यूँ तो भारत त्योहारों का देश है ........हर बारह-पंद्रह दिनों पर एक त्यौहार पड़ ही जाता है जो तन मन को स्पंदित कर जाता है.........मगर फिर भी कुछ त्यौहार ऐसे होते हैं जो पूरे जोश खरोश से मनाये जाते हैं..................होली भी वो त्यौहार है जो जन मानस के छुपे अल्हड़पन और बचपन को बाहर निकाल कर रख देता है.............होली का माहौल अपने आप में बड़ा नशीला टाईप का होता है............आँखों में मदहोशी .........हाथों में रंग-पिचकारी ........मुंह में मीठी गुजिया- अनरसे ..........ढोलक -मंजीरे की थाप...........मदमस्त फाग गाते हुए गलियों से से निकलती टोलियाँ .............उम्र के फासले टूटने लगते है, क्या बूढ़े-क्या नौजवान सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगने लगते हैं.............सब देवर बनने की चाहत में रंग जाते हैं.....! मैं भी तो कमोबेश इन्ही रंगों में रंगा हुआ हूँ .......सोचा इस बार क्यों न उन कवियों -शायरों के हाल उन्ही की जुबानी आपको सुना दूं जो होली पर आप और हम जितने ही मस्त और बिंदास हो जाते हैं............मैंने होली के अवसर पर कुछ पुराने जाने पहचाने कवियों शायरों की रचनाओं को इस पोस्ट में शामिल किया है तो कुछ नए ज़माने के लोगों को भी न्योता दिया कि वे भी होली के रंग बिखेरें ................यह प्रयास कैसा रहा यह तो आप ही तय करंगे फिलहाल तो पोस्ट हाज़िर कर रहा हूँ................तो हुज़ूर देरी क्यों, आइये शुरू करते हैं प्रेम की दीवानी मीरा की ब्रज भाषा में रंगी एक रचना से जो खालिस होली का रंग बिखेर रही है........कृष्ण भक्ति में मीरा होली के रंग में इस तरह रंग जाती हैं और कह उठती हैं......
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
सील सन्तोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
हिन्दवी के उस्ताद और भारत की पहचान गंगा जमुनी संस्कृति की अलख जगाने वाले अमीर खुसरो साहब रंगों का जलवा कुछ यूँ बिखेर रहे हैं................
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब ए इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे
जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे
लोक भाषा के उस्ताद शायर नजीर अकबराबादी की अल्हड नज़रों में होली कुछ ऐसी होती है.......
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के,
कुछ बढ़ बढ़ के,कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के,
कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो
माजून , रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।।
हिंदी के पहले लेखक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद अपनी बिंदास शैली में होली का फाग कुछ यूँ गाते हैं.............
गले मुझको लगा लो ऐ दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ यार होली में
है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुम है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ दिलदार होली में
रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीलीआँख दिखाकर करो सरशार होली में
जय शंकर प्रसाद जी भला होली पर कैसे चुप बैठ सकते हैं, होली पर उनकी अभिव्यक्ति क्या ही निराली है.........
बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।
चाँदनी धुली हुई हैं आज बिछलते है तितली के पंख।
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख।
तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।
पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।
उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल।
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियाँ जावें झूल।
विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात!
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हाँ, होली की रात॥
होली पर मधुशाला कवि हरिबंश राय बच्चन की पिचकारी कुछ इस तरह रंग छिड़कती है.........
तुम अपने रँग में रँग लो तो है
तुम अपने रँग में रँग लो तो है
होली देखी मैंने बहुत दिनों तक दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने, मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
तन के तार छूए बहुतों ने, मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है अंबा शीश सजाए,
सिंदूरी मंजरियों से है अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
घूमेगा जग राह-राह में आलिंगन की मधुर चाह में,
स्नेह सरसता से घट भरकर, ले अनुराग राग की झोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
उर से कुछ उच्छवास उठेंगे, चिर भूखे भुज पाश उठेंगे,
कंठों में आ रुक जाएगी मेरे करुण प्रणय की बोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
आँसू की दो धार बहेगी, दो-दो मुट्ठी राख उड़ेगी,
और अधिक चमकीला होगा जग का रंग, जगत की रोली!
विश्व मनाएगा कल होली!
असली रंग तो महान कवि निराला जी खेल रहे हैं......सारे बंधन तोड़ के.......
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!
उस्ताद शायर वसीम बरेलवी साहब विरहन का दर्द होली पर कुछ ऐसे बिखेर रहे हैं.........
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचौली
मगर अब साजन कैसी होली !
तन के सारे रंग भिखारी, मन का रंग सुहाग
बाहर बाहर पूरनमासी अन्दर अन्दर आग
अंग अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहुत शर्माए
कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने इक इक रंग में
कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आँख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली !
रंग बहाना रंग जमाना
रंग दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन
रंग को रंग ना जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगों रंगों बोली
मगर अब साजन कैसी होली !
युवा शायर और मेरे अज़ीज़ शायर अकील नोमानी भी लड़खड़ाते क़दमों के साथ कह रहे हैं........
दिल में बजता है प्यार का संगीत, रूह फागुन के गीत गाती है,
जब बिखरते हैं रंग होली के, जिंदगी झूम झूम जाती है !
और..........,
आइये होलिका दहन के साथ, नफरतों को जला दिया जाये !
अबके होली में दुश्मनों को भी, प्यार करना सिखा दिया जाये !!
कुंवर बेचैन जीवन की सच्चाइयों से रु ब रु होते हुए तल्ख़ मिजाजों में कहते हैं..........
प्यासे होंठों से जब कोई झील न बोली बाबू जी
हमने अपने ही आँसू से आँख भिगो ली बाबू जी
यह मत पूछो हमको क्या-क्या दुनिया ने त्यौहार दिए
मिली हमें अंधी दीवाली गूँगी होली बाबू जी
ये क्या........... रेलवे के अफसरान भी होली खेलने पर उतर आये.......विप्लबी साहब तो गले में ढोलक डाले पंचम स्वर में फाग गा रहे हैं.........
होली आयी तो मचा होली का हुडदंग,
दुश्मन मिलते बदल कर गिरगिट जैसा रंग
गिरगिट जैसा रंग लबों पे हंसी सुहानी
हम अब्दुल्ला हुए देख शादी बेगानी
कहें ‘बिप्लवी’ चढ़ी भँग की ऐसी गोली
हुआ मुहर्रम अपना उनकी होली हो ली
.............नहीं मानेंगे........ कह रहे हैं एक ग़ज़ल और पेश करूंगा.......तो लीजिये बचिए.....
जुटा लें एक जहती का सरो सामान होली में
मिले कुछ इस तरह इंसान से इंसान होली में
किसी को हाथापाई करके रंगों में डुबो डाला
तो जैसे जा रहा है मार कर मैदान होली में
नज़र से रंग बरसे पैरहन से खुशबुएँ निकलें
मगर वो शोख खुद से लग रहा अनजान होली में
हवाएं हाथ पकडे हैं घटायें घर बुलाती हैं
हुयी है किस तरह आवो हवा शैतान होली में
हमारी ‘बिप्लवी’ तहजीब ही इंसानियत की है
भुला दें रंजिशें पिछली ये हो उन्वान दें होली में
मेरे अपने शहर मैनपुरी के शायर दोस्त फ़साहत अनवर साहब ने भी होली का रंग कुछ यूँ बिखेरा है........
त्यौहार है ये खुशियों का क्या मस्त सुहाना है,
जी चाहे जिसे रंग दो होली का बहाना है !
गुजियों या अनरसों से भरता ही नहीं मनवा,
पकवान ये जी भर के जन जन को खिलाना है !
पोस्ट का अंत अपने जिगरी यार मनीष की एक रचना से कर रहा हूँ जो भाँग के नशे में उछल उछल कर कह रहे हैं........
रंग लाल गुलाल का बादल है,मदमाती आँख का काजल है
कुछ हवा नशे में चूर सी है,हर सांस में महका संदल है
पत्ता पत्ता बौराया है, हर ज़र्रा जोश में आया है !
......रंगों की वो तकरार उधर,देखो टेसू की धार उधर
क़दमों का भी है हाल अज़ब,एक बार इधर इक उधर
क्या बात बताएं होली की, मदहोश फज़ाएँ होली की.......
गुलमोहर की रंगत का मौसम,रंगीन शरारत का मौसम
मौला मेरे फिर फिर आये,रंगों की इबादत का मौसम !
यह प्रस्तुति मुझे यहीं ख़त्म करने की इज़ाज़त दें............इतनी लम्बी पोस्ट लिखने की आदत नहीं रही.........होली पर आप सभी को मेरी शुभकामनायें..............इस उम्मीद के साथ
ये क्या........... रेलवे के अफसरान भी होली खेलने पर उतर आये.......विप्लबी साहब तो गले में ढोलक डाले पंचम स्वर में फाग गा रहे हैं.........
होली आयी तो मचा होली का हुडदंग,
दुश्मन मिलते बदल कर गिरगिट जैसा रंग
गिरगिट जैसा रंग लबों पे हंसी सुहानी
हम अब्दुल्ला हुए देख शादी बेगानी
कहें ‘बिप्लवी’ चढ़ी भँग की ऐसी गोली
हुआ मुहर्रम अपना उनकी होली हो ली
.............नहीं मानेंगे........ कह रहे हैं एक ग़ज़ल और पेश करूंगा.......तो लीजिये बचिए.....
जुटा लें एक जहती का सरो सामान होली में
मिले कुछ इस तरह इंसान से इंसान होली में
किसी को हाथापाई करके रंगों में डुबो डाला
तो जैसे जा रहा है मार कर मैदान होली में
नज़र से रंग बरसे पैरहन से खुशबुएँ निकलें
मगर वो शोख खुद से लग रहा अनजान होली में
हवाएं हाथ पकडे हैं घटायें घर बुलाती हैं
हुयी है किस तरह आवो हवा शैतान होली में
हमारी ‘बिप्लवी’ तहजीब ही इंसानियत की है
भुला दें रंजिशें पिछली ये हो उन्वान दें होली में
मेरे अपने शहर मैनपुरी के शायर दोस्त फ़साहत अनवर साहब ने भी होली का रंग कुछ यूँ बिखेरा है........
त्यौहार है ये खुशियों का क्या मस्त सुहाना है,
जी चाहे जिसे रंग दो होली का बहाना है !
गुजियों या अनरसों से भरता ही नहीं मनवा,
पकवान ये जी भर के जन जन को खिलाना है !
पोस्ट का अंत अपने जिगरी यार मनीष की एक रचना से कर रहा हूँ जो भाँग के नशे में उछल उछल कर कह रहे हैं........
रंग लाल गुलाल का बादल है,मदमाती आँख का काजल है
कुछ हवा नशे में चूर सी है,हर सांस में महका संदल है
पत्ता पत्ता बौराया है, हर ज़र्रा जोश में आया है !
......रंगों की वो तकरार उधर,देखो टेसू की धार उधर
क़दमों का भी है हाल अज़ब,एक बार इधर इक उधर
क्या बात बताएं होली की, मदहोश फज़ाएँ होली की.......
गुलमोहर की रंगत का मौसम,रंगीन शरारत का मौसम
मौला मेरे फिर फिर आये,रंगों की इबादत का मौसम !
यह प्रस्तुति मुझे यहीं ख़त्म करने की इज़ाज़त दें............इतनी लम्बी पोस्ट लिखने की आदत नहीं रही.........होली पर आप सभी को मेरी शुभकामनायें..............इस उम्मीद के साथ
"ढोलक की थापों पे गाते फगुओं की टोली आई है
टेसू की रंगत बिखर गयी फिर कमसिन होली आई है........"
टेसू की रंगत बिखर गयी फिर कमसिन होली आई है........"