खुरदुरी 'धरती की सतह' पर नंगे पाँव चलते और 'समय से मुठभेड़' करते अदम साहब भी 18 दिसंबर की अल सुबह सवा पांच बजे इस संसार को छोड़ कर चल दिए......! वैसे भी बीते दिनों में कई सृजन धर्मियों ने संसार छोड़ दिया है. वाकई इस बरस के आखिर तक आते आते एहसास हो रहा है कि कितने सारे नगीने विदा हो गए..... श्रीलाल शुक्ल, जगजीत सिंह, भूपेन दा, देवानंद, शम्मी कपूर, भारत भूषण और अब अदम गोंडवी साहब. अदम साहब का जाना ग़ज़ल के संसार से सच्चाई का जाना है..... तल्ख़ तेवरों में सच को कहने का जितना जज़्बा उनमें था शायद ही समकालीन ग़ज़लकारों में किसी में रहा हो.....! उन्होंने सच को सिर्फ कहा ही नहीं जिया भी वरना कोई तो वज़ह नहीं थी कि आखरी वक्त भी वे तीन लाख क़र्ज़ और 20 बीघा ज़मीन गिरवी रखे हुए संसार से विदा हो गए. अदम गोंडवी उन रचनाकारों में थे जिन्होंने बिंब और प्रतीकों से आगे निकल कर आम आदमी की ज़ुबान को अभिव्यक्ति की वुस'अत बख्शी.......! धूमिल और दुष्यंत की परमपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जो लिखा वो एक दम सच और बेबाक रहा........ ! आम आदमी से जुड़े सारोकार और उसकी भावनाओं को मंच से आवाज़ देने में अदम साहब का कोई जोड़ नहीं था...... ! 'समय से मुठभेड़' नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि कैफ़ भोपाली ने लंबी भूमिका हिंदी में लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के समकक्ष बताया ....!
अदम साहब अपने इस नाम से इतने मशहूर थे कि उनका असली नाम रामनाथ सिंह तो बहुत कम लोग जानते थे. 22 अक्तूबर 1947 उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा परसपुर नामक छोटे से गाँव में पैदा हुए इस फक्कड़ी स्वाभाव वाले इस कवि को देश के किसी भी कवि सम्मलेन में अपने पहनावे की वजह से अलग से पहचान लिया जाता था. 1980 और 90 के दशक में उनकी गज़लें सुनने के लिए श्रोता रात रात भर उनका इन्तिज़ार करते रहते थे. वे खेती किसानी करते रहे और अपने आस पास के परिवेश की आवाज़ बन कर गूंजते रहे. उनकी कविताओं- गजलों में आक्रोश था, आम आदमी का दर्द था.....! इस दर्द की आवाज़ को महसूस करें इस रचनाओं के जरिये......------
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें
या फिर
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे
और ये कालजयी रचना
काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है
या
फिर ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब
अदम साहब का पहनावा आचार व्यवहार हमेश ठेठ गंवई रहा ...... उनसे मिलिए तो लगता था देश के किसी आम आदमी से आपका साबका पड़ा हो......! वे ऐसे ही दावा नहीं करते थे कि- वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गज़ल.... उनका हर लफ्ज़ हमारे गाँव-खेत -खलिहान का आईना रहा.
लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है
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घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
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भीख का ले कर कटोरा चांद पर जाने की ज़िद
ये अदा ये बांकपन ये लंतरानी देखिए
मुल्क जाए भाड में इससे इन्हें मतलब नहीं
कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए
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भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
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फटे कपड़ों में तन ढाके गुज़रता है जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडण्डी 'अदम' के गाँव जाती है
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न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर मेंकोठी के ज़ीने से
अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से
बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.
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घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है
सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है