तुफैल चतुर्वेदी को पचासवें जन्म दिन की बधाई.......! तुफैल साहब का नाम शाइरी की दुनिया में बहुत जाना पहचाना नाम है. कल उनका पचासवां जन्म था....... पार्टी नोएडा में ही थी, सो मजेदार जश्न करने का मौका मिला.........पार्टी जोरदार थी, कुछ हाई प्रोफाइल लोग वहां थे ही, पेज-3 पार्टी की तर्ज़ पर यह पार्टी किसी शाइर की कम , किसी प्रोफेशनल की ज्यादा थी. रंगीनियाँ, बढ़िया खाना, रनिंग बार, संगीत..... यह सब पार्टी की जान बने हुए थे , बहरहाल तुफैल साहब को उनके पचासवें जन्मदिन की बहुत-बहुत मुबारक बाद।
तुफैल चतुर्वेदी के बारे में यूँ तो शाइरी की दुनिया में सभी वाकिफ हैं मगर एक छोटा सा परिचय मैं यहॉं देना लाजिमी समझता हूँ... तुफैल साहब मूलतः उत्तराखंड के काशीपुर जमीदारों परिवार से तआल्लुक रखते है.......बचपन उसी शानो-शौकत में बीता. सेब के बाग-बगीचों में घूमते हुए दिन बीत रहे थे कि हज़रत ने कहीं दाग साहब का शेर पढ लिया ’’कि हाय किस वक्त कम्बख्त खुदा याद आया’’...... इस शेर ने तुफैल को शायरी के पाश में ऐसा जकडा कि तुफैल साहब आज तक उसी जादू में बधे हुए हैं. तुफैल ने अपनी शाइरी तब शुरू की जब वे स्कूल में थे........ये शाइरी आज तक जारी है! 1961 में जन्में तुफैल का वास्तविक नाम विनय कृष्ण है ......... विनय से वे 'तुफैल' कब और कैसे बन गए, उन्हें खुद भी याद नहीं ....... नैनीताल से स्कूल, कालेज के दौरान ही शेर कहने-पढने का ऐसा चस्का लगा कि अब वही उनकी दुनिया हो गयी है. आजकल वे 'लफ्ज़ ' पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं जो हास्य व्यंग्य और गजल छापने वाली पत्रिकाओं में अव्वल नम्बर की पत्रिका है. तुफैल साहब इससे पूर्व पाकिस्तानी व्यग्यकार - मुशताक अहमद युसुफी की तीन रचनाओं का उर्दू से हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं,जो जबरदस्त लोकप्रिय रहे.......’खोया पानी’ ,’मेरे मुह में खाक’ और ’धनपात्र ’ नाम से इन उपन्यासों ने हिन्दी पाठकों को श्रेष्ठतम उर्दू व्यंग्य पढने का मौका दिया .
तुफैल साहब की शख्सियत एकदम अलग और एकदम बिन्दास है..... अपनी पसन्दगी या नापसन्दगी को वे कभी नहीं छुपाते.............अगर कोई चीज उन्हें पसन्द नहीं , तो खुले आम उसे जाहिर भी कर देते है. यही बात वे गजलों पर भी लागू करते है, अगर उन्हें कोई गजल या शाइर पसन्द नहीं है तो उसे खुल के वे नकारते हैं..........यह अलग बात है कि वे जब ऐसा करते हैं तो ऐसा करने के पीछे वे कारण भी गिनाते हैं ,जिन्हें काटना आसान नहीं होता. आज के समय में कई बडे नामचीन शाइरों से तुफैल का ’डिफरेन्स' इसी वजह से है. कारण साफ है तुफैल को जो कुछ कहना है..........बिना लाग-लपेट के कह ही देते है, अंजाम बला से ........!
तुफैल ’93 में काशीपुर ,नैनीताल होते हुए नोएडा आ गए, और फिर यहीं के हो कर रह गए. विवाह किया और अब तो साढे-तीन साल के बच्चे के पिता भी हैं...... ! शुरुआत में ’रसरंग’ नाम से संकलन निकाला, रासरंग बाद में ’लफ्ज’ में तब्दील हो गयी जो अभी तक मुसलसल प्रकाशित हो रही है. वैसे तो तुफैल साहब ने शाइरी में किसी को उस्ताद नही बनाया मगर कृष्ण बिहारी ’नूर’ की कुर्बतें उन्हें जरूर मिलीं. शायरी का शौक और साथ में अध्यात्म.........यह भी एक साथ दौर चला, 12 वर्षो तक साधू के वेश में वे मंचों से शेर पढते रहे. बहरहाल आज के तुफैल चतर्वेदी सेआप मिलें तो लगेगा कि वे बिगडैल किस्त के व्यक्ति है....... गलत बात पर भड़क जाते है, छोटो से स्नेह भी रखते है औरउन्हें मौके बेमौके लताड़ भी लगाते रहते है. फक्कडी स्वभाव के हैं सो खुद को ’बाजार’ से दूर ही रखा है, ’मार्केटिंग' के सारे गुर जानने के बाद भी ’मार्केटिंग से बचते हैं........फिलहाल ’लफ्ज’ को चलाने की जिद में अपना प्लाट बेच चुके है........कहते है कि अच्छी शायरी को पाठकों सामने लाना मेरा ’ध्येय है,जो मैं किसी भी कीमत पर करूंगा.....! फिलहाल मैं ज्यादा न लिखकर सीधे उनके कलाम पर आता हूँ , दो गजलें पेश हैं, जो उनकी कृति ’सारे वरक तुम्हारे’ से ली गयी है. पढिए और उन्हें पचास साल होने की बधाई दीजिए-
तुफैल चतुर्वेदी के बारे में यूँ तो शाइरी की दुनिया में सभी वाकिफ हैं मगर एक छोटा सा परिचय मैं यहॉं देना लाजिमी समझता हूँ... तुफैल साहब मूलतः उत्तराखंड के काशीपुर जमीदारों परिवार से तआल्लुक रखते है.......बचपन उसी शानो-शौकत में बीता. सेब के बाग-बगीचों में घूमते हुए दिन बीत रहे थे कि हज़रत ने कहीं दाग साहब का शेर पढ लिया ’’कि हाय किस वक्त कम्बख्त खुदा याद आया’’...... इस शेर ने तुफैल को शायरी के पाश में ऐसा जकडा कि तुफैल साहब आज तक उसी जादू में बधे हुए हैं. तुफैल ने अपनी शाइरी तब शुरू की जब वे स्कूल में थे........ये शाइरी आज तक जारी है! 1961 में जन्में तुफैल का वास्तविक नाम विनय कृष्ण है ......... विनय से वे 'तुफैल' कब और कैसे बन गए, उन्हें खुद भी याद नहीं ....... नैनीताल से स्कूल, कालेज के दौरान ही शेर कहने-पढने का ऐसा चस्का लगा कि अब वही उनकी दुनिया हो गयी है. आजकल वे 'लफ्ज़ ' पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं जो हास्य व्यंग्य और गजल छापने वाली पत्रिकाओं में अव्वल नम्बर की पत्रिका है. तुफैल साहब इससे पूर्व पाकिस्तानी व्यग्यकार - मुशताक अहमद युसुफी की तीन रचनाओं का उर्दू से हिन्दी अनुवाद कर चुके हैं,जो जबरदस्त लोकप्रिय रहे.......’खोया पानी’ ,’मेरे मुह में खाक’ और ’धनपात्र ’ नाम से इन उपन्यासों ने हिन्दी पाठकों को श्रेष्ठतम उर्दू व्यंग्य पढने का मौका दिया .
तुफैल साहब की शख्सियत एकदम अलग और एकदम बिन्दास है..... अपनी पसन्दगी या नापसन्दगी को वे कभी नहीं छुपाते.............अगर कोई चीज उन्हें पसन्द नहीं , तो खुले आम उसे जाहिर भी कर देते है. यही बात वे गजलों पर भी लागू करते है, अगर उन्हें कोई गजल या शाइर पसन्द नहीं है तो उसे खुल के वे नकारते हैं..........यह अलग बात है कि वे जब ऐसा करते हैं तो ऐसा करने के पीछे वे कारण भी गिनाते हैं ,जिन्हें काटना आसान नहीं होता. आज के समय में कई बडे नामचीन शाइरों से तुफैल का ’डिफरेन्स' इसी वजह से है. कारण साफ है तुफैल को जो कुछ कहना है..........बिना लाग-लपेट के कह ही देते है, अंजाम बला से ........!
तुफैल ’93 में काशीपुर ,नैनीताल होते हुए नोएडा आ गए, और फिर यहीं के हो कर रह गए. विवाह किया और अब तो साढे-तीन साल के बच्चे के पिता भी हैं...... ! शुरुआत में ’रसरंग’ नाम से संकलन निकाला, रासरंग बाद में ’लफ्ज’ में तब्दील हो गयी जो अभी तक मुसलसल प्रकाशित हो रही है. वैसे तो तुफैल साहब ने शाइरी में किसी को उस्ताद नही बनाया मगर कृष्ण बिहारी ’नूर’ की कुर्बतें उन्हें जरूर मिलीं. शायरी का शौक और साथ में अध्यात्म.........यह भी एक साथ दौर चला, 12 वर्षो तक साधू के वेश में वे मंचों से शेर पढते रहे. बहरहाल आज के तुफैल चतर्वेदी सेआप मिलें तो लगेगा कि वे बिगडैल किस्त के व्यक्ति है....... गलत बात पर भड़क जाते है, छोटो से स्नेह भी रखते है औरउन्हें मौके बेमौके लताड़ भी लगाते रहते है. फक्कडी स्वभाव के हैं सो खुद को ’बाजार’ से दूर ही रखा है, ’मार्केटिंग' के सारे गुर जानने के बाद भी ’मार्केटिंग से बचते हैं........फिलहाल ’लफ्ज’ को चलाने की जिद में अपना प्लाट बेच चुके है........कहते है कि अच्छी शायरी को पाठकों सामने लाना मेरा ’ध्येय है,जो मैं किसी भी कीमत पर करूंगा.....! फिलहाल मैं ज्यादा न लिखकर सीधे उनके कलाम पर आता हूँ , दो गजलें पेश हैं, जो उनकी कृति ’सारे वरक तुम्हारे’ से ली गयी है. पढिए और उन्हें पचास साल होने की बधाई दीजिए-
अब्र का टुकड़ा रूपहला हो गया
चाँदनी फूटेगी, पक्का हो गया
चाँदनी फूटेगी, पक्का हो गया
इक ख़ता सरज़द हुई सरदार से
दर-ब-दर सारा क़बीला हो गया
दर-ब-दर सारा क़बीला हो गया
धूप की ज़िद हो गई पूरी मगर
आख़िरी पत्ता भी पीला हो गया
आख़िरी पत्ता भी पीला हो गया
एक पल बैठी हुई थीं तितलियां
दूसरे पल उसका चेहरा हो गया
दूसरे पल उसका चेहरा हो गया
आंसुओं में झिलमिलाये उनके रंग
शाम क्या आई सवेरा हो गया
शाम क्या आई सवेरा हो गया
अब्र की शब का अजब था एहतिमाम
चांद आधा, दर्द दुगना हो गया
चांद आधा, दर्द दुगना हो गया
एक सिसकी थम गई आंसू बनी
एक आंसू बढ़के दरिया हो गया
एक आंसू बढ़के दरिया हो गया
वो गली तो ज़िन्दगी का ख़्वाब थी
मैं जहां का था वहीं का हो गया
मैं जहां का था वहीं का हो गया
उसने भी हंसने की आदत डाल ली
‘‘हमसे वो बिछुड़ा तो हमसा हो गया’’
‘‘हमसे वो बिछुड़ा तो हमसा हो गया’’
हर कदम बढ़ती गईं गहराइयां
और पानी सर से ऊँचा हो गया
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वो बिछड़ते वक़्त होठों से हँसी लेता गया
मुझमें साँसें छोड़ दीं, बस ज़िन्दगी लेता गया
वो भी होठों पर लिये आया था दरिया अब की बार
मैं भी मिलते वक़्त सारी तिश्नगी लेता गया
धूप का अहसास यूँ रहता है मेरी रूह में
एक साया जैसे सारी छाँव ही लेता गया
चाँद और फिर चाँद पूनम का किसे उम्मीद थी
रौशनी देने के बदले रौशनी लेता गया
एक गहरा घाव जैसे तोड़ दे राही का दम
मेरा माज़ी आने वाली ज़िन्दगी लेता गया