जनवरी 24, 2010

महफूज के बहाने खाकसार की इज्ज़त - हौसला अफज़ाई का शुक्रिया...!

भाई महफूज ने अपने ब्लॉग पर मेरे बारे में एक पोस्ट लिख डाली.......उन्वान था "जज़्बा ग़र दिल में हो तो हर मुश्किल आसाँ हो जाती है... मिलिए हिंदुस्तान के एक उभरते हुए ग़ज़लकार से "। इस पोस्ट के माध्यम से उन्होंने बहुत कुछ लिख डाला मेरे बारे में.........महफूज भाई दिल से शुक्रिया.........वैसे एक बात और, इस पोस्ट को पढ़ने के बाद एहसास हुआ कि लेखक लोग भी कम झूठे नहीं होते.......महफूज साहब ने जो कुछ लिखा वो तो अतिश्योक्ति में लगा लिपटा था ही.....कमेन्ट में भी खूब अतिशयोक्तियाँ रहीं....... ! खैर आप सब का प्यार-स्नेह-आशीर्वाद सर माथे......! महफूज साहब की पोस्ट और आपकी टिप्पणियों ने मेरी जिम्मेदारियां और दुश्वारियां दोनों बढ़ा दी हैं........! किन्ही दो चार का नाम लूँगा तो यह मेरी नासमझी होगी सो सभी कमेन्ट करने वाले विद्जनों को हार्दिक धन्यवाद ........कि आपने अपने कीमती वक्त में से समय निकाल कर इस खाकसार की इज्ज़त - हौसला अफजाई की. शौक और कारोबारी जिम्मेदारियों के बीच चलने का रास्ता अख्तियार किया है.....सो इन्ही दुश्वारियों के बीच जो कुछ लिख जाता है, आपको परोसता रहता हूँ........बिना ये जाने कि इसका स्वाद कैसा होगा......! इसी बीच एक नयी ताज़ा ग़ज़ल लिख गयी जिसे आप सभी को हाज़िर कर रहा हूँ.......!

ज़मीं पर इस कदर पहरे हुए हैं !
परिंदे अर्श पर ठहरे हुए हैं !!

बस इस धुन में कि गहरा हो तआल्लुक,
हमारे फासले गहरे हुए हैं !!

नज़र आते नहीं अब रास्ते भी,
घने कुहरे में सब ठहरे हुए !!


करें इन्साफ की उम्मीद किससे,
यहाँ मुंसिफ सभी बहरे हुए हैं !!

वही इक सब्ज़ मंज़र है कि जब से,
नज़र पे काई के पहरे हुए हैं !!

चलीं हैं गोलियां सरहद पे जब से,
कलेजे माँओं के सिहरे हुए हैं !!

खुला बाद-ए- शहादत ये कि हम तो,
फ़क़त उस जीत में मोहरे हुए हैं !!


(ग़ज़ल की बारीकियां जानने वालों से माफ़ी चाहूँगा कि आखिरी शेर में त्रुटि होने के बाद भी आपको पढ़वाने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा हूँ....)

जनवरी 23, 2010

सुब्ह की उम्मीद .........विप्लवी साहब !

मैंने अपनी पिछली पोस्ट जो नवाज़ देबवंदी साहब पर लिखी थी......उसे आप लोगों का प्यार मिला......शुक्रिया ! उस पोस्ट में मैंने यह ज़िक्र किया था कि जब नवाज़ साहब अपने शेरों का खजाना हम पर लुटा रहे थे तो उसे हम तीन लोग ही लूटने पर आमादा थे...एक मैं ,एक मेरी पत्नी और तीसरे शख्स थे बी. आर. ‘विप्लवी’ साहब जो रेलवे में अफसर हैं मगर संजीदा शायर भी.......! पोस्ट पढने के बाद कई कमेन्ट आये मगर अपने मेजर साब गौतम राजरिशी भी गज़ब के शिकारी हैं......मजाल है कि कोई बात उनसे कही जाई और वो नज़रअंदाज कर दें..........दबोच लिया मुझे ……. कह डाला कि नवाज़ साहब पर लिखा वो तो ठीक है मगर बी. आर. विप्लवी साहब पर भी लिखिए......! मेजर साहब की बात सर आँखों पर.......!
...........जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि बी. आर. विप्लवी साहब जो रेलवे में अफसर हैं मगर संजीदा शायर होना भी उनकी एक अलहदा पहचान है...........! . मेरी उनसे मुलाकात बरेली में हुई थी किसी पुस्तक मेले में. उनका तार्रुफ़ कराया था कमलेश भट्ट कमल साहब ने. सिलसिला बढ़ा ....हम लोगों की मुलाकातें होती रही………..कभी किसी मुशायरे में, कभी किसी साहित्यिक आयोजन में .............कभी वसीम बरेलवी साहब के यहाँ...........! एक बार आकाशवाणी पर भी साथ साथ पढने का मौका मिला.....! उनकी किताब "सुब्ह की धूप" के विमोचन के अवसर पर भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में बोलने का मिला...........ऐसे ही वक्त चलता रहा....मैं भी बरेली से चला गया....... विप्लवी साहब भी कोलकाता चले गए.......! मगर दुनिया गोल है ……....गोरखपुर में आने के बाद अचानक पता चला कि वे यहीं पोस्टेड हैं..........पता लगाया तो बात सही निकली.....! अब फिर मुलाकातों का सिलसिला जारी है...........! बी. आर. विप्लवी जितने अच्छे आदमी हैं उतनी ही अच्छी उनकी शायरी भी ..........जीवन के जो अनेकानेक रंग हैं वे उनकी शायरी में इतने रचे बसे हैं कि क्या कहने……....गंगा जमुनी संस्कृति की परंपरा को जीवित रखे हुए हैं वो….......उम्र का एक फासला होने के बावजूद बिलकुल छोटे भाई की तरह स्नेह मिला है मुझे उनका……..!
गाजीपुर के सामान्य परिवार में जन्मे विप्लवी जी के सर से पिता का साया बचपन में ही उठ गया..........मेधावी होने के बावजूद सामाजिक परिस्थितियों से उनकी जंग- जद्दोजहद चलती रही जो कमोबेश आज तक जारी है ................कम उम्र में ही जिंदगी के थपेड़ों ने उन्हें मजबूत कर दिया.........इंजीनीयरिंग करने के बाद रेलवे में आ गए.........अफसर बन गए मगर सामाजिक विरोधाभाषों से लड़ते हुए उनके कदम आगे बढ़ते रहे...........उनकी यही कशमकश उनकी शायरी में उभरी...........संजीदगी से शायरी के गणित में अपनी भावनाओं को पिरोते हुए अपनी बात आम आदमी तक पहुँचाने की ललक उनकी हिम्मत है ..........और शायद उपलब्धि भी !
उस्ताद शायर वसीम बरेलवी साहब अगर यह कहते हैं की " विप्लवी की आवाज़ हवा का आवारा झोंका नहीं- नसीमे सुबह का वह नगमा है जिसका आज भी और कल भी। अपने माहौल की बेदर्द सच्चाइयों, अपनी जात की तह-दर-तह गहराइयों और अपने तजरबों की रौशन इकाइयों को शेरी-पैकर देना और ज़मीनी एहसास से जुड़े रहना उनकी काव्य यात्रा का वो असासा है जो नए आयाम देने में पूरी तरह सक्षम है............." तो सही ही कहते हैं।
फ़िलहाल तो ऐसे माहौल में विप्लवी साहब की चंद ग़ज़लें ,कुछ शेर पेश कर रहा हूँ..........!
उम्र की दास्तान लम्बी है !
चैन कम है थकान लम्बी है !!
हौसले देखिए परिंदों के,
पर कटे हैं उड़ान लम्बी है !!
पैर फिसले ख़ताएँ याद आईं ,
कैसे ठहरें ढलान लम्बी है !!
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आँख का फ़ैसला दिल की तज्वीज़ है !
इश्क़ गफ़लत भरी एक हसीं चीज़ है !!
आँख खुलते ही हाथों से जाती रही ,
ख़्वाब में खो गई कौन सी चीज़ है !!
मैं कहाँ आसमाँ की तरफ देखता ,
मेरे सजदों को जब तेरी दहलीज़ है!!
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ये कौन हवाओं में ज़हर घोल रहा है !
सब जानते हैं कोई नहीं बोल रहा है !!
बाज़ार कि शर्तों पे ही ले जाएगा शायद,
वो आँखों ही आँखों में मुझे तोल रहा है !!
मर्दों की नज़र में तो वो कलयुग हो कि सतयुग,
औरत के हसीं जिस्म का भूगोल रहा है !!
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ज़रूरत के मुताबिक़ चेहरे लेकर साथ चलता है !
मिरा दमसाज़ ये देखें मुझे कैसे बदलता है !!

दो नयी ग़ज़लें भी पेश कर रहा हूँ ये ग़ज़लें अभी कहीं प्रकाशित भी नहीं हैं.......मुझे बेहद पसंद भी हैं.....पेशे-ख़िदमत है....,

ज़मीं के लोग हों जब बेज़ुबां से,
शिकायत क्या करेंगे आसमाँ से !
नदी से नाव की रस्साकसी है,
हवा उलझी हुयी है बादवां से !
हमें भी मस्जिदों की है ज़रुरत,
हमारी नींद खुलती है अजाँ से !
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जब से हूँ ईमान के पीछे,
जिस्म पड़ा है जान के पीछे !
खुद को मत पत्थर कर डालो,
पत्थर के भगवान के पीछे !
इक दिन रेत बना डालेंगी,
नदियाँ हैं चट्टान के पीछे !

फिलहाल वे दिखावे से दूर रहते हुए अपने कृतित्व में लगे हुए हैं.......कोई अचरज नहीं होना चाहिए की अगले एक दो सालों में उनकी फिर कोई किताब पढने को मिले......"सुब्ह की उम्मीद " की तरह ...........इसी उम्मीद में.....!

जनवरी 15, 2010

संजीदा शायरी के दस्तखत- नवाज़ देवबंदी !


ऑफिस बैठा हुआ कुछ ज़ुरूरी कम निपटा रहा था.....अचानक मोबाईल बजा......उठाया- हेलो किया तो उधर से आवाज़ आई......आदाब कैसे हैं जनाब.......मैंने भी आदाब क़ुबूल कर उसी सम्मान के साथ आदाब किया.....आवाज़ जानी पहचानी लगी मगर मोबाईल पर अनजाना नंबर डिस्प्ले हुआ था सो इंतज़ार किया कि उधर वाले साहब अपना परिचय दें तो आगे बात बढाऊँ....बहरहाल यह स्थिति तुरंत ही साफ़ भी हो गयी.........उधर से आवाज़ आयी जनाब नवाज़ देवबंदी बोल रहा हूँ.......! मैंने तुरंत प्रति प्रश्न किया कि नंबर तो अनजाना लग रहा है......उन्होंने बताया कि वे आज गोरखपुर में ही हैं..........यहाँ उनका मोबाईल काम नहीं कर रहा है सो वे अपने किसी मित्र के फोन से बात कर रहे हैं ......! बात आगे बढ़ाते हुए बोले मैं मगहर आया हुआ था..........अखिल भारतीय मुशायरा में पढने के लिए......रास्ता यहीं से जाता है सो ट्रेन से उतर लिया फिलहाल गोरखपुर में हूँ शाम को मगहर जाऊंगा........अगर फुर्सत हो तो मुलाक़ात हो जाए.......! नवाज़ साहब की यही साफगोई मुझे बहुत पसंद है..........मैंने तुरंत कहा घर आ जाईये..............बिना किसी औपचारिकता के बाद शाम 7 बजे वे अपने एक स्थानीय शायर दोस्त के साथ तशरीफ़ ले आये................मैं तो उनका बेसब्री से इन्तिज़ार कर ही रहा था.........एक मुद्दत के बाद उनसे मुलाक़ात हो रही थी..........! उन्हें जल्दी ही जाना था......चाय लेने के दौरान मेरी पत्नी ने उनसे कुछ शेर पढ़ने को कहा तो नवाज़ साहब शुरू हो गए...........एक बार जब वे शुरू हो गए तो माहौल ऐसा परवान चढ़ा कि अगले दो घंटे कब गुज़र गए पता ही नहीं चला............एक के बाद एक बेहतरीन शेर ! ............. जैसे सारा खज़ाना नवाज़ साहब हम पर लुटाने को तैयार थे..........श्रोता के नाम पर मैं, मेरी पत्नी और रेलवे में अधिकारी मगर शायर के रूप में पहचान बना चुके बी. आर. बिप्लवी साहब थे. उनके हर एक शेर पर हम तीनों वाह- वाह- शुभान अल्लाह- क्या बात है- जिंदाबाद- मुक़र्रर जैसे जुमलों को दोहराते रहे........!
उनकी एक ग़ज़ल जो जगजीत सिंह साहब ने भी गयी है मुझे काफी पसंद है, मुलाहिजा फरमाएं-
तेरे आने की जब खबर महके,
तेरी ख़ुश्बू से सारा घर महके !
रात भर सोचता रहा तुझ को,
जेहनो दिल मेरे रात भर महके !


उनकी एक ग़ज़ल आदरणीय लता जी ने भी गयी है..........क्या ही खूबसूरत ग़ज़ल है यह.....!
कुछ इस तरह से उसे प्यार करना पड़ता है,
कि उसके प्यार से इन्कार करना पड़ता है !
कभी कभी तो वो इतना करीब होता है,
कि अपने आपको दीवार करना पड़ता है !
खुदा ने उसको अता की है वो मसीहाई,
कि खुद को जान के बीमार करना पड़ता है !


उन्ही की जानिब से कुछ गजलों के चंद शेर और जो मेरे जेहन में अब तक बसे हुए हैं ..........
वो रुलाकर हँस न पाया देर तक,
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक !
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए,
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक !
गुनगुनाता जा रहा था इक फकीर,
धूप रहती है न साया देर तक !

कुछ और पेशकस.......
मेरी कमजोरियों पर जब कोई तन्कीद करता है,
वो दुश्मन क्यों न हो उससे मुहब्बत और बढती है!

एक और खूबसूरत ग़ज़ल का टुकड़ा पेश है.......
यह जला दिया वो बुझा दिया, ये काम तो है किसी और का,
न हवा के कोई खिलाफ है न हवा किसी के खिलाफ है !
वो है बेवफा तो वफ़ा करो, जो असर न हो तो दुआ करो,
जिसे चाहो उसको बुरा कहो ये तो दोस्ती के खिलाफ है !
वो जो मेरे गम में शरीक था जिसे मेरा गम भी अज़ीज़ था,
मैं जो खुश हुआ तो पता चला वो मेरी ख़ुशी के खिलाफ है !


नवाज़ साहब इस समय उर्दू मुशायरे के जाने माने नाम हैं...........संजीदा शायरी के वे दस्तखत हैं....... अपनी मशरूफियत में भी वे अपनों को नहीं भूलते.........सादगी....संजीदगी.....शेर कहने का सलीका नवाज़ साहब की ऐसी अदा है जिसपे हम दिलो जान से फ़िदा हैं....शुक्रिया नवाज़ साहब !

जनवरी 10, 2010

आँख का बंजर होना ठीक नहीं ..........!


ब्लॉग पर इधर जिस तरह बेहतरीन ग़ज़लें लिखी जा रही हैं वो इस बात का सीधा संकेत करती हैं कि ग़ज़ल के प्रति न केवल पढ़ने, बल्कि लिखने के प्रति अभी भी दीवानगी बनी हुयी है.........खेमेबाजी ने लेखन को बहुत नुकसान पहुँचाया...........प्रतिष्ठित लेखकों का यही एक दोष रहा कि उन्होंने साहित्य सृजन को कैम्पों में बाँट दिया। हर लेखक किसी न किसी कैम्प से जुड़ने को मजबूर हुआ...........प्रकाशन के अभाव में छोटे शहरों के तमाम सृजक इस दौड़ में कहीं पीछे छूट गए.......यह तो भला हो ब्लॉग का जिसने ऐसे तमाम स्वतंत्र सोच वाले सृजकों को नया प्लेटफार्म उपलब्ध कराया............बगैर किसी रोक टोक के अब उनको पढ़ा जा सकता है..........बहरहाल ग़ज़ल की बात करें तो इस समय ब्लॉग पर कई शानदार लेखक उभर कर आये हैं...........सबका नाम ले पाना तो मुश्किल है मगर जहाँ तक मैं ब्लॉग -विचरण करता हूँ उनमे निश्चित तौर पर गौतम राजरिशी, नीरज,लता हया,मानोसी,सतपाल, श्याम सखा, पंकज सुबीर, सर्वत जमाल, दीपक गुप्ता, रूपम, प्रवीण, योगेश भाई आदि के नाम बिना किसी संकोच के लिए जा सकते हैं........(कुछ और भी नाम हैं बस याद नहीं आ रहे, जैसे ही याद आये तो पोस्ट सम्पादित कर लिखूंगा ).............इनको देख कर कुछ नए लोग भी (मसलन महफूज़ अली, पी सिंह.......) ग़ज़ल लेखन में सामने आ रहे हैं...........नए लेखकों का भाव अथवा व्याकरण पक्ष कमजोर हो सकता है मगर ब्लोगर बंधुओं ने बड़े खुले मन से उन सब की हौसला अफजाई की और जहाँ ज़ुरूरी हुआ वहां हलकी सी झिडकी भी दे दी (शरद, समीर, गिरिजेश, और अमरेन्द्र जी इस मामले में अव्वल हैं) ..........! कुल मिलकर एक सुखद माहौल तो क्रियेट हो चुका है......बस इसको आगे ले चलने की चुनौती हमारे सामने है............! बहरहाल इस बीच नए साल की पहली ग़ज़ल आपको पेश करने का मन हुआ सो पेश कर रहा हूँ ..........!

यूँ तो हर पल इन्हें भिगोना ठीक नहीं !
फिर भी आँख का बंजर होना ठीक नहीं !!

दिल जो इज़ाजत दे तो हाथ मिलाओ तुम,
बेमतलब के रिश्ते ढोना ठीक नहीं !!

हर आंसू की अपनी कीमत होती है,
छोटी -छोटी बात पे रोना ठीक नहीं !!

बाशिंदे इस बस्ती के सब भोले हैं,
इन पर कोई जादू टोना ठीक नहीं !!

एहसासात में भीगी कोई नज़्म लिखो,
बेमतलब अल्फ़ाज़ पिरोना ठीक नहीं !!

बेहतर कल की आस में जीने की ख़ातिर,
अच्छे-खासे आज को खोना ठीक नहीं !!

मुख्तारी तो ऐसे भी दिख जाती है,
आँगन में बंदूकें बोना ठीक नहीं !!

दिए के जैसे रोशन तेरी आँखें हैं,
फ़स्ल-ए-आब को इनमें बोना ठीक नहीं !!

जनवरी 06, 2010

जियारत ख्वाजा चिश्ती साहब की दरगाह पर......!


साल की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती थी.........बरस 2010 के पहले दिन यानी 1 जनवरी को अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सजदा किया .........मेरे लिए यह एक अधूरी ख्वाहिश के पूरे होने जैसा था.
दरअसल 31 दिसम्बर की रात को जब हम जयपुर में पुराने साल की विदाई और नए साल के स्वागत का जश्न मना रहे थे............तभी यह तय हुआ कि साल की शुरुआत अजमेर में महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सर झुकाने के साथ की जाए. मैं अपने मित्र सुमति और दोनों परिवारों के साथ अल सुबह ही जयपुर से अजमेर रवाना हो लिए........ दोनों शहरों के बीच की दूरी लगभग 140किमी है मगर रास्ता इतना बेहतरीन है की यह दूरी महज दो घंटों से भी कम समय में आराम से पूरी की जा सकती है......बहरहाल हमारा कारवां 9 बजे तक अजमेर में पहुँच गया .........हम सीधे पहुंचे दरगाह पर............अच्छी खासी भीड़ थी..........!
सच तो यह है कि ख्वाज़ा की दरगाह पर जाने की इच्छा विगत दो साल से पूरा नहीं हो पा रही थी . दरअसल यह एक कौल था जो दो सालों से निभा नहीं पा रहा था......2007 में मैंने यह सोचा था कि ख्वाज़ा चिश्ती कि दरगाह पर जरूर जाऊँगा....... लेकिन कहते हैं न कि होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है.....यहाँ भी अपनी मजबूरियों का शिकार हो गया और किया हुआ कौल दो सालों तक नहीं निभा पाया......... इस बार अचानक जयपुर में साल के आखरी दिनों को बिताने का प्रोग्राम बना तो.............वहीँ यह तय हुआ कि अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के दर पर भी हो लिया जाए.....! इस बार जब यह प्रोग्राम बना तो इसे खोने का सवाल ही नहीं उठता था.........31 दिसम्बर की रात की थकान के बाद भी 1जनवरी की सुबह अजमेर निकल देने के लिए मैं तत्पर था......साथ में संगी साथियों ने भी उत्साह पूर्वक हामी भरी तो कोई गुंजाईश नहीं रह गयी.
हमारा कारवां पहुंचा अजमेर......बहारअपनी गाड़ी लगाकर जैसे ही दरगाह वाली सड़क पर हम मुड़े तो एक मुक़द्दस एहसास होना शुरू हो गया......सड़क पर भरी भीड़ थी.सड़क के दोनों और फूल- चादर- इत्र- लोबान- मेहंदी- खेल- खिलौने की लोकल दुकानें थीं.....जोर जोर से सूफियाना कलाम बज रहे थे........आपस में इन कलामों की आवाज़े इस तरह गुँथ गयीं थीं कि किसी भी कलाम को पहचान पाना मुश्किल था.....! इसी रास्ते होते हम पहुंचे दरगाह के विशाल गेट पर.....!

महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती (1143-1223 AD) को चिश्ती सिलसिले को भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है...उनकी पैदाइश तो ईरान की थी....घूमते घामते वे 1192 में भारत आ गए......शुरुआत में वे दिल्ली और लाहौर रुके बाद में वे अजमेर में बस गए................ कायनात को भाई चारा का सन्देश देने के लिए वही खानकाह की स्थापना कर डाली....उनके सीधे सच्चे सिलसिले को को देख कर शीघ्र ही बड़ी संख्या में उनके अनुयायी बन गए.... बताते हैं कि वे बचपन से ही योग और ध्यान लगाने पर बहुत रमे रहते थे......महज 15 बरस की आयु में उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया......एक दिन जब वे अपने बगीचे में पौधों को पानी लगा रहे थे तो सूफी संत कुंदूजी उधर से गुजरे.......मोईनुद्दीन साहब ने उन्हें कुछ फल भेंट किये तो बदले में सूफी संत कुंदूजी ने उन्हें एक रोटी दी............ जैसे ही वो रोटी मोईनुद्दीन साहब ने खाई.............उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गयी.....इसके बाद तो मोईनुद्दीन साहब ने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बाँट दी और पूरी तरह सूफी रुख अख्तियार कर लिया.
इस दरगाह का मुख्य प्रवेश द्वार बहुत विशाल है बताया जाता है कि इसे हैदराबाद के निजाम ने दान किया था.......इतिहास की बात करें तो मुग़ल बादशाह अकबर हरेक साल यहाँ आगरा से पैदल चलकर आते थे......! मार्च 11, 1223 AD (6th of Rajab, 633 AH) में उनके देहांत के बाद अब हर बरस जबरदस्त उर्स मनाया जाता है..... ....!

महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती का सन्देश है......" सभी से प्यार करो, सभी की सेवा करो,सबके लिए अच्छाई की दुआ करो, सबकी मदद करो......किसी को नुकसान मत पहुँचाओ.." चिश्ती सिलसिले के भारत में मकबूल होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि यह सिलसिला भारत की पुरानी वेदांत दर्शन से काफी हद तक साम्यता रखता था......इस सिलसिले का ‘वहदत उल वजूद’ दर्शन पुरातन वेदांती विचारधारा से बहुत मिलता जुलता था..........!
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम.... क्या गरीब क्या अमीर .............सभी के लिए यह दरगाह एक पाक- पवित्र जगह है....... ! दरगाह से उठती लोबान की खुशबू......लाल-पीले धागों में बंधी हुए मन्नतें .........क्या ही बेहतरीन एहसास से हम गुजरे.......!
गंगा जमुनी तहजीब और सांझी विरासत की एक अद्भुत मिसाल पर सर झुकाने का साल का यह पहला दिन मुझे अब तक रोमांचित कर रहा है..........!