दिसंबर 25, 2009

सम्पादित--"मेरा एहसास मेरे रू ब रू......"

“ मेरा एहसास मेरे रू ब रू…….. “ लिखने और पोस्ट करने के बाद बमुश्किल सांस ले ही पायी थी कि 12-15 टिप्पणियां मिल गयीं............! धन्यवाद सभी टिप्पणीकारों को ! राव साहब अपनी टिप्पणी में बहुत ज्यादा नाराज़ से लगे.....! नाराज़ होने की ज़ुरूरत नहीं, भाई.............हर टिप्पणी को पढता हूँ और गौर भी करता हूँ..........साहित्य सृजन में आपके आलोचक ही आपके सबसे बड़े सुधी होते हैं..! राव साहब आपकी बात ठीक है. राजरिशी और अमरेन्द्र की टिप्पणियां बहुत ही सटीक होती हैं......... इस बार भी उनके कमेन्ट बिलकुल ठीक हैं.......! हिमांशु जी ने भी बात सही कही मगर इतनी धीरे और सहजता से कि क्या कहूं....श्याम शखा जी ने तो इसी बहर पर एक शेर लिख दिया बहुत खूब श्याम जी. सफाई देने का मौका मुझे भी मिलना चाहिए -
1. जहाँ तक मतले की बात है मैं राजरिशी साब और अमरेन्द्र जी से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन इसमें गलती मेरी नहीं टाइपिंग की है .........मैंने दुरुस्त कर दिया है........! शायद पोस्ट को टाइप करने के बाद उसे फिर से न देखने की मेरी गन्दी आदत भी इसके लिए जिम्मेदार है....!
2. अमरेन्द्र जी की बात का पूरा आदर करते हुए '' नए प्रयोग और भाषा धर्मिता '' की जगह '' नई भाषा और प्रयोग-धर्मिता '' होना चाहिए से मेरी भी सहमति है.........!
3. अमरेन्द्र जी ने याद दिलाया कि लास्ट लाइन में बात त्रुटि है- ''गुफ्तगू है '' की जगह '' गुफ्तगू हो '' हो तो बेहतर होगा . बात सौ टके की है लेकिन यह भी महज टाइपिंग मिस्टेक है दोस्तों !
इन सारी त्रुटियों को सही करने के बाद संपादित पोस्ट फिर से लिख रहा हूँ......राव, राजरिशी और अमरेन्द्र जी जैसे सुधी टिप्पणीकार-आलोचकों के होते हुए कोई भी त्रुटि करना नामुमकिन है.......आप सभी को गलतियाँ इंगित करने का शुक्रिया .

कोई भी तज़्किरा या गुफ्तगू हो !
तेरा चर्चा ही अब तो कू ब कू हो !!
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!
ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!
मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!
तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!
नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू हो !!

दिसंबर 24, 2009

मेरा एहसास मेरे रू ब रू...........!

रवायती ग़ज़ल लिखने में मैं खुद को बहुत असहज पाता हूँ...........रवायती ग़ज़लें इश्क, एहसास, शराब, शबाब, बेवफाई जैसे ख्यालों तक ही खुद को समेटी रहती हैं..........इधर ग़ज़लों का रूप-रंग- कलेवर बदला है, उसमें इन सारे विषयों को तो देखा ही जा सकता है साथ ही गरीबी, राजनीति, सामाजिक पहलू, पर्यावरण, रिश्ते के ताने-बाने, धर्म जैसे मुख्तलिफ विषयों पर भी उतनी ही संजीदगी से लिखा पढ़ा जा रहा है......... आज की ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों से महक रही है.......नए-नए एहसासात अब ग़ज़लों की ज़मीन को भिगो रहे हैं........नए प्रयोग और भाषा धर्मिता ग़ज़लों में सहज दृष्टव्य हैं...............! वापस आता हूँ अपनी शुरूआती बात पर...........रवायती ग़ज़लों के लिखने की कोशिश पर. असल में मेरी पत्नी को रवायती ग़ज़लें ही ज्यादा पसंद हैं ..........जिनमे नाज़ुक एहसासों की खुश्बू आती रहे.... मैंने अपनी धर्म पत्नी के कहने पर एक रवायती ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है, आपको वो प्रयास पेश कर रहा हूँ.....!

कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू हो !!

मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!

ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!

मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!

तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!

नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है !!

दिसंबर 20, 2009

सरफ़रोशी की तमन्ना............!



शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा !!


काकोरी कांड के नायकों राम प्रसाद बिल्स्मिल और अशफाक उल्लाह खान का यह बलिदान दिवस है.........19 दिसम्बर 1927 को आज ही के दिन इन दोनों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा हुयी थी. राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर और अशफाक उल्लाह खान को फैजाबाद जिला जेल में फाँसी के फंदे पर चढ़ाया गया था, जबकि एक अन्य क्रान्तिकारी राजिंदर लाहिड़ी को समय से दो दिन पूर्व ही गोंडा जेल में फाँसी की सजा दे दी गयी थी. इतिहास गवाह है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रांतिकारियों ने नए अंदाज़ में अपने जज्बे को बयां किया था....... अपूर्व उत्साह था......देश पर मर मिटने की ललक थी........स्वतंत्रता को जल्दी से जल्दी लाने की चाह थी.........अँगरेज़ सरकार को उन्ही के अंदाज़ में सबक सिखाने की जिजीविषा थी........!
अपने सपने को अंजाम तक पहुँचाने के लिए 9 अगस्त 1925 को चन्द्र शेखर आजाद, अशफाक उल्लाह खान, राजिंदर लाहिड़ी, बिस्मिल और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच शाम के समय 8 डाउन ट्रेन शाहजहांपुर -लखनऊ में ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया. यही घटना इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है. दरअसल ट्रेन को लूटने का आइडिया भी बिस्मिल का ही था. एच.आर.ए.(हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन) के सदस्यों ने यह कारनामा करने का वीणा उठाया था........यद्दपि इसी घटना के एक अन्य क्रान्तिकारी चन्द्र शेखर आजाद को पुलिस उनके जीते जी नहीं पकड़ सकी. 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल गिरफ्तार किये गए और उनको गोरखपुर जेल में रखा गया. उल्लेखनीय है कि बिस्मिल का जन्म शाहजहांपुर में 1897 में हुआ था. ऐसा बताया जाता है कि निर्धनता के कारण वे महज़ आठवीं तक ही अपनी पढाई कर सके. बाद में वे देश आजाद करने के मिसन में हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन से जुड़ गए जहाँ उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों से हुई. काकोरी के ये नायक महज़ किसी जल्दबाजी या उत्तेज़ना के शिकार नहीं थे .......वे नवयुवक होने के बावजूद बहुत ही बौद्धिक और विचारक थे. अगर बात बिस्मिल कि करें तो बिस्मिल के पास न केवल हिंदी बल्कि अंग्रेजी, बंगला और उर्दू भाषा का ज़बरदस्त ज्ञान था. उनका लिखा हुआ तराना “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.....देखना है जोर कितना बाज़ू ए कातिल में है........!” पूरे देश में बच्चे बच्चे की जुबान पर उन दिनों था............!
काकोरी लूट के बाद इन क्रांतिकारियों पर मुकद्दमा चला .......ट्रेन लूट और एक यात्री की मौत के इलज़ाम के दोषी बताकर 4 क्रांतिकारियों को फाँसी कि सजा सुनायी गयी और फाँसी का दिन भी 19 दिसम्बर 1927 मुक़र्रर हुआ............बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया.........! बताते हैं कि जब गोरखपुर जेल में बिस्मिल के माता पिता फाँसी के एक दिन पूर्व उनसे मिलने पहुंचे तो बिस्मिल की आँखों से आंसू छलक पड़े......तो उनकी माँ ने कहा आज़ादी के दीवाने रोया नहीं करते. बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी. यह आत्मकथा गोरखपुर जेल में ही लिखी गयी थी. यह फांसी के केवल तीन दिन पहले समाप्त हुई. 18 दिसम्बर 1927 को जब उनकी माँ उनसे मिलने आयीं तो बिस्मिल ने अपनी जीवनी की हस्तलिखित पांडुलिपि माँ द्वारा लाये गये खाने के बक्से (टिफिन) में छिपाकर रख दी, बाद में श्री भगवती चरण वर्मा जी ने इन पन्नों को पुस्तक रूप में छपवाया। बाद में पता चलते ही ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं गयीं। सन 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसे पुन: प्रकाशित कराया।
मेरा इन शहीदों को याद करना स्वाभाविक है किन्तु शहीद बिस्मिल को विशेष रूप से याद करने की एक वज़ह यह भी है कि मैंने काकोरी और गोरखपुर दोनों को करीब से देखा है..........यह दोनों स्थान किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े रहे हैं........! काकोरी कांड के उन सभी क्रांतिकारियों को याद करते हुए बरबस ही वो तराना याद आता है......जो क्रांति के दौरान बहुत लोकप्रिय था......! आइये हम सब दोहरातें हैं इस जोशीली ग़ज़ल को नश-नश, रग- रग में जोश का नया ज़ज्बा भर देती है.......! इल्तिजा आप सभी से कि आप सब भी इस सुर में शामिल हो जाईये.......!

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है !
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है !!

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है !!

ऐ वतन, करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है !!

रहबरे राहे मुहब्बत, रह न जाना राह में,
लज्जते-सेहरा न वर्दी दूरिए-मंजिल में है !!

अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है !!
(चित्र गूगल इमेज से)

दिसंबर 14, 2009

.............किनारे टूट जाते हैं


टूटन भी एक प्रक्रिया है जो जीवन में लगातार चलती रहती है.....टूटन नहीं होगी तो सृजन कैसे होगा........कभी दिल टूटता है तो कभी बंदिशें. कभी दरिया की ठोकर से साहिल टूटता है तो कभी ज़रुरत के समय इंसानी भरोसे.......! कभी वादे टूटते हैं तो कभी नाज़ुक से एहसास....! इसी टूटन का भी अपना मज़ा है. एक ग़ज़ल पिछले दिनों इन्ही एहसासों को जेहन में रखकर लिख गयी............सोचा आप सबको भी यह ग़ज़ल नज्र कर दूं................मेरी इस ग़ज़ल के दूसरे शेर का मिसरा उस्ताद शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब की एक बहुत मकबूल ग़ज़ल के एक शेर " बहुत बेबाक आखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता ,मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना जरूरी है " से मिलता जुलता है. सो यह ग़ज़ल उस्ताद शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब के नाम. तो लीजिये साहब हाज़िर हैं ग़ज़ल के शेर .........!


ज़रा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं !
सलामत आईने रहते हैं, चेहरे टूट जाते हैं !!

पनपते हैं यहाँ रिश्ते हिजाबों एहतियातों में,
बहुत बेबाक होते हैं वो रिश्ते टूट जाते हैं !!

नसीहत अब बुजुर्गों को यही देना मुनासिब है,
जियादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं !!

दिखाते ही नहीं जो मुद्दतों तिशनालबी अपनी, ,
सुबू के सामने आके वो प्यासे टूट जाते हैं !!

समंदर से मोहब्बत का यही एहसास सीखा है,
लहर आवाज़ देती है किनारे टूट जाते हैं !!

यही एक आखिरी सच है जो हर रिश्ते पे चस्पा है,
ज़रुरत के समय अक्सर भरोसे टूट जाते हैं !!
( तस्वीर गूगल से साभार )

दिसंबर 09, 2009

बुद्धं शरणम गच्छामि...........


8 दिसम्बर महायान परंपरा में बोधि दिवस के रूप में मनाया जाता है. विदेशों में बोधि दिवस बड़े उत्साह से मनाया जाता है. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि राजकुमार सिद्दार्थ ने ज्ञान की खोज के लिए बोध गया बिहार में एक वट वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया ...............लम्बे ध्यान के बाद उन्हें जीवन के विभिन्न अनसुलझे सवालों के उत्तर मिले ........उस दिन जब सिद्दार्थ “महात्मा बुद्ध“ में परिवर्तित हुए उसे ही “बोधि दिवस” के नाम से जाना जाता है.....महायान संप्रदाय में इसे बोधि दिवस के रूप में मनाये जाने की परंपरा है. जिस वट वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ.........उसे बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाता है.
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि कलिंग युद्ध के बाद जब सम्राट अशोक बुद्ध धर्म की तरफ आकर्षित हुए तो उन्होंने इस वृक्ष के महत्त्व को जाना. सम्राट अशोक इस वृक्ष के नीचे बैठकर आनंद का अनुभव करते थे .........उनकी रानी तिस्सरक्षिता ने चिढ़ कर इसे कटवा दिया था .........किन्तु इस वृक्ष की एक टहनी सम्राट अशोक के पुत्र-पुत्री संघमित्रा और महेंद्र बुद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लए श्रीलंका ले गए थे............जिसे अनुराधापुर में रोपित किया गया था. कालांतर में यही वृक्ष बोधि- वृक्ष के ही रूप में प्रसिद्द हुआ. .......... अनुराधापुरम का यह बोधिवृक्ष दुनिया के प्राचीनतम वृक्ष के रूप में जाना जाता है. यह वृक्ष आज भी बुद्ध परंपरा में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण केंद्र है.
गया के बोधि वृक्ष की ही एक शाखा श्रावस्ती में भी है.............ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के जीवित होने के दौरान ही बोधगया के बोधि वृक्ष से एक शाखा लेकर श्रावस्ती के जेतवन विहार के प्रवेश द्वार पर रोपित किया गया था जो कि “आनंद बोधि वृक्ष” के नाम से जाना जाता है. दरअसल यह वृक्ष “अनाथ पिण्डक” ने रोपित किया था जो बाद में “आनंद बोधि” के नाम से प्रसिद्द हुए. यह वृक्ष जेतवन के प्रवेश द्वार के निकट है. माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने एक रात्रि को इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया था. लोग मानते हैं कि इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाने वाले को पुण्य प्राप्त होता है.
दो माह पूर्व मैं जब श्रावस्ती दर्शन पर गया था तो जेतवन भ्रमण के दौरान मैं इस वृक्ष के नीचे भी गया था...........वाकई इस विशाल काय पवित्र एवं ऐतिहासिक वृक्ष के नीचे खड़ा होना अपने आप में एक अलग सा अनुभव था. इस वृक्ष की आयु को देखते हुए, इसको सहेजे जाने को दृष्टिगत रखते हुए सरकारी खर्चे से पिलर अदि लगाये गए हैं ताकि इस पवित्र वृक्ष को किसी भी प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी नुकसान से बचाया जा सके. इस वृक्ष के नीचे मैंने खड़े होकर तस्वीर भी ली थी पोस्ट कर रहा हूँ. श्रावस्ती पर विस्तार से फिर कभी यात्रा वृत्तांत लिखूंगा.

दिसंबर 05, 2009

एक मुलाक़ात पंकज राग से............


कुशीनगर जाने का कार्यक्रम भी अचानक बन गया....सुबह दीपक जी, स्वतंत्र जी और उनकी धर्मपत्नी के साथ चर्चा हुई कि क्यों न एक दिन कुशीनगर चला जाए...........सहमती बनी कि कभी क्यों आज ही क्यों नहीं...... बात भी ठीक थी रविवार तो था ही...........निकल दिए थोड़ी देर बाद कुशीनगर के लिए!
कुशीनगर महत्मा बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली के रूप में जाना जाता है. कुशीनगर गोरखपुर से महज 80 किमी दूर है...लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद हम कुशीनगर पहुँच चुके थे. चूँकि बच्चे साथ में थे......चाय ठन्डे की उनकी जिद थी सो तय हुआ की ' रेफ्रेस्मेन्ट ' क्यों न सरकारी विश्राम गृह 'पथिक निवास' में किया जाए. हमने गाड़ियाँ मोड़ ली पथिक निवास की तरफ...........बच्चों के साथ हम भी जल-पान ले रहे थे.....बताया गया कि कुशीनगर में उपचुनाव चल रहा है और पर्यवेक्षक महोदय भी इसी गेस्ट हाउस में ठहरे हुए हैं...कौतूहलवस मैं पूछ बैठा कि पर्यवेक्षक महोदय कौन हैं कहाँ से आये हैं.............पता चला कि पंकज राग साहब एम.पी. काडर आई. ए.एस. हैं! मेरे लिए तो यह अवाक् रह जाने वाली स्थिति थी वही पंकज राग जिनकी कृति 'धुनों की यात्रा' बमुश्किल एक महीने पहले मैंने लखनऊ पुस्तक मेले से खरीदी थी औरउन्हें इस अद्भुत कृति के लिखने पर कई बार धन्यवाद देने की कोशिश कर चुका था, मगर कोई संपर्क न. न मिल पाने के कारन यह कार्य नहीं कर सका था. मैंने इस कृति का ज़िक्र कुछ दिनों पूर्व अपने ब्लॉग पर किया ही था.
खैर मैंने बिलकुल भी देर नहीं लगी श्री राग से मिलने में ......मिलने का सन्देश भेजा, उन्होंने तुरंत बुला लिया...... श्री राग से पहली मुलाक़ात इतनी आत्मीय थी कि मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सका. हौले हौले से मुंह में 'रजनीगंधा' चलाते हुए चश्मा पहने इकहरे बदन वाले श्री राग इतने युवा लगे कि वे कहीं से भी मुझे 1990 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी नहीं लगे. कुछ लम्हों की औपचारिकताओं के बाद वे तुरंत अनौपचारिक हो गए ..............अपने साहित्यिक सारोकारों को बताने लगे कि सिविल सेवक होने के वाबजूद वे कैसे सतत साहित्य सृजन करते रहे. व्यस्तता के बाद भी वे म . प्र. के पर्यटन व सांस्कृतिक विरासत के ऊपर काफी किताबें लिख चुके हैं. उनकी एक कृति "ये भूमंडल की रातें" कविता रूप में है जिसे कुछ दिनों पूर्व ही म.प्र. सरकार के 'वाचस्पति अवार्ड' से नवाजा गया है. इतिहास के अध्येता होने के नाते वे सम्प्रति 1857 की क्रांति पर एक किताब लिख रहे हैं.
श्री राग मूलत: बिहार के रहने वाले हैं. उन्होंने दिल्ली के सेन्ट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में स्नातकोत्तर किया तदोपरांत दिल्ली युनिवर्सिटी से आधुनिक भारतीय इतिहास में एम् फिल किया. वे इससे पूर्व म.प्र. की विशिष्ट प्राचीन प्रतिमाओं पर पुस्तक “Masterpieces of MP” तथा “50 years of Bhopal as capital” का लेखन भी कर चुके हैं. इसके अलावा वे प्राचीन ऐतिहासिक छाया चित्रों के संकलन की पुस्तक “Vintage Madhya Pradesh” का संपादन भी कर चुके हैं.आज कल वे पुणे स्थित राष्ट्रिय टेलीविजन संसथान के निदेशक का दायित्व संभाल रहे हैं. श्री राग से यह मुलाकात हमेशा याद रहेगी.
लेखकीय क्षमता के धनी प्रशासनिक सेवारत श्री राग की विद्वता, सृजनात्मकता तथा प्रशासकीय सूझ बूझ मेरे लिए सदीव प्रेरणा स्रोत का कार्य करेगी.