............... अरसा गुज़र गया मगर अब भी प्रेमचंद के हामिद, बदलू चौधरी, निर्मला, होरी, माधो, घीसू, धनिया...... दिलो-दिमाग पर छाए से रहते हैं। कुछ पात्र जेहन से कभी अलग नहीं हो पाते........ एक राबता सा कायम हो जाता है उनके साथ. महान कहानीकार उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के पात्र इस बात को और भी मजबूती प्रदान करते हैं...... ! मुद्दत गुज़र गयी मगर चौथी पांचवी दर्जे में पढ़ी हुयी कहानियों के पात्र जेहन में आज भी जस के तस कैद हैं. आज प्रेमचंद के जन्मदिन पर उनकी याद आना लाजिमी है.....!
सौ वर्ष गुज़र गए मगर प्रेमचंद के लेखन से आगे निकलना तो दूर कोई उनके आस पास भी नहीं पहुँच पाया.... उनकी कालजयी कहानियों का आलम है कि पीढियां बदल गयीं मगर उनकी कहानियाँ आज भी जीवित हैं. यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे असली भारतीय लेखक थे जिसने बगैर लाग लपेट के तत्कालीन देशिक परिस्थितयों को अपने लेखन का आधार बनाया. धर्म निरपेक्षता, हिंदू-मुसलमान का साझा कल्चर ग़रीबी, किसान-मजदूरों की समस्या , अशिक्षा, राष्ट्रीय आन्दोलन, महाजनी व्यवस्था, दहेज, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित-नारी चेतना........... सब कुछ उनके लेखन में दिखता है. यद्दपि वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे मगर उनकी प्रगतिशीलता का आलम यह था कि उनके 'हंस' के संपादन मंडल में छह भाषाओं के बड़े लोग थे जो हंस को एक अखिल भारतीय पत्रिका के रूप में और स्वयं प्रेमचंद को अखिल भारतीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करते थे. 'स्वराज' उनके लेखन का प्रमुख विषय था बल्कि उन्होंने 1930 में कहा भी कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए लिख रहे हैं. उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्पष्ट किया कि महज़ सत्ता परिवर्तन ही स्वराज नहीं है............ सामाजिक स्वाधीनता भी ज़ुरूरी है. सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य सांप्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था. उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी कहना चाहिए. उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ग़रीब किसानों की लड़ाई है. जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है. प्रेमचंद किसी तरह के जातिवाद, किसी तरह के धर्मोन्माद, किसी तरह की सांप्रदायिकता से मुक्त एक मानवधर्मी लेखक रहे हैं.
उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था. वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे. मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे. उन्होंने हीरा-मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया. गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही. प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया. प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं. उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएँ हैं तो उनके समाधान भी हैं. प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे. अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे. प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिये परिवर्तन की पैरवी करते हैं. उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिये संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है।
सौ वर्ष गुज़र गए मगर प्रेमचंद के लेखन से आगे निकलना तो दूर कोई उनके आस पास भी नहीं पहुँच पाया.... उनकी कालजयी कहानियों का आलम है कि पीढियां बदल गयीं मगर उनकी कहानियाँ आज भी जीवित हैं. यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे असली भारतीय लेखक थे जिसने बगैर लाग लपेट के तत्कालीन देशिक परिस्थितयों को अपने लेखन का आधार बनाया. धर्म निरपेक्षता, हिंदू-मुसलमान का साझा कल्चर ग़रीबी, किसान-मजदूरों की समस्या , अशिक्षा, राष्ट्रीय आन्दोलन, महाजनी व्यवस्था, दहेज, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित-नारी चेतना........... सब कुछ उनके लेखन में दिखता है. यद्दपि वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे मगर उनकी प्रगतिशीलता का आलम यह था कि उनके 'हंस' के संपादन मंडल में छह भाषाओं के बड़े लोग थे जो हंस को एक अखिल भारतीय पत्रिका के रूप में और स्वयं प्रेमचंद को अखिल भारतीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करते थे. 'स्वराज' उनके लेखन का प्रमुख विषय था बल्कि उन्होंने 1930 में कहा भी कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए लिख रहे हैं. उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्पष्ट किया कि महज़ सत्ता परिवर्तन ही स्वराज नहीं है............ सामाजिक स्वाधीनता भी ज़ुरूरी है. सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य सांप्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था. उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी कहना चाहिए. उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ग़रीब किसानों की लड़ाई है. जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है. प्रेमचंद किसी तरह के जातिवाद, किसी तरह के धर्मोन्माद, किसी तरह की सांप्रदायिकता से मुक्त एक मानवधर्मी लेखक रहे हैं.
उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था. वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे. मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे. उन्होंने हीरा-मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया. गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही. प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया. प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं. उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएँ हैं तो उनके समाधान भी हैं. प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे. अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे. प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिये परिवर्तन की पैरवी करते हैं. उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिये संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है।
लमही गाँव (वाराणसी) में 31 जुलाई 1880 को जन्में प्रेमचंद का पारिवारिक व्यवसाय कृषि , निर्धनता के कारण डाकघर में काम करना पड़ा. उनका मूल नाम धनपत राय था. उर्दू में पढ़ाई शुरू करने वाले प्रेमचंद ने उर्दू में ही अपना लेखन शुरू किया और कई पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया. प्रेमचंद ने अध्यापन को अपना पेशा बनाया. लेखन के अलावा उन्होंने मर्यादा, माधुरी, जागरण और हंस पत्रिकाओं का संपादन भी किया. सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली प्रेरणा के कारण उन्होंने हिन्दी उपन्यास सेवासदन लिखा तदोपरांत प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान छपा. गोदान को प्रेमचंद की सबसे परिपक्व कृति मानी जा सकती है.
प्रेमचंद जी के साहित्य को पढ़ते वक्त अजीब टीस सी उठती है...... कमजोर पात्रों के दुःख दर्द को जिस सहजता से उन्होंने बयान किया है वह दुनिया के किसी साहित्यकार के बस में नहीं......!!!! जीवन के दुखों को झेलते इन पात्रों से एक जुड़ाव सा हो जाता है... हारे हुए आदमी को जिस तरीके से वे पेश करते हैं वो अद्भुत है. गुलज़ार साहब की एक नज़्म यहाँ दोहराने का जी कर रहा है. यह नज़्म प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को बहुत खूबसूरती से बयाँ करती है.......
प्रेमचंद जी के साहित्य को पढ़ते वक्त अजीब टीस सी उठती है...... कमजोर पात्रों के दुःख दर्द को जिस सहजता से उन्होंने बयान किया है वह दुनिया के किसी साहित्यकार के बस में नहीं......!!!! जीवन के दुखों को झेलते इन पात्रों से एक जुड़ाव सा हो जाता है... हारे हुए आदमी को जिस तरीके से वे पेश करते हैं वो अद्भुत है. गुलज़ार साहब की एक नज़्म यहाँ दोहराने का जी कर रहा है. यह नज़्म प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को बहुत खूबसूरती से बयाँ करती है.......
प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए
हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा
दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी‘
होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक पोर पोर दिखलाते रहे हो
किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था
सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी
और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही की
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी खाली गोद रही
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी खाली गोद रही
कहती रही डूबना ही क़िस्मत में है तो बोल गढ़ी क्या और गंगा क्या
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रहीकितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में‘घीसू’ ने भी कूज़ा कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी लीतलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटीनंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकातेसांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानीएक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थेअपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रहीकितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में‘घीसू’ ने भी कूज़ा कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी लीतलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटीनंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकातेसांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानीएक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थेअपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'
मुद्दतें गुज़र गयीं मगर उनकी प्रासंगिकता आज भी है और कल भी. आज महान उपन्यासकार और कहानीकार प्रेमचंद के वें जन्मदिन पर शत शत नमन....!!
22 टिप्पणियां:
बहुतखूब सर ,क्या निराले अंदाज़ में प्रकाश डाला है आपने मुंशी प्रेमचंद जी
के जीवन पर !..........अत्यंत सुन्दर वर्णन .........मैं आज उनके जन्मदिन के
इस पावन अवसर पर उन्हें शत -शत नमन करते हुए ....उनकी यादों को इस
इस खूबसूरत पोस्ट के माध्यम से तरो-ताज़ा करने के लिए आपको धन्यवाद्
ज्ञापित करता हूँ !!
katha samrat ko hardik naman..
प्रेमचंद जी के साहित्य और उनके किरदारों पर सटीक और सार्थक प्रकाश डाला है ..सुन्दर लेख ...
उपन्यास सम्राट को नमन
is vishesh din ko aapne aur vishesh bana diya
हिंदी साहित्य के सबसे महान कहानीकार को सभी मैनपुरी वासीयों का शत शत नमन |
आज का दिन और प्रेमचंद जी की ये जानकारी... सार्थक लेख......आभार
anu
प्रेमचंद का साहित्य ग़रीब जनता का साहित्य है। उन्होंने जीवन को बहुत नज़दीक से देखा था। उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा रूप मिलता है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने बिना किसी वाद की ओर देखे अपने उपन्यासों में चित्रित किया है।
प्रेमचंद जी को शत-शत नमन।
सच कहा, अनूठा भारतीय रचनाकार जो सौ वर्षों बाद भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अपने समय में था. वक्त बदला, ज़माना बदला, तौर-तरीके बदले लेकिन प्रेमचन्द का जादू अब भी बरकारार है.
आपने जितना इमोशनल हो कर यह पोस्ट तैयार की, उसकी तारीफ न की जाए तो नाइंसाफी होगी. दिल जीत लिया भाई.
बहुतखूब सुंदर अंदाज़ में प्रकाश डाला है आपने मुंशी प्रेमचंद जी के जीवन पर
...........उपन्यास सम्राट को नमन
kahani kar ko itani utkrashth shradhanjali anayatra s0 thanks very much for this.
Brajesh shakya
मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक योगदान सर्वकालीन है| आज के भारत को उन्होने काफी पहले ही अपनी दूर दृष्टि से देख लिया था|
DEAR CHACHA JI,
YOUR BEAUTIFUL POST ON GREATEST NOVEILIST MUNSHI PREMCHAND IS ON OF THE MOST ADMIRABLE POST....
YOU HAVE DESCRIBED FULL LIFE SPAN OF THIS REVOLUTIONARY HUMAN IN UNMATCHED WAY.....
ANYBODY CAN FEEL THE STRUGGLES AND HIS GREAT NEVER SAY DIE ATTITUDE..
THANKS YOU INFINITE TIMES....!!!!
MY MENTOR,
WITH YOUR LOVE AND INSPIRATION TODAY,I WRITE A NEW POST ON MY BLOG,PLEASE VISIT IT...!!!
[I CHANGE MY BLOG NAME BECAUSE PREVIOUS NAME WAS VERY LONG....]
MY BLOG NEW NAME- [SUCCESS-ANENDLESSJOURNEY.BLOGSPOT.COM]
Munshi Premchand is my favorite. Congrats on such a meaningful post.
.
प्रिय बंधुवर पवन कुमार जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
बहुत अच्छी पोस्ट है … आपकी श्रम-साधना को नमन है !
आपकी नई ग़ज़ल पढ़ने की हसरत पूरी न होने का मलाल भी है :(
लिखें तब मेल से सूचित करने की मेह्रबानी करें ।
शुभकामनाओं सहित …
-राजेन्द्र स्वर्णकार
Thanks
aapne aarthik raajdhani jaakar bhi
lamhi ko yaad rakha.
Sundar sriddanjali hai.
आदरणीय भैया
बिलकुल सही कहा आपने मुंशी प्रेम चंद जैसे साहित्यकार
बार बार पैदा नहीं होते
बधाई स्वीकारें.............!
पवन जी,
आरज़ू चाँद सी निखर जाए,
जिंदगी रौशनी से भर जाए,
बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
------
ब्लॉगसमीक्षा की 27वीं कड़ी!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
सुंदर आलेख आपके अनूठे अंदाज में. प्रेम चंद जी को भूलना संभव ही नहीं है. धन्यबाद.
bahut shandar likha hai
बढ़िया लिखा है आपनेष
munshi ji ki kahaniyon me bharat ke har-ek tabke ka vastvik chitran hai. naman munshi ji ko..
प्रेम चंद का लिखा आज भी उतना ही सार्थक है जितना पहले ... उन किरदारों को जीवित कर दिया आपने आज फिर...
एक टिप्पणी भेजें