मार्च 22, 2012

20वें विश्व पुस्तक मेले में ‘वाबस्ता’ का लोकार्पण !



मुद्दत से ब्लॉग पर अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाया। दरअसल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव में लगातार प्रशासनिक व्यस्तता के चलते ब्लॉग की गलियों से गुजरना जरा कम ही हो पाया।



इसी बीच दिल्ली के २०वे विश्व पुस्तक मेले में मेरी ग़ज़लों/नज़्मों के संग्रह वाबस्ताका लोकार्पण भी हुआ। ऐसे विश्व पुस्तक मेले में जहाँ देश विदेश के हजारों प्रकाशक जमा हुये हों और सैकडों नामचीन-गैर नामचीन लेखकों की रचनाओं का लोकार्पण हुआ हो उस माहौल में मेरी पहली कृति का आना मेरे लिये सुकून की बात रही। वाबस्ताका प्रकाशन, 'प्रकाशन संस्थान -दिल्ली' द्वारा किया गया है। लगभग आयताकार डिजायन वाली इस कृति का आवरण पृष्ठ देश के प्रख्यात चित्रकार डा0 लाल रत्नाकर जी ने तैयार किया है। इस मजमुऐ को सामने लाने में यूँ तो कई करीबी लोगों का आशीर्वाद और मेहनत साथ रही लेकिन फिर भी इस अवसर पर बेतरबीब से पड़े काग़जों को मज़मूए की शक्ल में आप तक लाने में अनुज पंकज (जो आजकल व्यापार कर में उप-आयुक्त हैं), हृदेश (हिन्दुस्तान में सह संपादक), पुष्पेन्द्र, श्यामकांत को भी मैं ज़हृन में लाना चाहूँगा , जिनके बगै़र यह मज़मूआ आना मुमकिन न था।



मेरे जैसे व्यक्ति के लिये वाबस्ताके जरिये दरबारे ग़ज़ल में ठिठके हुये कदमों से अपनी आमद की कोशिश भर है। शुक्रगुजार हूं उर्दू अदब की अजीम शख्सियत जनाब शीन काफ़ निज़ाम का जिन्होंने मेरे जैसे नवोदित रचनाकार के प्रथम प्रकाशित संग्रह पर भूमिका लिखकर मेरी हौसला अफजाई की है। गुजरे आठ-दस बरसों में मैं जो कुछ भी अच्छा बुरा कह सका उनमें से कुछ चुनिन्दा ग़ज़लों/नज़्मों को इस संग्रह के माध्यम से आप सब के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है। मेरी इन ग़ज़लों/नज़्मों को उस्ताद शाइर जनाब अकील नोमानी की नजरों से गुजरने का भी मौका मिला है। मैं वाबस्ता के प्रकाशन के अवसर पर अपने सभी शुभ चिन्तकों को शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने मुझे इतना स्नेह दिया कि मैं इस संग्रह को प्रकाशित करने की हिम्मत जुटा सका। मैं जनाब शीन काफ़ निजा़म, जनाब मोहम्मद अलवी, प्रो. वसीम बरेलवी, श्री शशि शेखर, जनाब अक़ील नोमानी, श्री हरीशचन्द्र शर्मा जी, श्री अतुल महेश्वरी , डॉ . लाल रत्नाकर, श्री कमलेश भट्ट कमल’, श्री विनय कृष्ण तुफै़लचतुर्वेदी के अलावा मैं अपने माता पिता-पत्नी का दिल की गहराईयों से आभार प्रकट करता हूँ कि जिनकी मदद से मैं यह संग्रह आप सबके समक्ष पेश कर सका। इस संग्रह की एक ग़ज़ल आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ-


इश्क में लज़्ज़ते मिला देखूँ
उससे करके कोई गिला देखूँ

कुछ तो ख़ामोशियां सिमट जाएँ
परदा-ए-दर को ही हिला देखूँ

पक गए होंगे फल यकीनन अब
पत्थरों से शजर हिला देखूँ

जाने क्यूँ ख़ुद से ख़ौफ लगता है
कोई खंडर सा जब कि़ला देखूँ

इस हसीं कायनात बनती है
सारे चेहरों को जब मिला देखूँ

कौन दिल्ली में ‘रेख़्ता’ समझे
सबका इंगलिस से सिलसिला देखूँ

बैठ जाऊँ कभी जो मैं तन्हा
गुजरे लम्हों का का़फि़ला देखूँ


(**** हिंदी समाचारपत्र हिन्दुस्तान ने वाबस्ता पर एक समीक्षात्मक लेख प्रकाशित किया है जो यहाँ पढ़ा जा सकता है http://www.livehindustan.com/news/tayaarinews/tayaarinews/article1-story-67-67-227149.html )