मणीन्द्रनाथ बनर्जी का नाम भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में बड़े
सम्मान के साथ लिया जाता है। उनकीशहादत उत्तर-प्रदेश के फतेहगढ़ के सेण्ट्रल जेल में हुई थी।
लगातार दो माह के आमरण अनशन के पश्चात जेल में ही उन्होंने 20 जून 1934 को प्राण त्यागे। आज उनकी शहादत की 80वीं पुण्य तिथि है।
मणीन्द्रनाथ
बनर्जी का पूरा परिवार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुडा हुआ था।
उनका जन्म 13 जनवरी 1907
में बनारस में हुआ था। मणीन्द्रनाथ के पूर्वज
बंगाल से आकर बनारस में बस गये थे। इनके पिता श्री ताराचन्द्र बनर्जी वनारस के सुप्रसिद्व
होम्योपैथिक चिकित्सक थे। इनकी माता सुनयना एक साहसी महिला थी तथा क्रान्तिकारी
विचारधारा से सहमत थी। दादा हरीशंकर उर्फ हरीप्रसन्न डिप्टीकलेक्टर के पद पर रहे
थे जो देश प्रेम के चलते अपने पद से त्याग पत्र देकर 1886 में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो
गये थे। परिवार के बुजुर्गों की देश प्रेम की भावना का प्रभाव आगे की पीढ़ी पर भी
पड़ा। ताराचन्द्र बनर्जी की आठ संतानें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गयी।
मणीन्द्रनाथ बनर्जी अपने अन्य भाइयों की तरह आन्दोलन में शामिल हो गए। परिजनों से मिले संस्कार से देश प्रेम की भावना लिये आठों भाई जीवनधन, प्रभाशबाबू, मणीन्द्रनाथ,
फणीन्द्रनाथ, अमिय,
भूपेन्द्र, मोहित और बसंतबाबू स्वतंत्रता संग्राम में कूद पडे़। इनके घर पर क्रान्तिकारियों का आना जाना लगा
रहता था। उन दिनों हिन्दुस्तान में क्रांतिकारी आंदोलन का उफान था। देश के विभिन्न भागों में क्रांतिकारी संगठन
कार्यरत थे जो युवाओं को आंदोलन से जुड़ने के लिये प्रेरित करते थे। इसी दौरान 16-17 साल के युवक मणीन्द्रनाथ बनर्जी का झुकाव ‘‘अनुशीलन‘‘ क्रांतिकारी दल की तरफ हुआ। वे क्रान्तिकारी संगठन ‘‘अनुशीलन‘‘ में शामिल हो गये थे।
1925 का अगस्त माह क्रांतिकारी आन्दोलन के इतिहास में
महत्त्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। इस महीने की 9 तारीख़ को पण्डित रामप्रसाद विस्मिल के नेतृत्व में
क्रांतिकारियों ने काकोरी के पास रेलगाड़ी का खजाना लूटा ।
जिसमें चालीस लोग गिरफ्तार हुये थे।जिसमे रामप्रसाद विस्मिल,अशफाक उल्लाह खां ,रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की सजा तथा शेष लोगों को अन्य प्रकार की सजायें दी गयी थीं।
महत्त्वपूर्ण
तथ्य यह है कि काकोरी केस की जाँच सीआईडी इन्सपेक्टर जितेन्द्रनाथ बनर्जी ने की
तथा बड़ी ही होशियारी से क्रान्तिकारियों को फंसाया। वे मणीन्द्रनाथ के मामा थे। बाद में ब्रिटिश सरकार से क्रान्तिकारियों को सजा दिलाने के
लिये इन्हें ब्रिटिश सरकार ने ईनाम के तौर पर रायबहादुर की उपाधि
प्रदान की। 17
दिसम्बर 1927 को गोंडा जेल में अपने मित्र राजेन्द्र लाहिड़ी के फांसी पर चढ़ने के बाद
मणीन्द्र नाथ ने इसके जिम्मेदार अपने मामा को मारने का निश्चय कर लिया। 19 जनवरी सन् 1928 को गोदौलिया स्थित मारवाड़ी अस्पताल के सामने जाते हुये अपने मामा जितेन्द्र नाथ बनर्जी को मणीन्द्रनाथ ने यह
कहते हुये गोली मार दी कि ‘‘जितेन्द्र दा, फांसी दिलाने का ईनाम लो‘', गोलियाँ लगते ही मणीन्द्रनाथ वहां से भाग निकले लेकिन
न जाने उनके मन में क्या आया कि वह वापस जितेन्द्र नाथ के पास आये और बोले
"रायबहादुर तुम्हें काकोरी का इनाम मिल गया"। जमीन पर पड़े जितेन्द्र
नाथ के शोर मचाने पर मणीन्द्रनाथ गिरफ्तार कर लिये गये।
इसी बीच उन्होंने अपनी पिस्तौल फेंक दी जिसे उनका एक साथी उठाकर भाग गया। यद्यपि तीन दिन बेहोश रहने के बाद भी जितेन्द्र नाथ बनर्जी बच गये
लेकिन पर्याप्त सबूतों के अभाव में भी मणीन्द्रनाथ को 10 वर्ष के कारावास तथा तीन वर्ष की तन्हाई की सजा सुनाई गई और फतेहगढ़
सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया। सजा के विरूद्व अपील के लिये मणीन्द्रनाथ ने अपील की
परन्तु अपील खारिज हो गयी तथा सजा बरकरार रही बाद में काकोरी काण्ड में सजा पाये
मन्मथनाथ गुप्त 1924
में तथा रमेशचन्द्र गुप्त व यशपाल भी फतेहगढ़
सेण्ट्रल जेल में पहुँच गये।
सेण्ट्रल जेल में एक दिन जेलर ने राजनैतिक
बन्दी चन्द्रमा सिंह को पीटा। इसके विरोध में चन्द्रमा सिंह ने अनशन शुरू कर दिया।
14
मई, 1934 से सभी राजनैतिक बन्दी भूख हड़ताल पर उतर आये
किन्तु बाद में सरकारी धमकी के चलते चन्द्रमा ने भूख हड़ताल तोड़ दी लेकिन मणीन्द्रनाथ फिर भी भूख हड़ताल पर बने रहे। भूख हड़ताल से गिरते स्वास्थ्य तथा
असहाय स्थितियों में मन्मथनाथ एवं यशपाल ने काफी देखभाल की परन्तु दिनांक 20 जून 1934 को सायंकाल सवा चार बचे मणीन्द्रनाथ बनर्जी हमेशा के लिये अपने मित्र मन्मथनाथ की गोद में सो
गये। जेल अधिकारियों ने मणीन्द्रनाथ के शव को घटियाघाट स्थित शमशान घाट पर उनकी माँ की उपस्थित में दाह संस्कार कर दिया। उनके
साथी कैदी मणीन्द्रनाथ को सुदामाजी कहा करते थे।
उनकी स्मृति में केन्द्रीय कारागार फतेहगढ़
के मुख्य द्वार पर स्थित बनर्जी की प्रतिमा स्थापित की गयी है! इस प्रतिमा के
समक्ष ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले‘ की तर्ज पर प्रतिवर्ष उन्हें भावभीनी
श्रृद्वांजलि देते हुये उनके वीरतापूर्ण कार्य को और उनकी शहादत को याद
किया जाता है।