जून 30, 2011

किलबरी के जंगल की यात्रा.....!!!!!
























पिछला रविवार बड़े मजे का बीता...... लगातार सरकारी काम-काज के बोझ से मन एकदम उचट चुका था, मन हो रहा था किसी शांत -प्राकृतिक सुरम्य वातावरण में एकाध दिन बिताया जाए. परिवार का भी कहीं बाहर चलने का दबाव था.... शनिवार -रविवार का अवकाश लिया (सरकारी मकहमे वाले जानते ही होंगे कि अवकाश ले पाना कितना मुश्किल काम होता है).......!





महज़ दो दिनों में कहीं बहुत दूर जाना मुमकिन नही था सो तय हुआ कि नैनीताल चला जाये......... पास के पास और भरपूर मज़े भी. ऐसा हुआ भी, वैसे भी नैनीताल से बहुत सी यादें मरासिम हैं. नौकरी में आने के बाद पहली बार ट्रेनिंग यहीं कि थी.....प्रशासनिक अकेडमी में, अंजू (अपनी धर्मपत्नी )से भी यहीं मुलाकात हुयी थी. इन्ही सब आकर्षणों के चलते नैनीताल चल दिए......बहरहाल इन दो दिनों का अवकाश का जबरदस्त इस्तेमाल हुआ. मैंने अपने साथी अधिकारी कौशल ‘नीरज‘ को साथ लिया और सपरिवार के साथ नैनीताल रवाना हो लिए. नैनीताल पहुंचे..... नैनीताल में वही मल्ली ताल, मॉल रोड, भीड-भाड, माहौल सब कुछ पुरानी यादें स्मरण करा रहा था. नैनीताल आकर मन प्रसन्न तो था पर तृप्त नहीं हुआ..... सब कुछ दोहराव सा लग रहा था. शनिवार शाम का डिनर ‘इम्बेसी‘ में लेते हुए यह तय किया गया कि नैनीताल को और ‘एक्सप्लोर‘ किया जाए....किसी ऐसी साइट पर चला जाए जो पहले देखी न हो. नक्शा उठाया तो चंद जगहें ऐसी दिखाई पड़ीं जिन पर जा सकने के लिए विचार-विमर्श हुआ..... कौशल का विचार था कि किसी ‘पीक‘ पर चला जाए तो अंजू-मीतू (नीरज की धर्म पत्नी) का मन माल रोड पर शापिंग का था.....मेरा मन भी किसी ‘पीक‘ पर जाने का था. चूंकि बच्चे साथ थे तो यह निर्णय हआ कि किसी ऐसी पीक पर चला जाए जहॉ गाडी से पहुंचा जा सके. अंततः सर्व सम्मति ‘किलबरी पीक‘ के लिए बनी. 'किलबरी पीक‘ अपने समृद्ध प्राकृतिक सम्पदा और मनोरम अवस्थिति के कारण जानी जाती है.... अंग्रेजों ने तो किलबरी के जंगलों को बहुत एन्जॉय किया है....!!!!!








रविवार प्रातः नैना देवी के मन्दिर के दर्शन करने के उपरान्त हम सब ‘इनोवा‘ में कैद हुए किलबरी के लिए निकल पड़े. इसी बीच बीती राज मैंने स्थानीय डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट आफीसर से बात कर ‘फारेस्ट गेस्ट हाउस‘ के लिए कह भी दिया था. नैनीताल से किलबरी लगभग 13किमी0 दूर है. हौले-हौले चलते हुए प्रकृति की गोद में तराई और भाभर क्षेत्रों वाले वातावरण का आनंद लेते हुए किलबरी तक का ये एक घण्टे का सफर बडा मजेदार रहा. पूरे रास्ते भर हम हिमालय श्रेणी के पर्वतो से सटकर चलते रहे. रास्ते भर 'ओक' और 'पाइन' के दरख़्त रहबरी सी करते रहे....अद्भुत फ्लोरा-फोना के बीच से चलते हुए किलबरी तक का यह सफर बहुत मनोरंजक रहा. बीच में रूक कर एकाध जगह चाय पी.....बच्चों ने ‘मैगी‘ ली.(इस मैगी में चन्द नूडल्स हमने भी चखे..... वैसे मैं आज तक यह नहीं समझ पाया हूं कि पहाडों पर ‘मैगी‘ इतनी अच्छी क्यूं लगती है). बहरहाल पॉच-छः कि.मी. के बाद रास्ता संकरा होता गया. रास्ते भर नए-नए किस्म के पेड-पौधों से साबका पडा. ऊँचे- ऊँचे पेड़ों के बीच झुरमटों के बीच चलने का अनुभव बहुत यादगार रहा. किलबरी अपने जंगल, वृक्षों, फ्लोरा-फौना, प्राकृतिक वातावरण और विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओ के लिए जाना जाता है. प्रकृति प्रेमियों के लिए यह जबरदस्त आकर्षण वाली जगह है. किलबरी में 600 से भी अधिक प्रकार की ‘बर्ड-स्पेशीज‘ पायी जाती है. ‘बर्ड-वाचिंग‘ के शौक़ीन रास्ते में ‘वाइनाकुलर‘ लिए दिखाई पडे. दो-तीन घण्टो के यत्र-तत्र भ्रमण के पश्चात् हम पहुंचे किलबरी के फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में.....इतनी ऊँचाई पर इतने खूबसूरत गेस्ट हाउस को देखकर प्रथम दृष्टया तो विश्वास हीं नहीं हुआ.








चूंकि हमारे आने की खबर गेस्ट हाउस के अटेण्डेण्ट को थी सो वह दौडकर आया, दरवाजा खोला, अन्दर ले गया. गेस्ट हाउस देखकर मन रोमांच से भर गया...... सौ साल से भी पुराने इस गेस्ट हाउस की साफ-सफाई ऐसी थी कि कुछ भी दस साल से ज्यादा पुराना नहीं लग रहा था. लकडी के धरनों पर टिकी हई छत, स्लोपदार छत, कमरे के अन्दर मजबूत लकडी का फर्नीचर, अलाव....सब कुछ मन को तृप्त कर देना वाला. इस ऊँचाई से हिमालय श्रेणी का दर्शन मन्त्रमुग्ध कर देने वाला था. चाय की चुस्कियों के बाद हम सबने खूब फोटोग्राफी की....1890 के एक फोटो की नकल कर हमने भी एक फोटो लिया (चस्पा भी किया गया है) !








2500मीटर से भी ज्यादा ऊँची इस चोटी पर रविवार का दिन बिताना एक यादगार यात्रा रही. प्रकृति की गोद में बैठकर बच्चों की तरह खेलने का यह आनन्द सदैव याद रहेगा. पता नहीं दुबारा आना कब होगा मगर यह सुनिश्चित है कि 'किलबरी के जंगलो' की यह यात्रा हमेशा हमेशा ज़ेहन में बनी रहेगी.

जून 22, 2011

......कुछ लोग हैं अब भी नगीने से !!


ये ज़िन्दगी है, इस ज़िन्दगी में हर आदमी को बहुत से लिबास बदलते रहने होते हैं.......! आम आदमी की बात करें तो उसे एक ही समय में बहुत से किरदार अदा करने पड़ते हैं.......! इसी बीच खुद को बचाए रखने कि ज़द्दोज़हद- कवायद भी चलती रहती है.......! अजीब सी कशमकश है ये, बहुत आसाँ नहीं होता अपने आपको बचाए रखना.......! जीवन में संतुलन बहुत ज़ुरूरी है, असल में होता यह है कि "एक को मनाऊँ तो दूजा रूठ जाता है.......! इन्ही सब हालात में इसी बेकसी और बेबसी को बयां करती एक ग़ज़ल हो गयी....... सोचा आप सबको पेश करूँ........!!! मुलाहिजा फरमाएं.....,

गुज़ारी ज़िन्दगी हमने भी अपनी इस करीने से,
पियाला सामने रखकर किया परहेज पीने से !!

अजब ये दौर है लगते हैं दुश्मन दोस्तों जैसे,
कि लहरें भी मुसलसल रब्त रखती हैं सफी़ने से !!

न पूछो कैसे हमने हिज्र की रातें गुजा़री हैं
गिरे हैं आँख से आँसू उठा है दर्द सीने से !!

यहाँ हर शख्स बेशक भीड़ का हिस्सा ही लगता है
मगर इस भीड़ में कुछ लोग हैं अब भी नगीने से !!

समझता खूब हूँ जा कर कोई वापस नहीं आता
मगर एक आस पर ज़िन्दा हूँ मैं कितने महीने से !!

रहें महरूम रोटी से उगायें उम्र भर फस्लें
मजा़क ऐसा भी होता है किसानों के पसीने से !!

कभी द़र्जी, कभी आया, कभी हाकिम बनी है माँ
नहीं है उज़्र उसको कोई भी किरदार जीने से !!

जून 10, 2011

हुसैन को याद करते हुए......!!!!

कल जब खबर आई कि मशहूर चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन नहीं रहे तो एक टीस सी उठी. वैसे मैं पेंटिंग्स के बारे में कोई बड़ा पारखी नहीं हूँ........ लेकिन जबसे होश संभाला तब से पेंटिंग्स के बारे में जब भी लिखा पढ़ा तो मक़बूल फ़िदा हुसैन का ज़िक्र ज़रूर आया. याद आया कि जब वर्ष 2000 में जब उनकी फिल्म 'गजगामिनी' रिलीज हुयी तो उत्सुकतावश मैंने भी यह फिल्म देखी, क्रिटिक्स ने इस फिल्म को कोई खास तवज्जो नहीं दी थी. मुझे भी कोई ख़ास नहीं लगी थी मगर उस वक्त भी इस फिल्म के बारे में मेरी यह पुख्ता राय थी कि इस फिल्म को यदि एक कलासृजक की भावनाओं से जुडकर देखने का एहसास रखा जाये तो फिल्म अच्छी लगेगी............. !!!! बहरहाल जो गुज़र गया सो गुज़र गया . एक कलाकार को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि........!

भारत के पिकासो कहे जाने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन का जन्म महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में 17 सितंबर 1915 को हुआ था. एमएफ़ हुसैन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 1940 के दशक के आख़िर में मिली. हुसैन 1940 के दशक के अंत से ही प्रसिद्धि पा चुके थे. वह 1947 में फ्रासिस न्यूटन सूजा द्वारा स्थापित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल हो गए. यह ग्रुप भारतीय कलाकारों के लिए नई शैलियाँ तलाशने और बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट द्वारा स्थापित परंपराओं को तोड़ने के इच्छुक युवा कलाकारों के लिए बनाया गया था. युवा पेंटर के रूप में एमएफ़ हुसैन बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करना चाहते थे. वर्ष 1952 में उनकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी ज़्यूरिख में लगी. उसके बाद तो यूरोप और अमरीका में उनकी पेंटिग्स की ज़ोर.शोर से चर्चा शुरू हो गई. वर्ष 1955 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया. वर्ष 1967 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म 'थ्रू आइज़ ऑफ़ पेंटर' बनाई. यह फ़िल्म बर्लिन फ़िल्म समारोह में दिखाई गई और फ़िल्म ने 'गोल्डन बीयर' पुरस्कार जीता.

वर्ष 1971 में साओ पावलो समारोह में उन्हें पाबलो पिकासो के साथ विशेष निमंत्रण देकर बुलाया गया .1973 में उन्हें पद्मभूषण और वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया. भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया . 92 वर्ष की उम्र में उन्हें केरल सरकार ने राजा रवि वर्मा पुरस्कार दिया. क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमरीकी डॉलर में बिकी. इसके साथ ही वे भारत के सबसे महंगे पेंटर बन गए . उनकी एक कलाकृति क्रिस्टीज की नीलामी में 20 लाख डॉलर में और 'बैटल ऑफ गंगा एंड यमुना- महाभारत 12' वर्ष 2008 में एक नीलामी में 16 लाख डॉलर में बिकी यह साउथ एशियन मॉडर्न एंड कंटेम्परेरी आर्ट की बिक्री में एक नया रिकॉर्ड था.हालाँकि एमएफ़ हुसैन अपनी चित्रकारी के लिए जाने जाते रहे किन्तु चित्रकार होने के साथ.साथ वे फ़िल्मकार भी रहे. मीनाक्षी, गजगामिनी जैसी फ़िल्में बनाईं. उनका माधुरी प्रेम भी ख़ासा चर्चा में रहा . शोहरत के साथ साथ विवादों ने भी उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. जहाँ फ़ोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें भारत का पिकासो घोषित किया वहीं वर्ष 1996 में हिंदू देवी.देवताओं की उनकी पेंटिग्स को लेकर काफ़ी विवाद हुआ, फलस्वरूप कई कट्टरपंथी संगठनों ने तोड़.फोड़ कर अपनी नाराजगी ज़ाहिर की .जब किसी ने उनसे पूछा कि आपकी चित्रकारी को लेकर हमेशा विवाद होता रहा है, ऐसा क्यों................? उनका जवाब था 'ये मॉर्डन आर्ट है. इसे सबको समझने में देर लगती है. फिर लोकतंत्र है. सबको हक़ है. ये तो कहीं भी होता है. हर ज़माने के अंदर हुआ है. जब भी नई चीज़ होती है. उसे समझने वाले कम होते हैं. ' हुसैन साहब का ये अंदाज़े-बयां जताता है कि आलोचनाओं से वे कभी नहीं डरे....... अपनी बात भी धड़ल्ले से कही. बहुत कम लोगों को पता है कि जब मुग़ल..आज़म बन रही थी तो निर्देशक के. आसिफ़ साहब ने युद्ध के दृश्य फ़िल्माने से पहले युद्ध और उसके कोस्ट्यूम वगैरह के स्केच हुसैन साहब से ही बनाये थे. जब आसिफ साहब ने 'लव एंड गॉड' बनाई तो आसिफ़ साहब ने 'स्वर्ग' के स्केच भी उन्ही से बनवाए. मशहूर अभिनेत्री माधुरी दीक्षित के बड़े प्रशंसक एमएफ़ हुसैन ने उन्हें लेकर 'गज गामिनी' नाम की फ़िल्म भी बनाई . इसके अलावा उन्होंने तब्बू के साथ एक फ़िल्म 'मीनाक्षी- टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़ बनाई .एक और विवाद तब उठ खड़ा हुआ जब पिछले साल जनवरी में उन्हें क़तर ने नागरिकता देने की पेशकश की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया था.

हैरानी की बात यह है कि हुसैन साहब ने कला का कहीं से भी विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था. अपने कला जीवन की शुरूआत उन्होंने मुंबई में फिल्मों के होर्डिंग पेंट करके की जिसमे उन्हें प्रति वर्ग फुट के चार या छह आना मिलते थे. फरवरी 2006 में हुसैन पर हिंदू देवी.देवताओं की नग्न तस्वीरों को लेकर लोगों की भावनाएं भड़काने का आरोप भी लगा और हुसैन के खिलाफ इस संबंध में कई मामले चले. इस फक्कड़ी चित्रकार ने इसकी परवाह करते हुए अपने काम से काम रखा. उन्हें जान से मारने की धमकियाँ भी मिलीं. उन्होंने अपनी पसंदीदा अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को लेकर 'गजगामिनी' बनाई तथा कुछ और फिल्मों पर भी काम किया. माधुरी को लेकर 'गजगामिनी' फिल्म के बाद हुसैन ने तब्बू को लेकर 'मीनाक्षी- टेल ऑफ थ्री सिटीज ' का निर्माण किया. हुसैन ने अभिनेत्री अमृता राव की भी कई तस्वीरें बनाईं. विवाद हमेशा हुसैन के साथ रहे. कुछ समय पहले जब केरल सरकार की ओर से प्रतिष्ठित राजा रवि वर्मा पुरस्कार उन्हें दिया गया तो मामला कोर्ट कचहरी तक जा पहुंचा. हुसैन को अम्मान स्थित रॉयल इस्लामिक स्ट्रैटेजिक स्टडीज सेंटर ने दुनिया के सबसे प्रभावशाली 500 मुस्लिमों की सूची में भी शामिल किया. उन्हें बर्लिन फिल्म समारोह में उनकी फिल्म ' थ्रू दि आईज ऑफ पेंटर' के लिए गोल्डन बीयर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. वह 1971 में साओ पाओलो आर्ट बाईनियल में पिकासो के साथ विशेष आमंत्रित अतिथि थे.

न केवल भारतीय पेंटिंग विधा बल्कि पूरा भारतीय समाज इस कलाकार का इसलिए भी ऋणी रहेगी क्योंकि इस तल्ख़ तेवर वाले चित्रकार ने भारतीय कला को वैश्विक बाज़ार में स्थापित कर नया रेकोर्ड रचा. व्यक्ति और चित्रकार की स्वतंत्रता का उद्घोष करते हुए हवा के विरुद्ध अपना परचम फहराने की कुव्वत रखने वाले इस महान चित्रकार की कला के प्रति निष्ठा और समर्पण को को सलाम............ !!!!!


(**तस्वीर गूगल, सन्दर्भ-बीबीसी)