कुल मिलकर एक बहुत बड़ा रचना संसार है सईद मिर्ज़ा साहब का......वे एक जागरूक इंटेलेक्चुअल टाइप के डायरेक्टर तो हैं ही, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी बखूबी महसूस करते हैं......! अपनी जेहनियत को उन्होंने किसी दायरे में नहीं समेटा है....... डायरेक्टर के साथ साथ वे रायटर भी हैं पिछले साल उनकी लिखी किताब "अम्मी : लेटर टू ए डेमोक्रटिक मदर" भी आयी थी......इसके अलावा टी.वी. धारावाहिक ‘नुक्कड़’.....और ‘इन्तिज़ार’ के पात्र तो अभी तक जेहन में वैसे के वैसे ही बने हुए हैं....! बीच में पता चला कि उनका रुझान पत्रकारिता की तरफ हुआ....फिलिस्तीन- रामल्ला जाकर कुछ रिपोर्टिंग वगैरह करते रहे....! फिलहाल वे 'स्व' की खोज में लगे हैं......गोवा में समंदर के किनारे घंटो बैठकर जीवन के असली मर्म को पहचानने की कोशिश में मशरूफ हैं.......प्रबंधन वाले लोग समझ गए होंगे कि अब्राहम मस्लो के 'सेल्फ अक्चुलाईजेसन' की यात्रा की तरफ वे निकल चुके हैं......!
इस फिल्म उत्सव में उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ तो दुनिया-जहाँ के विषयों पर चर्चा हुयी......राजनीति- अर्थ- साहित्य...इत्यादि इत्यादि......! फिल्मों के बारे में बात न हो यह मुमकिन न था......! मैंने जब यह पूछ डाला कि "नसीम" के बाद से आपका रचना संसार सृजन विशेषतया फिल्म क्राफ्टिंग अचानक थम सी गयी है.........इसके पीछे कोई खास वज़ह.......? खूबसूरत चेहरे पर ढाढ़ी ........... सिगरेट का कश लेते हुए लम्बे कद के सईद साहब मुस्कुराते हुए बोले....रचना संसार खैर थमा तो नहीं है........मगर मोड ऑफ़ प्रेजेंटेसन जरूर बदला है...........पहले फिल्म बनाता था, अब उसके अलावा भी बहुत से माध्यम हैं जिनके सहारे खुद को व्यक्त कर रहा हूँ ......अखवार , मंच, किताबें, चिंतन वगैरह -वगैरह !
सच मानिये सईद मिर्ज़ा साहब ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने हमारे बीच घटने वाले समाज के द्वंदों- स्थितियों -हालातों की गहरी पड़ताल की है और आम आदमी की घुटन- एहसास को अपने शिल्प के माध्यम से उकेरा है.........मध्य वर्ग की परेशानियों और ज़मीनी हकीकत के बीच उनका बुना हुआ ताना बाना हमें गहरे से सोचने पर विवश करता है..........! लेकिन नसीम (1996) के बाद से वे फिल्म निर्देशन कि कैप क्यों नहीं पहन रहे हैं........ आखिर उनकी ख़ामोशी कब टूटेगी.......? पूछने पर लम्बी गहरी सांस भरते हुए कहते हैं......"कुछ पता नहीं.......फ़िल्में उनके लिए व्यवसाय कम, सन्देश देने का माध्यम कहीं ज्यादा है......सोचा था कश्मीर पर एक फिल्म बनाऊंगा मगर बात अब तक अधूरी है.......एक नयी फिल्म बनाई तो है "एक ठो चांस" के नाम से, शायद मार्च में देखने को मिले.......कहते हैं कि अब रूह थक सी गयी है.......!" बहरहाल नसीम के बाद उनकी ख़ामोशी टूटे हम तो यही दुआ करते हैं.... भूमंडलीकरण के दौर में जब आम आदमी की पहचान सिनेमा से विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सईद साहब की हिंदी सिनेमा जगत में उपस्थिति बेहद जरूरी है.........सईद साहब के लिए हम यही कहेंगे कि रूह को थकाइये मत........समाज को आप जैसे फिल्मकारों की फिल्मों की शिद्दत से जरूरत है........ !
प्लीज “एक ठो चांस लीजिये न सईद साहब” ............!
19 टिप्पणियां:
भईया....सईद अख्तर मिर्ज़ा जी वाकई में काबिल और एक होनहार निर्देशक हैं.हिंदी सिनेमा को सईद अख्तर मिर्ज़ा ने कई काबिल कलाकार दिए हैं.अस्सी के दशक में पेरलर सिनेमा को एक नई दिशा दी...नये और ज्वलंत विषयों को नये प्रयोगों के साथ सिल्वर स्क्रीन पर पेश किया..संचार के हर माध्यम और विधा पर उनका काम काबिले तारीफ है.वे कला और कलाकार दोनों के असली पारखी हैं....इसका उदाहरण है शाहरुख़ खान....संघर्ष के दिनों में सईद ने ही शाहरुख़ की सबसे पहले पहचाना था...और रहने के लिए छत दी थी...सईद पर आपने खूब लिखा और दिल से लिखा...मजा आ गया.
अभी आता हूँ फिर से ... इस पोस्ट पर भी कहना है...
भैया !
लहालोट हो जाता हूँ , इस सहज - लेखन पर !
अपनी जानकारी तो फिल्म में बहुत कम है .. लगता है
(अब तो और भी ) कि जैसे जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा
छूट जा रहा हो .. संतोष हो रहा है कि आपको लगातार पढ़ते
रहे तो यह कमी भी पूरी हो जायेगी ..
.
पूर्वोक्त टीप में शाहरुख खान की चर्चा है , सईद साहब के प्रिय
हीरो के तौर पर .. इस ' प्रिय हीरो ' की दिशा सईद साहब के
सोच के प्रतिकूल ही पाता हूँ .. ऐसा तो नहीं है कि सईद साहब
अपने इस तराशे गए हीरे के खो जाने से हतोत्साहित हुए हों .. और
आप द्वारा विवेचित ठहराव को प्राप्त हुए हो .. बस सोचने लगा ऐसे ही ..
.
आप के साथ मैं भी कह रहा हूँ ---
''प्लीज “एक ठो चांस लीजिये न सईद साहब” ............! ''
’सिंह’ साहब, आदाब
कई नई जानकारी मिली
धन्यवाद
बहुत सुन्दर भैया
सईद साहब से तारुफ़ कराया सईद साहब के बारे में पढ़
कर बहुत मजा आया |
आप की यही तो खाशियत है की खुद तो बड़ी हस्तियों
मुलाकात करते ही है साथ में सभी ब्लोगर को भी मिलवा देते
इस ब्लॉग में अपनी उम्दा लेखाकारी के द्वारा |
साईद साहब और आपका बहुत आभार
सईद साहब एक संवेदनशेल फिल्मकार हैं ....... हारना उनकी फ़ितरत नही ...... अच्छा लगा उनको और करीब से जान कर .........
सईद पर आपने खूब लिखा और दिल से लिखा.मजा आ गया.अच्छा लगा उनको और करीब से जानकर.
सईद अख्तर मिर्ज़ा जी के बारे मे बहुत अच्छी जानकारी मिली। आपका धन्यवाद और सईद जी को सलाम कहती हूँ। ऐसे संवेदनशील लोगों की फिल्म मगरी मे बहुत जरूरत है । भगवान उन्हें दीर्घ आयू दे। शुभकामनायें
...प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!!
प्रिय मित्र पवन सईद मिर्ज़ा साहब से मुलाकात कराने का शुक्रिया. भुमंदलिकरण के इस दौर में सामानांतर सिनेमा जैसे खो सा गया है. अब सिनेमा विशुद्ध मनोरंजन और पैसा कमाई का जरिया मात्र रह गया है. मिर्ज़ा साहब जैसे लोगो ने भारतीय सिनेमा को एक नई पहचान दी है. 80 का वो सुनहरा दशक अब शायद कभी वापस नहीं आयेगा. लेकिन मेरा मानना है कि आज कि उस intellectual नौजवान पीढ़ी को आगे आना होगा जो कि वाकई कुछ नया करना चाहती है. मिर्ज़ा साहब से सीख लेकर हमें सामानांतर सिनेमा को पुनर्जीवित करना होगा अन्यथा हम अपनी एक अलग पहचान को खो देंगे.
पवन भाई, आपके इस पोस्ट में जब सईद साहब का उत्तर पढ़ा की रूह थक-सी गयी है तो अनायास शहरयार साहब का एक शेर याद आ गया-
रूह जलती है बहुत, जिस्म पिघलता है बहुत
और मैं शहर के जंगल से गुजर जाता हूँ.
वाकई, कभी-कभी वक़्त की संगदिली संवेदनशील व्यक्तियों को आहत कर देती है, लेकिन सईद साहब जैसे लोग ना रहे तो फिर उनकी तरह की मार्मिक और जीवन को बदलने की प्रेरणा देने वाली फ़िल्में कौन बनाएगा? सिनेमा के माध्यम को सईद मिर्ज़ा जैसे जौहरी की सख्त जरुरत है-अन्यथा सेल्लुलोइड के परदे पर कांच के टुकड़े भर आते रहेंगे, हीरे नहीं.
सईद मिर्ज़ा साहब से उनके फिल्मों के मुरीद हर एक बन्दे की अपील है की फिर से वो सार्थक सिनेमा की अपनी दुनिया में लौटे और अपने चाहनेवालों को कुछ और नायाब फिल्मों का तोहफा दे-समाज को कुछ और बेहतर बनाने की प्रेरणा दे. वैसे भी इस समाज में अँधेरा बढ़ता जा रहा है और रौशनी दिन-ब-दिन सिमटती जा रही है. ऐसे वक़्त में सईद साहब जैसे लोग ही समाज को रास्ता दिखाने के लिए मशाल जलाने का काम करेंगे. सईद साहब, लौट आइये फिर से अपनी दुनिया में...
भूल-सुधार
पवन भाई, मैंने अपनी टिप्पणी में जो शेर उधृत किया है वो जाज़िब कुरैशी साहब का है, मैं भूल से शहरयार साहब का लिख बैठा.
यहाँ सीमायें हैं हमारी ! लहालोट हो जाना पड़ता है ऐसी प्रविष्टियों पर ।
बेहतरीन ! सबका स्वर है आपके स्वर में -
"एक ठो चांस लीजिये न सईद साहब"..
आपके इस अनुरोध में हम भी आपके साथ है !
आपकी लेखनी से उपजा एक और बेहतरीन पोस्ट। सईद मिर्जा साब की तीन फिल्में "सलीम लंगड़े..", "मोहन जोशी.." और "अलबर्ट पिंटॊ..." को देखा है। शेष देखने का मौका नहीं मिला। आपके पोस्ट के जरिये मैं भी इस अपील में आवाज मिलाता हूँ अपनी कि "सच, मिर्जा साब एक ठो चांस लीजिये ना!"
एक फिल्म थी अजीब सी। देखी तो नहीं है, किंतु बहुत पहले कभी पढ़ा था इसके बारे में कहीं। अजीब-सा नाम है फिल्म का "मेरे दोस्त की बीवी एक ट्रकवाले के साथ भाग गयी"। कई सालों पहले पढ़ा था किसी पत्रिका में इस फिल्म के बारे में। क्या ये सईद मिर्जा साब की फिल्म है?
आपका परिचय पाकर तहेदिल से खुशी हुई। हम तो शायरी के दिवाने हैं सो अब आपको पढ़ते रहेंगे।
यही अनुरोध हमारा भी है.
मैं इस विषय पर बहुत कम ज्ञान रखता हूँ . मगर इन कलाकारों की एक अलग ही दुनिया होती है ! सईद मिर्ज़ा का नाम भर सुना था आज आपसे जानकार अच्छा लगा आगे से हम भी सईद मिर्ज़ा के नए सृजन का इंतज़ार करेंगे ! शुभकामनायें आपको !
रंगों में खिलती पोस्ट
बेहद उम्दा शमा बांध दिया आपने इतने सारे कवियों का
होली मिलन समारोह नये अंदाज में करा दिया बहुत खूब
इस पोस्ट को पढ़कर सभी होली की खुमारी में झूम रहे है
किसी को रंग का नशा है किसी को भनक पर आपकी इस पोस्ट का
नाश सर चढ़ कर बोलर है............................
होली ke इस रंग birang tyohar की apko v bhabi ji को
hardik badhaiyan........................
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