नवंबर 28, 2008

तुम्हे क्या हो गया है...मुंबई ?

मन बहुत उदास है। मुंबई में आतंकी हमले में सैकड़ों लोगों की ,तमाम पुलिस अफसरों की जानें गयी और ताज होटल, ट्राईडेंट ,नरीमन प्वाइंट जैसे स्थानों के अलावा धरोहरस्वरुप कई पुरानी इमारतों का नुकसान हो गया.निरीह जनता का खून यहाँ बेवज़ह क्यों बहता है. यह क्या हो गया है आमची मुंबई को, किसकी नज़र लगी है इस शहर को कुछ समझ नही आता..... समस्त दिवंगत आत्माओं को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि.
हे ईश्वर, अमन चैन के दुश्मन इन चरमपंथिओं को सदबुद्धि दो. मानवता की यही पुकार है.....

नवंबर 24, 2008

धरम

धरम
कभी कभी अचानक ऐसा हो जाता है कि आप को सामान्य रैपर में भी बेहतरीन चीज मिल जाती है जिसकी आप उम्मीद भी नही करते. ऐसा ही कल मेरे साथ हुआ. मैं सार्थक हिन्दी फिल्मों को देखने का विशेष शौकीन हूँ सो फिल्मों को लेकर दांव खेलता रहता हूँ . बिना बहुत विचार किए मैंने कल "धरम" नाम की एक सीडी उठा ली और देखने बैठ गया. पूरी फ़िल्म एक सिटिंग में देख गया....अब ऐसा कम ही होता है कि मैं एक बार में बिना फॉरवर्ड किए कोई फ़िल्म देख जाऊं. कुछ समय की कमी होती है तो कुछ फिल्में भी ऐसी होती है कि दिमाग उनसे जुड़ नही पाता. "धरम" ने इन पूर्वाग्रहों को काफी दिनों बाद तोडा. मैं पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही उठ सका हर सीन के बाद अगले सीन का इन्तिज़ार रहा. लो बजट की यह पिक्चर गत वर्ष काफी चर्चा में रही थी जब इस पिक्चर को ओस्कर के लिए नामित किया गया था मगर अन्तिम चयन एकलव्य- द रोयल गार्ड का हुआ था. खैर मैं इस विवाद से ऊपर उठकर सीधे धरम के बारे में आता हूँ.फ़िल्म बनारस के ब्राह्मण पंडित चतुर्वेदी (पंकज कपूर) की धार्मिक गतिविधिओं से शुरू होती है पंडित जी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण हैं पुरातन ग्रन्थ उनके आचार व्यवहार की दिशा निर्धारित करते हैं. उनका हर व्यवहार कट्टर तरीके से हिंदू परम्परा की तरह होता है. गैर धार्मिक काम के बारे में वे सोच भी नही सकते. उनकी पत्नी (सुप्रिया पाठक) उनके लिए एक सहायक की तरह हैं जो पंडित जी हर काम को पूरी श्रद्धा से करती हैं.पंडित जी बनारस के ही ठाकुर विष्णु सिंह (केके रैना) के मन्दिर के खानदानी पुजारी भी हैं. घटनाएं कुछ इस तरह चलती हैं कि विष्णु सिंह का पुत्र पंडित चतुर्वेदी को नापसंद करने लगता है. इसी बीच पंडित जी कि बेटी देविका जिसकी उम्र लगभग १० वर्ष है, उसे गंगा के घाट पर कोई अनजान औरत अपना दुधमुहा बच्चा पकड़ा कर गायब हो जाती है.देविका उस बच्चे को घर ले आती है जहाँ पंडित जी की पत्नी उस छोटे से बच्चे को पालती हैं .पंडित जी को यह ठीक नही लगता कि किसी अनजान बच्चे को उनके घर में इस तरह पनाह मिले. वे अपनी पत्नी से उस बच्चे को विधर्मी कहकर पीछा छुड़ाने कि बात करते हैं. पुलिस से कहकर उसकी माँ को भी खोजने का प्रयास करते हैं मगर सब कुछ बेमतलब साबित होता है. अंतत: पंडित जी की पत्नी उस बच्चे को अपनी संतान की तरह पालती हैं. बच्चा बड़ा होने लगता है पंडित जी को भी उससे प्यार होने लगता है. बच्चे का नाम कार्तिकेय रखा जाता है. जब वह ४ साल का होता है तो अचानक एक दिन उस बच्चे की माँ अपने बच्चे को ले जाने ले लिए पंडित जी के घर प्रकट हो जाती है.....माँ मुसलमान होती है...... विचित्र स्थिति सामने आ जाती बहरहाल बच्चा चला जाता है....पंडित जी अपने किए का पश्चाताप करते हैं कि उन्होंने एक विधर्मी बच्चे को घर में पनाह क्यूँ दी वे इसलिए चंद्रयान व्रत का अनुष्ठान करते हैं. एक विधर्मी बच्चे को पालने के विरोध में कुछ लोग पंडित जी को नीचा भी दिखाते हैं. कहानी यूँ ही चलती जाती है. फ़िल्म का अंत बहुत मर्मस्पर्शी है जब साम्प्रदायिक दंगो में कुछ लोग कार्तिकेय की जान लेने का प्रयास करते हैं.और पंडित जी स्वयं उसकी जान बचाते हैं.साधारण सी लगने वाली इस कहानी को विभा सिंह ने क्या गज़ब का ट्रीटमेंट दिया है. सबसे बड़ा सरप्राइजिंग पैकेज तो स्वयं निर्देशक भावना तलवार हैं जिन्होंने अपनी पहली ही फ़िल्म में अपने शानदार काम को अंजाम दिया. बोल्ड विषय पर फ़िल्म बनाना इतना आसान नही होता मगर भावना तलवार ने हद से आगे जाकर काम किया है...... अभिनय में पंकज कपूर, सुप्रिया पाठक, ऋषिता भट्टऔर केके रैना का काम ज़बरदस्त है. सोनू निगम के आलाप से गूंजती यह पिक्चर किसी के भी दिमाग को हिला देने में सक्षम है ....मैं बस यही कह सकता हूँ कि काश यह पिक्चर ऑस्कर जाने पाती......

नवंबर 22, 2008

हद हो गयी भाई....

हद हो गयी भाई.....जहाँ देखो वहीँ लूट मचा रखी है..कल अचानक बी बी सी की न्यूज़ साईट को देखते हुए नज़र थमी " सोने के दाम समोसे " कालम पर जिसमे संवाददाता इरशाद उल हक़ ने लिखा कि बिहार के सोनपुर में लगने वाले पशु मेले में इस बार एक डच पर्यटक जोड़े ने चार समोसे ख़रीद कर ख़ूब चाव से खाए और जब पैसे देने की बात आई तो दुकानदार ने उन्हें क़ीमत बताई दस हज़ार रुपये. यानी, ढाई हज़ार का एक समोसा. काफ़ी हील हुज्ज़त के बाद पैसे तो अदा हो गए लेकिन पर्यटकों ने इसकी सूचना पुलिस को दे दी. उसके बाद न सिर्फ़ उस दुकानदार को मेले से बाहर कर दिया गया, बल्कि पुलिस ने 10 रुपए कटवा कर 9990 रुपये पर्यटकों को वापस भी करवा दिए. इसी तरह इस मेले में एक नेपाली पर्यटक ने लकड़ी के बने कुछ ख़ूबसूरत बर्तन ख़रीदे और उसकी जो क़ीमत हमने चुकाई वह सामान्य से कई गुना ज़्यादा थी. मेरा मानना है कि मेले -ठेले में चीजों का ऊँचे दामों पर बिकना कुछ भी ग़लत नही आख़िर कार दूकानदार बड़ी दूर दूर से वहां पैसे कमाने ही तो आते हैं मगर "लोजिक " कीमत तो फ़िर भी रहनी चाहिए. यह क्या कि दूसरे देश का आदमी देखा और अनाप शनाप कीमत वसूलना चालू कर दी. कई पर्यटक स्थलों पर भी मैंने इस तरह की हरकतें स्थानीय दुकानदारों द्वारा विदेशियों के साथ करती देखी हैं. आगरा ,दिल्ली जैसे महानगरों के पर्यटक इस तरह की स्थितियों के खूब शिकार होते है.पर्यटक उस समय तो स्थानीय लोगों के डर से चुप रह जाते हैं. कई बार पर्यटक इन हरकतों की वज़ह से इतने निराश हो जाते हैं कि वे दुबारा भारत या उस जगह पर जाने से पहले कई बार सोचते हैं .मुझे याद है कि एक बार एक रिक्शे वाले ने एक अँगरेज़ पर्यटक से थोडी दूर जाने के एक हज़ार रुपये वसूले जब हमने उस रिक्शे वाले को हड़काया तो उसने वाजिब दाम लेकर शेष पैसे वापस किए .गुस्सा तो तब आया कि जब उसने हमें कहा कि इन अंग्रेजों ने भी तो हमें बहुत लूटा है हम अगर उनसे थोड़ा सा लिए ले रहे हैं तो क्या ग़लत कर रहे हैं. यह बेहूदा सा तर्क था हमने इसका कोई जवाब तो नही दिया मगर लगा कि अभी भी जन सामान्य को समझदारी विकसित करने की बहुत ज़रूरत है. सभी नागरिक बनने के लिए हमें इस ओछी मानसिकता से अब ऊपर उठ कर आना पड़ेगा वरना....मैं तो यही कहूँगा कि हमें अच्छे नागरिक की तरह बर्ताव करना ही चाहिए वरना हमारे सभ्य होने पर प्रश्न लगना स्वाभाविक ही है.

नवंबर 13, 2008

होशंगाबाद डायरी

विगत दस दिन होशंगाबाद में रहना एक नया अनुभव था. नर्मदा के तट पर बसा हुआ यह शहर सतपुडा पहाडिओं से घिरा हुआ है.इन पहाडिओं को देखना और मसूरी की पहाडिओं को देखना बिल्कुल अलग अलग एहसास है. हलकी भूरी और रेतीली ज़मीन इन पहाडिओं की विशेष पहचान है.
सबसे पहले नर्मदा की बात. नर्मदा यहाँ की लाइफ लाइन है. नर्मदा का अमरकंटक से निकल कर मध्य प्रदेश के इस शहर से गुजरना इस शहरवासिओं को गर्व का एहसास दिलाता है. हम जब होशंगाबाद में पहुंचे तो यहाँ हलकी हलकी ठंडक पड़ने लगी थी...नर्मदा की तरफ़ से मंत्रों और भजनों की आवाजें लाउड़्स्पीकर से आ रही थी. पता चला कि दीपावली से लेकर अगले 11 दिन तक यहाँ पूजा- भजन का माहौल रहता है नर्मदा के तट पर लोग श्रद्धा से आते हैं और स्नान -दर्शन करते हैं. हम भी नर्मदा के तट पर पहुंचे ..सेठानी घाट यहाँ का मुख्य घाट है.बहती हुई नर्मदा वाकई खूबसूरत लग रही थी.कम बारिश वाले इस क्षेत्र में नर्मदा को देखना वाकई सुखकारी था.
नर्मदा का दर्शन करने के बाद हमने इस शहर का भ्रमण किया.यह शहर तो छोटा है मगर यहाँ भारत के अन्य छोटे और मिडिल क्लास शहरों की तरह न तो भीड़ -भाड़ है और न ही ट्रैफिक की भागमभाग. धीमी गति से चलता हुआ यह शहर महानगरीय आपाधापी को चिढाता हुआ नज़र आया. सुबह 8 बजे तक इस शहर की नींद खुल चुकी थी...हमने पाया की यहाँ नाश्ते का काफी कल्चर है...मिठाईओं की दुकानों पर नमकीन पोहा (चावल से बना हुआ ) जगह जगह देखा. हमने स्थानीय लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि होशंगाबाद में पोहा को नाश्ते में लेना पुरानी परम्परा है...पोहा के साथ अगर गरम जलेबी मिल जाए तो फ़िर नाश्ता पूरा. और अगर हैवी नाश्ता करना है तो इसमे आलूवडा और भाजीवडा और गरमागरम चाय को और जोड़ लीजिये और मात्र 15 रुपये में दोपहर तक फ्री हो जाइए........और शायद शाम तक भी.
समीपवर्ती शहर बेतूल की तरफ़ जाते हुए से गुजरते हुए इस शहर के अन्तिम गाँव दांडीवादा में भी हम गए. आदिवासिओं के साथ हमने समय गुजारा...जानकर अच्छा लगा की अब आदिवासिओं की सामजिक शक्ल बदल रही है......अब पढ़ाई लिखाई की तरफ़ ध्यान दे रहे हैं. अगली पीढियां यह बात समझ चुकी हैं कि बिना शिक्षा के गुज़र नही है......छोटे छोटे बच्चों को स्कूल जाते देखना बहुत अच्छा लगा...लड़के- लड़कियों के छोटे छोटे झुंड अपनी साइकिलों पर स्कूल जाने के लिया निकल पड़े थे......दुनिया जहाँ में क्या हो रहा था इससे भी यह बच्चे बेखबर नही थे.....कौन सा फ़िल्म हीरो ,क्रिकेट खिलाड़ी उन्हें पसंद है इस पर उनकी प्रतिक्रिया सुनना अच्छा अनुभव था..... बाकी और भी बहुत कुछ के बारे में अगले कुछ पोस्ट में.