दोस्तों, इधर काफी मसरुफियात रही .... ब्लॉग पर भी कम ही आना जाना हो पाया. खैर, फिर से इस क्रम को लगातार बनाये रखने की जद्दोजहद में एक ग़ज़ल हो गयी है. अरसे बाद हुयी इस ग़ज़ल को पेशे खिदमत कर रहा हूँ .......!
सिर्फ ज़रा सी जिद की खातिर अपनी जाँ से गुज़र गए,
एक शिकस्ता किश्ती लेकर हम दरिया में उतर गए !!
तन्हाई में बैठे बैठे यूँ ही तुमको सोचा तो,
भूले बिसरे कितने मंज़र इन आँखों से गुज़र गए !!
जब तक तुम थे पास हमारे नग्मा रेज़ फज़ाएँ थीं,
और तुम्हारे जाते ही फिर सन्नाटे से पसर गए !!
हीरें भी क्यूँ शर्मिंदा हों नयी कहानी लिखने में,
जब इस दौर के सब राँझे ही अहदे वफ़ा से गुज़र गए !!
हर पल अब भी इन आँखों में उसका चेहरा रहता है,
कहने को मुद्दत गुज़री है उसकी जानिब नज़र गए !!
मज़हब, दौलत, जात, घराना, सरहद, गैरत, खुद्दारी
एक मुहब्बत की चादर को कितने चूहे कुतर गए !!
उसकी भोली सूरत ने ये कैसा जादू कर डाला,
उससे मुख़ातिब होते ही सब मेरे इल्मो हुनर गए !!