे व्यक्ति के लिये ‘वाबस्ता’ के जरिये दरबारे ग़ज़ल में ठिठके हुये कदमों से अपनी आमद की कोशिश भर है। शुक्रगुजार हूं उर्दू अदब की अजीम शख्सियत जनाब शीन काफ़ निज़ाम का जिन्होंने मेरे जैसे नवोदित रचनाकार के प्रथम प्रकाशित संग्रह पर भूमिका लिखकर मेरी हौसला अफजाई की है। गुजरे आठ-दस बरसों में मैं जो कुछ भी अच्छा बुरा कह सका उनमें से कुछ चुनिन्दा ग़ज़लों/नज़्मों को इस संग्रह के माध्यम से आप सब के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मेरी इन ग़ज़लों/नज़्मों को उस्ताद शाइर जनाब अकील नोमानी की नजरों से गुजरने का भी मौका मिला है। मैं वाबस्ता के प्रकाशन के अवसर पर अपने सभी शुभ चिन्तकों को शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने मुझे इतना स्नेह दिया कि मैं इस संग्रह को प्रकाशित करने की हिम्मत जुटा सका। मैं जनाब शीन काफ़ निजा़म, जनाब मोहम्मद अलवी, प्रो. वसीम बरेलवी, श्री शशि शेखर, जनाब अक़ील नोमानी, श्री हरीशचन्द्र शर्मा जी, श्री अतुल महेश्वरी , डॉ . लाल रत्नाकर, श्री कमलेश भट्ट ‘कमल’, श्री विनय कृष्ण ‘तुफै़ल’ चतुर्वेदी के अलावा मैं अपने माता पिता-पत्नी का दिल की गहराईयों से आभार प्रकट करता हूँ कि जिनकी मदद से मैं यह संग्रह आप सबके समक्ष पेश कर सका। इस संग्रह की एक ग़ज़ल आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ-
इश्क में लज़्ज़ते मिला देखूँ
उससे करके कोई गिला देखूँ
कुछ तो ख़ामोशियां सिमट जाएँ
परदा-ए-दर को ही हिला देखूँ
पक गए होंगे फल यकीनन अब
पत्थरों से शजर हिला देखूँ
जाने क्यूँ ख़ुद से ख़ौफ लगता है
कोई खंडर सा जब कि़ला देखूँ
इस हसीं कायनात बनती है
सारे चेहरों को जब मिला देखूँ
कौन दिल्ली में ‘रेख़्ता’ समझे
सबका इंगलिस से सिलसिला देखूँ
बैठ जाऊँ कभी जो मैं तन्हा
गुजरे लम्हों का का़फि़ला देखूँ
(**** हिंदी समाचारपत्र हिन्दुस्तान ने वाबस्ता पर एक समीक्षात्मक लेख प्रकाशित किया है जो यहाँ पढ़ा जा सकता है http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-227149.html )
फ़रवरी 15, 2012
शहरयार का जाना....... !!!
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के।
सुबह अखबार पढना शुरू ही किया था कि फिर एक खबर ने सुबह को बेरंग कर दिया........... "शहरयार नहीं रहे" उन्वान छोटा था मगर खबर बड़ी थी. तीर की तरह खबर दिल को वेध गयी.......! शहरयार का जाना किसी ऐसे वैसे का जाना नहीं है उर्दू अदब से एक स्तम्भ का जाना है......! पिछले साल उन्हें 2008 के साहित्य के ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया था. हिंदी फ़िल्मों के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के सिरीफ़ोर्ट ऑडिटोरियम में हुए 44वें ज्ञानपीठ समारोह में उन्हें ये पुरस्कार प्रदान करते हुए कहा था कि शहरयार सही मायने में आम लोगों के शायर रहे हैं. कल यह आम लोगों का यह शायर कितनी ख़ामोशी से विदा हो गया.
76 साल के 'शहरयार' का निधन अलीगढ़ स्थित अपने निवास पर रात आठ बजे हुआ. शहरयार साहब फेफड़े के कैंसर से पीड़ित थे.
अजीब सानेहा मुझ पर गुजर गया यारो
मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो
हर एक नक्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ग़म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो
जैसी ग़ज़ल कहने वाले शहरयार का असली नाम अखलाक मोहम्म्द खान था मगर वे शहरयार के नाम से ही जाने जाते रहे. शहरयार लंबे समय से बीमार चल रहे थे और ब्रेन ट्यूमर के शिकार थे. शहरयार 6 जून, 1936 को आंवला (बरेली ) में पैदा हुए वैसे कदीमी रहने वाले वह बुलन्दशहर के थे. वालिद पुलिस में थे, चाहते थे बेटा भी पुलिस में जाए, मगर बेटे के मन में तो कुछ और ही लिखा था. शहरयार ने ए0एम0यू0 अलीगढ़ में दाखिला लिया , 1961 में उर्दू से एम0ए0 किया और फिर यहीं के होकर रह गए. विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू -मुअल्ला के सेक्रेटरी और अलीगढ़ मैगजीन के सम्पादक बना दिए गए. इसके साथ ही वे अपने जीवन में’ गा़लिब,’ ’शेर-ओ-हिकमत ’ और ’हमारी जबान’ नामक रिसालों से भी जुड़े रहे. 1966 में शहरयारर उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए. 1965 में पहला मजमुआ 'इस्में-आजम’ प्रकाशित हुआ. 1969 में दूसरा मजमुआ ’ सातवां दर ’ प्रकाशित हुआ. इसके बाद ’हिज्र के मौसम’ (1978),ख्याल का दर बन्द है (1985) ,नींद की किरचें(1995) छपे. शहरयार उर्दू के चौथे साहित्यकार हैं, जिन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. शहरयार को 1987 में उनकी रचना ''ख़्वाब के दर बंद हैं'' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. उर्दू शायरी ने देश की बदलती परिस्थितियों को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है जिसमें शहरयार की क़लम का भी अहम योगदान रहा है. देश, समाज, सियासत, प्रेम, दर्शन - इन सभी को अपनी शायरी का विषय बनाने वाले शहरयार बीसवीं सदी में उर्दू के विकास और उसके विभिन्न पड़ावों के साक्षी रहे हैं. वे कहते भी थे कि देश और दुनिया में जो बदलाव हुए हैं वो सब किसी न किसी रूप में उर्दू शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं और वो उनकी शायरी में भी नज़र आता है.
उनके साथ निजी जिंदगी में कुछ अप्रिय स्थितियां जरूर साथ में रहीं. हमसफर के साथ राहें अलग हो गयीं, तीनों बच्चे बड़े होकर अपने कारोबार में रम गए. शहरयार तन्हा अलीगढ में रहते रहे, तन्हाई का यही अहसास उनके शेरो- सुखन में दर्ज भी होता रहा. शहरयार की शायरी न तो इंकलाबी है न क्रांतिकारी और न ही किसी व्यवस्था के प्रति अलम.सदा अल्फाजों में उनकी शायरी बेहद सहजता से बड़ी से बड़ी बात कह जाती है. शहरयार ने मुश्किल से मुश्किल बात को आसान उर्दू में बयां किया क्योंकि वो मानते थे कि जो बात वो कहना चाहते हैं वो पढ़नेवाले तक सरलता से पहुंचनी चाहिए.
“ तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीख़ों को सचमुच सुना नहीं है क्या
तमाम ख़ल्क़े ख़ुदा इस जगह रुके क्यों हैं
यहां से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या
लहू लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को
किसी को ख़ौफ़ यहां रात का नहीं है क्या ”
जैसे गीतों के माध्यम से फ़िल्मी दुनिया में अपनी मुकम्मल पहचान बनाने वाले शहरयार हमेशा कहते रहे कि मैं फ़िल्म में अपनी अदबी अहमियत की वजह से और अब अदब में मेरा ज़िक्र फ़िल्म के हवाले से किया जाता है. शहरयार ने उमराव जान, गमन, अंजुमन जैसी फ़िल्मों के गीत लिखे जो बेहद लोकप्रिय हुए. हालांकि वो ख़ुद को फ़िल्मी शायर नहीं मानते. उनका कहना था कि अपने दोस्त मुज़फ़्फ़र अली के ख़ास निवेदन पर उन्होंने फ़िल्मों के लिए गाने लिखे. शहरयार के छ: से ज्यादा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने उमराव जान, गमन, अंजुमन सहित कई फिल्मों के गीत भी लिखे। वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर और उर्दू के विभागाध्यक्ष रहे थे. उनकी कुछ प्रमुख कृतियों में ‘ख्वाब का दर बंद है’, ‘शाम होने वाली है’, ‘मिलता रहूंगा ख्वाब में’ शामिल हैं.
1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया. वह यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए. शहरयार ने गमन और आहिस्ता- आहिस्ता आदि कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखे लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लोकप्रियता 1981 में बनी फ़िल्म 'उमराव जान' से मिली. शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक़ सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. शहरयार की अब तक तक़रीबन दो दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी है. अकेलेपन की बेबसी उनकी शायरी में भी दिखती है..
कोई नहीं जो हमसे इतना भी पूछे
जाग रहे हो किसके लिए, क्यों सोये नहीं
दुख है अकेलेपन का, मगर ये नाज भी है
भीड़ में अब तक इंसानों की खोये नहीं
इस महान शायर को श्रद्धांजलि देते हुए और अदब में उनके योगदान को याद करते हुए उनके चंद शेर पेश हैं.
जिन्दगी जैसी तवक्का थी नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है
बिछडे़ लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यक़ीं कुछ कम है
*****
तेज आंधी में अंधेरों के सितम सहते रहे
रात को फिर भी चिरागों से शिकायत कुछ है
आज की रात मैं घूमूँगा खुली सड़कों पर
आज की रात मुझे ख़्वाबों से फुरसत कुछ है
*****
शबे -ग़म क्या करें कैसे गुज़ारें
किसे आवाज़ दें,किसको पुकारें
सरे-बामें-तमन्ना कुछ नहीं है
किसे आँखों से इस दिल में उतारें
वही धुंधले से नन्हे-नन्हे साये
वही सूनी सिसकती रहगुज़ारें