एक के बाद एक बुरी ख़बरें..... अभी जगजीत साहब के निधन से उबरना भी नहीं हो पाया था कि भारतीय साहित्य के गौरव श्रीलाल शुक्ल ने भी 28 अक्तूबर को हमसे विदा ले ली. ये अलग बात है कि वे पिछले कई वर्षों से अस्वस्थ थे, बिस्तर पर ही रहते थे. उनकी अस्वस्थता के चलते ही इसी 18 अक्तूबर को उन्हें 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करने के लिए राज्यपाल महोदय को लखनऊ के अस्पताल में जाना पड़ा था. इस साल 31 दिसंबर को श्रीलाल जी 86 वर्ष के हो जाते, मगर इन सब के बावजूद उनके निधन की खबर से एक झटका सा लगा....!
शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के गांव अतरौली में हुआ था. उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की. 1949 में राज्य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की. 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए. उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है. 'सूनी घाटी का सूरज' और 'अज्ञातवास' नामक उपन्यासों से अपनी लेखन यात्रा आरम्भ करने के बाद श्रीलाल जी ने उस उपन्यास की रचना की जिसने हिंदी साहित्य को एक नया पड़ाव दिया और व्यंग्य को एक नया आकाश सुपुर्द किया ......! 1968 में प्रकाशित 'रागदरबारी' के नाम से लिखी ये कृति हिंदी साहित्य की सर्वकालिक महानतम रचनाओं में से एक सिद्ध हुयी. राग दरबारी के सारे पात्र- स्थितियां भारतीय समाज के उस स्वरुप को निर्धारित करते हैं जिनके बीच में हमारा जीवन साँसें लेता है.... रुप्पन बाबू हों या वैद्य जी.... लंगड़ हो या कोतवाल साहब. भंग पीसने की अदा हो या कि वैद्य जी की चौपाल, तहसील में ठोकरें खाता आम आदमी हो या मेले -ठेले के बीच जीवन का उल्लास ..... राग दरबारी के हरेक प्रसंग में देशज स्थितियां विद्यमान हैं... हमारी वास्तविक जिंदगी को बयां करती हुईं. रागदरबारी की गौरवगाथा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसका अनुवाद अंग्रेजी के साथ-साथ 15 भारतीय भाषाओं में हुआ है. राग दरबारी के लिए उन्हें 1970 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. रागदरबारी के अलावा भी वे उम्र भर लेखन साधना में जुड़े रहे, उनकी सक्रियता उनके 10 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, नौ व्यंग्य संग्रह, एक आलोचना, दो विनिबंध और एक साक्षात्कारों की पुस्तक प्रमाणित करते हैं.
लिखने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि राग दरबारी के बाद हिंदी गद्य को दो भागों में बांट कर देखा जा सकता है-राग दरबारी पूर्व हिंदी गद्य और उत्तर राग दरबारी हिंदी गद्य. हिंदी साहित्य में व्यंग्य यदि मुख्य धारा में आया तो इसके लिए नि:संदेह श्रीलाल शुक्ल की युगांतरकारी भूमिका रही. साहित्य के सुधियों शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने 'राग दरबारी' न पढ़ी होगी..... बल्कि शर्त इस बात पर ज़रूर लगाई जाती रहीं कि किसने रागदरबारी को कितनी दफा पढ़ा है. पाठकों को इस किताब का एक एक दृश्य और संवाद याद रहे...... ! देखा जाए तो राग दरबारी स्वतंत्र भारत के तमाम स्वप्नों और मूल्यों का कठोर यथार्थ प्रस्तुत करती ऐसी रचना है जो हमारे समाज- शासन- प्रशासन- व्यवस्था आदि का सही चित्रण और विश्लेषण करती है. यह रचना ऐसी सहज ऐसी भाषा में सामजिक ताना बाना बुनती है कि जो पाठकों के साथ सीधा रिश्ता जोड़ लेती है.... ठेठ अवधी भाषा के प्रसंग भी पाठकों को वही आनंद देते हैं जो उन्हें उनकी स्थानीय भाषा उपलब्ध कराती है. समय बीतता गया मगर इस रचना की जो आंच 1968 में जल रही थी उसमे वही तेवर 2011 तक कायम रहा. यह वो रचना है जिसने दिखाया कि यदि बात कायदे से कही जाए तो भूमंडलीकरण जैसी आंधी भी स्थानीयता की शक्ति को कम नहीं कर सकती.
राग दरबारी के अतिरिक्त उनके उपन्यास मकान, पहला पड़ाव और बिस्त्रामपुर का संत हिंदी उपन्यास के आंगन में अपनी तरह के अकेले वृक्ष हैं. बिस्त्रामपुर का संत में राजनीति, समाजशास्त्र और सांस्कृतिक अपकर्ष का जो मिला-जुला वृत्तांत बना है. उनके प्रयाण से कुछ समय तक पहले तक उनके ताज़ा व्यंग्य देश कि सभी नामचीन पात्र- पत्रिकाओं में छपते ही रहते थे....! हैरानी होती है श्रीलाल जी की इस जीवटता पर..... उनके प्रयाण से कुछ समय पूर्व तक उनकी चेतना सही सलामत रही....!
शुक्ल जी साहित्य के साथ कई अन्य कला रूपों के मर्मज्ञ थे. शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रुचि थी. सभाओं, समारोहों, संगोष्ठियों में उनकी विद्वता और उनकी प्रत्युत्पन्नमति एक ख़ास आकर्षण पैदा करती थी. वे उन चंद रचनाकारों में से थे, जिन्होंने हिंदी की ताकत का एहसास विश्वस्तर पर कराया और जिनके लिए पाठकों ने भी अपने प्यार में कभी कमी नहीं होने दी. श्रीलाल जी के व्यक्तित्व में बौद्धिकता, सहजता और हार्दिकता का अद्भुत संतुलन था. अनुशासन के साथ जिंदादिली, यह उनकी पहचान थी. उन्होंने एक भरपूर यशस्वी जीवन जिया. उन्हें वर्ष 2009 के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, - वर्ष 2008 में पद्मभूषण, 2005 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यशभारती सम्मान,1999 में बिस्रामपुर का संत के लिए बिरला फाउंडेशन द्वारा व्यास सम्मान, 1997 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मैथिली शरण गुप्त सम्मान,1996 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शरद जोशी सम्मान, 1994 में उप्र हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान, 1988 में उप्र हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, 1987-90 तक भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से एमेरिट्स फेलोशिप, 1978 में मकान के लिए मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य परिषद द्वारा सम्मानित, 1981 में बेलग्रेड में अंतरराष्ट्रीय लेखकों की सभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया...... इत्यादि ! इसके अतिरिक्त वे 1979-80 में भारतेंदु नाट्य अकादमी के निदेशक का कार्य दायित्व भी संभाला. इस कालजयी लेखक पर उनके 80वें जन्मदिवस पर उनके लिए एक पुस्तक 'श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन' भी प्रकाशित हुई जिसमे डॉ. नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण और रघुवीर सहाय जैसे मूर्धन्य लेखकों के लेख हैं. पद्मविभूषण सहित दो दर्जन से ज्यादा सम्मान और पाठकों का अंतहीन प्यार-स्नेह ......... सचमुच जिस काबिल वे थे उन्हें वो मिला भी. साहित्य के आँगन में व्यंग्य की बेल रोपने और फलने फूलने का वातावरण तैयार करने वाले इस महान लेखक को नमन.... ! उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए अपूर्णीय क्षति है जो शायद ही कभी पूरी किया जा सके....! जब तक हिंदी साहित्य रहेगा, श्रीलाल जी इस साहित्य के आकाश पर जगमगाते रहेंगे. श्रीलाल जी को सभी साहित्यप्रेमियों की तरफ से एक बार पुनश्च नमन.....!