दिसंबर 25, 2009

सम्पादित--"मेरा एहसास मेरे रू ब रू......"

“ मेरा एहसास मेरे रू ब रू…….. “ लिखने और पोस्ट करने के बाद बमुश्किल सांस ले ही पायी थी कि 12-15 टिप्पणियां मिल गयीं............! धन्यवाद सभी टिप्पणीकारों को ! राव साहब अपनी टिप्पणी में बहुत ज्यादा नाराज़ से लगे.....! नाराज़ होने की ज़ुरूरत नहीं, भाई.............हर टिप्पणी को पढता हूँ और गौर भी करता हूँ..........साहित्य सृजन में आपके आलोचक ही आपके सबसे बड़े सुधी होते हैं..! राव साहब आपकी बात ठीक है. राजरिशी और अमरेन्द्र की टिप्पणियां बहुत ही सटीक होती हैं......... इस बार भी उनके कमेन्ट बिलकुल ठीक हैं.......! हिमांशु जी ने भी बात सही कही मगर इतनी धीरे और सहजता से कि क्या कहूं....श्याम शखा जी ने तो इसी बहर पर एक शेर लिख दिया बहुत खूब श्याम जी. सफाई देने का मौका मुझे भी मिलना चाहिए -
1. जहाँ तक मतले की बात है मैं राजरिशी साब और अमरेन्द्र जी से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन इसमें गलती मेरी नहीं टाइपिंग की है .........मैंने दुरुस्त कर दिया है........! शायद पोस्ट को टाइप करने के बाद उसे फिर से न देखने की मेरी गन्दी आदत भी इसके लिए जिम्मेदार है....!
2. अमरेन्द्र जी की बात का पूरा आदर करते हुए '' नए प्रयोग और भाषा धर्मिता '' की जगह '' नई भाषा और प्रयोग-धर्मिता '' होना चाहिए से मेरी भी सहमति है.........!
3. अमरेन्द्र जी ने याद दिलाया कि लास्ट लाइन में बात त्रुटि है- ''गुफ्तगू है '' की जगह '' गुफ्तगू हो '' हो तो बेहतर होगा . बात सौ टके की है लेकिन यह भी महज टाइपिंग मिस्टेक है दोस्तों !
इन सारी त्रुटियों को सही करने के बाद संपादित पोस्ट फिर से लिख रहा हूँ......राव, राजरिशी और अमरेन्द्र जी जैसे सुधी टिप्पणीकार-आलोचकों के होते हुए कोई भी त्रुटि करना नामुमकिन है.......आप सभी को गलतियाँ इंगित करने का शुक्रिया .

कोई भी तज़्किरा या गुफ्तगू हो !
तेरा चर्चा ही अब तो कू ब कू हो !!
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!
ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!
मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!
तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!
नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू हो !!

दिसंबर 24, 2009

मेरा एहसास मेरे रू ब रू...........!

रवायती ग़ज़ल लिखने में मैं खुद को बहुत असहज पाता हूँ...........रवायती ग़ज़लें इश्क, एहसास, शराब, शबाब, बेवफाई जैसे ख्यालों तक ही खुद को समेटी रहती हैं..........इधर ग़ज़लों का रूप-रंग- कलेवर बदला है, उसमें इन सारे विषयों को तो देखा ही जा सकता है साथ ही गरीबी, राजनीति, सामाजिक पहलू, पर्यावरण, रिश्ते के ताने-बाने, धर्म जैसे मुख्तलिफ विषयों पर भी उतनी ही संजीदगी से लिखा पढ़ा जा रहा है......... आज की ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों से महक रही है.......नए-नए एहसासात अब ग़ज़लों की ज़मीन को भिगो रहे हैं........नए प्रयोग और भाषा धर्मिता ग़ज़लों में सहज दृष्टव्य हैं...............! वापस आता हूँ अपनी शुरूआती बात पर...........रवायती ग़ज़लों के लिखने की कोशिश पर. असल में मेरी पत्नी को रवायती ग़ज़लें ही ज्यादा पसंद हैं ..........जिनमे नाज़ुक एहसासों की खुश्बू आती रहे.... मैंने अपनी धर्म पत्नी के कहने पर एक रवायती ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है, आपको वो प्रयास पेश कर रहा हूँ.....!

कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू हो !!

मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!

ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!

मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!

तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!

नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है !!

दिसंबर 20, 2009

सरफ़रोशी की तमन्ना............!



शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा !!


काकोरी कांड के नायकों राम प्रसाद बिल्स्मिल और अशफाक उल्लाह खान का यह बलिदान दिवस है.........19 दिसम्बर 1927 को आज ही के दिन इन दोनों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा हुयी थी. राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर और अशफाक उल्लाह खान को फैजाबाद जिला जेल में फाँसी के फंदे पर चढ़ाया गया था, जबकि एक अन्य क्रान्तिकारी राजिंदर लाहिड़ी को समय से दो दिन पूर्व ही गोंडा जेल में फाँसी की सजा दे दी गयी थी. इतिहास गवाह है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रांतिकारियों ने नए अंदाज़ में अपने जज्बे को बयां किया था....... अपूर्व उत्साह था......देश पर मर मिटने की ललक थी........स्वतंत्रता को जल्दी से जल्दी लाने की चाह थी.........अँगरेज़ सरकार को उन्ही के अंदाज़ में सबक सिखाने की जिजीविषा थी........!
अपने सपने को अंजाम तक पहुँचाने के लिए 9 अगस्त 1925 को चन्द्र शेखर आजाद, अशफाक उल्लाह खान, राजिंदर लाहिड़ी, बिस्मिल और रोशन सिंह सहित 10 क्रांतिकारियों ने लखनऊ से 14 मील दूर काकोरी और आलमनगर के बीच शाम के समय 8 डाउन ट्रेन शाहजहांपुर -लखनऊ में ले जाये जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया. यही घटना इतिहास में काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है. दरअसल ट्रेन को लूटने का आइडिया भी बिस्मिल का ही था. एच.आर.ए.(हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन) के सदस्यों ने यह कारनामा करने का वीणा उठाया था........यद्दपि इसी घटना के एक अन्य क्रान्तिकारी चन्द्र शेखर आजाद को पुलिस उनके जीते जी नहीं पकड़ सकी. 26 सितम्बर 1925 को बिस्मिल गिरफ्तार किये गए और उनको गोरखपुर जेल में रखा गया. उल्लेखनीय है कि बिस्मिल का जन्म शाहजहांपुर में 1897 में हुआ था. ऐसा बताया जाता है कि निर्धनता के कारण वे महज़ आठवीं तक ही अपनी पढाई कर सके. बाद में वे देश आजाद करने के मिसन में हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएसन से जुड़ गए जहाँ उनकी मुलाकात अन्य क्रांतिकारियों से हुई. काकोरी के ये नायक महज़ किसी जल्दबाजी या उत्तेज़ना के शिकार नहीं थे .......वे नवयुवक होने के बावजूद बहुत ही बौद्धिक और विचारक थे. अगर बात बिस्मिल कि करें तो बिस्मिल के पास न केवल हिंदी बल्कि अंग्रेजी, बंगला और उर्दू भाषा का ज़बरदस्त ज्ञान था. उनका लिखा हुआ तराना “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.....देखना है जोर कितना बाज़ू ए कातिल में है........!” पूरे देश में बच्चे बच्चे की जुबान पर उन दिनों था............!
काकोरी लूट के बाद इन क्रांतिकारियों पर मुकद्दमा चला .......ट्रेन लूट और एक यात्री की मौत के इलज़ाम के दोषी बताकर 4 क्रांतिकारियों को फाँसी कि सजा सुनायी गयी और फाँसी का दिन भी 19 दिसम्बर 1927 मुक़र्रर हुआ............बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया.........! बताते हैं कि जब गोरखपुर जेल में बिस्मिल के माता पिता फाँसी के एक दिन पूर्व उनसे मिलने पहुंचे तो बिस्मिल की आँखों से आंसू छलक पड़े......तो उनकी माँ ने कहा आज़ादी के दीवाने रोया नहीं करते. बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी. यह आत्मकथा गोरखपुर जेल में ही लिखी गयी थी. यह फांसी के केवल तीन दिन पहले समाप्त हुई. 18 दिसम्बर 1927 को जब उनकी माँ उनसे मिलने आयीं तो बिस्मिल ने अपनी जीवनी की हस्तलिखित पांडुलिपि माँ द्वारा लाये गये खाने के बक्से (टिफिन) में छिपाकर रख दी, बाद में श्री भगवती चरण वर्मा जी ने इन पन्नों को पुस्तक रूप में छपवाया। बाद में पता चलते ही ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया और इसकी प्रतियाँ जब्त कर लीं गयीं। सन 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसे पुन: प्रकाशित कराया।
मेरा इन शहीदों को याद करना स्वाभाविक है किन्तु शहीद बिस्मिल को विशेष रूप से याद करने की एक वज़ह यह भी है कि मैंने काकोरी और गोरखपुर दोनों को करीब से देखा है..........यह दोनों स्थान किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े रहे हैं........! काकोरी कांड के उन सभी क्रांतिकारियों को याद करते हुए बरबस ही वो तराना याद आता है......जो क्रांति के दौरान बहुत लोकप्रिय था......! आइये हम सब दोहरातें हैं इस जोशीली ग़ज़ल को नश-नश, रग- रग में जोश का नया ज़ज्बा भर देती है.......! इल्तिजा आप सभी से कि आप सब भी इस सुर में शामिल हो जाईये.......!

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है !
देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है !!

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है !!

ऐ वतन, करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है !!

रहबरे राहे मुहब्बत, रह न जाना राह में,
लज्जते-सेहरा न वर्दी दूरिए-मंजिल में है !!

अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है !!
(चित्र गूगल इमेज से)

दिसंबर 14, 2009

.............किनारे टूट जाते हैं


टूटन भी एक प्रक्रिया है जो जीवन में लगातार चलती रहती है.....टूटन नहीं होगी तो सृजन कैसे होगा........कभी दिल टूटता है तो कभी बंदिशें. कभी दरिया की ठोकर से साहिल टूटता है तो कभी ज़रुरत के समय इंसानी भरोसे.......! कभी वादे टूटते हैं तो कभी नाज़ुक से एहसास....! इसी टूटन का भी अपना मज़ा है. एक ग़ज़ल पिछले दिनों इन्ही एहसासों को जेहन में रखकर लिख गयी............सोचा आप सबको भी यह ग़ज़ल नज्र कर दूं................मेरी इस ग़ज़ल के दूसरे शेर का मिसरा उस्ताद शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब की एक बहुत मकबूल ग़ज़ल के एक शेर " बहुत बेबाक आखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता ,मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना जरूरी है " से मिलता जुलता है. सो यह ग़ज़ल उस्ताद शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब के नाम. तो लीजिये साहब हाज़िर हैं ग़ज़ल के शेर .........!


ज़रा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं !
सलामत आईने रहते हैं, चेहरे टूट जाते हैं !!

पनपते हैं यहाँ रिश्ते हिजाबों एहतियातों में,
बहुत बेबाक होते हैं वो रिश्ते टूट जाते हैं !!

नसीहत अब बुजुर्गों को यही देना मुनासिब है,
जियादा हों जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं !!

दिखाते ही नहीं जो मुद्दतों तिशनालबी अपनी, ,
सुबू के सामने आके वो प्यासे टूट जाते हैं !!

समंदर से मोहब्बत का यही एहसास सीखा है,
लहर आवाज़ देती है किनारे टूट जाते हैं !!

यही एक आखिरी सच है जो हर रिश्ते पे चस्पा है,
ज़रुरत के समय अक्सर भरोसे टूट जाते हैं !!
( तस्वीर गूगल से साभार )

दिसंबर 09, 2009

बुद्धं शरणम गच्छामि...........


8 दिसम्बर महायान परंपरा में बोधि दिवस के रूप में मनाया जाता है. विदेशों में बोधि दिवस बड़े उत्साह से मनाया जाता है. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि राजकुमार सिद्दार्थ ने ज्ञान की खोज के लिए बोध गया बिहार में एक वट वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया ...............लम्बे ध्यान के बाद उन्हें जीवन के विभिन्न अनसुलझे सवालों के उत्तर मिले ........उस दिन जब सिद्दार्थ “महात्मा बुद्ध“ में परिवर्तित हुए उसे ही “बोधि दिवस” के नाम से जाना जाता है.....महायान संप्रदाय में इसे बोधि दिवस के रूप में मनाये जाने की परंपरा है. जिस वट वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ.........उसे बोधि वृक्ष के नाम से जाना जाता है.
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि कलिंग युद्ध के बाद जब सम्राट अशोक बुद्ध धर्म की तरफ आकर्षित हुए तो उन्होंने इस वृक्ष के महत्त्व को जाना. सम्राट अशोक इस वृक्ष के नीचे बैठकर आनंद का अनुभव करते थे .........उनकी रानी तिस्सरक्षिता ने चिढ़ कर इसे कटवा दिया था .........किन्तु इस वृक्ष की एक टहनी सम्राट अशोक के पुत्र-पुत्री संघमित्रा और महेंद्र बुद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लए श्रीलंका ले गए थे............जिसे अनुराधापुर में रोपित किया गया था. कालांतर में यही वृक्ष बोधि- वृक्ष के ही रूप में प्रसिद्द हुआ. .......... अनुराधापुरम का यह बोधिवृक्ष दुनिया के प्राचीनतम वृक्ष के रूप में जाना जाता है. यह वृक्ष आज भी बुद्ध परंपरा में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण केंद्र है.
गया के बोधि वृक्ष की ही एक शाखा श्रावस्ती में भी है.............ऐसा माना जाता है कि बुद्ध के जीवित होने के दौरान ही बोधगया के बोधि वृक्ष से एक शाखा लेकर श्रावस्ती के जेतवन विहार के प्रवेश द्वार पर रोपित किया गया था जो कि “आनंद बोधि वृक्ष” के नाम से जाना जाता है. दरअसल यह वृक्ष “अनाथ पिण्डक” ने रोपित किया था जो बाद में “आनंद बोधि” के नाम से प्रसिद्द हुए. यह वृक्ष जेतवन के प्रवेश द्वार के निकट है. माना जाता है कि महात्मा बुद्ध ने एक रात्रि को इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया था. लोग मानते हैं कि इस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाने वाले को पुण्य प्राप्त होता है.
दो माह पूर्व मैं जब श्रावस्ती दर्शन पर गया था तो जेतवन भ्रमण के दौरान मैं इस वृक्ष के नीचे भी गया था...........वाकई इस विशाल काय पवित्र एवं ऐतिहासिक वृक्ष के नीचे खड़ा होना अपने आप में एक अलग सा अनुभव था. इस वृक्ष की आयु को देखते हुए, इसको सहेजे जाने को दृष्टिगत रखते हुए सरकारी खर्चे से पिलर अदि लगाये गए हैं ताकि इस पवित्र वृक्ष को किसी भी प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी नुकसान से बचाया जा सके. इस वृक्ष के नीचे मैंने खड़े होकर तस्वीर भी ली थी पोस्ट कर रहा हूँ. श्रावस्ती पर विस्तार से फिर कभी यात्रा वृत्तांत लिखूंगा.

दिसंबर 05, 2009

एक मुलाक़ात पंकज राग से............


कुशीनगर जाने का कार्यक्रम भी अचानक बन गया....सुबह दीपक जी, स्वतंत्र जी और उनकी धर्मपत्नी के साथ चर्चा हुई कि क्यों न एक दिन कुशीनगर चला जाए...........सहमती बनी कि कभी क्यों आज ही क्यों नहीं...... बात भी ठीक थी रविवार तो था ही...........निकल दिए थोड़ी देर बाद कुशीनगर के लिए!
कुशीनगर महत्मा बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली के रूप में जाना जाता है. कुशीनगर गोरखपुर से महज 80 किमी दूर है...लगभग दो घंटे की यात्रा के बाद हम कुशीनगर पहुँच चुके थे. चूँकि बच्चे साथ में थे......चाय ठन्डे की उनकी जिद थी सो तय हुआ की ' रेफ्रेस्मेन्ट ' क्यों न सरकारी विश्राम गृह 'पथिक निवास' में किया जाए. हमने गाड़ियाँ मोड़ ली पथिक निवास की तरफ...........बच्चों के साथ हम भी जल-पान ले रहे थे.....बताया गया कि कुशीनगर में उपचुनाव चल रहा है और पर्यवेक्षक महोदय भी इसी गेस्ट हाउस में ठहरे हुए हैं...कौतूहलवस मैं पूछ बैठा कि पर्यवेक्षक महोदय कौन हैं कहाँ से आये हैं.............पता चला कि पंकज राग साहब एम.पी. काडर आई. ए.एस. हैं! मेरे लिए तो यह अवाक् रह जाने वाली स्थिति थी वही पंकज राग जिनकी कृति 'धुनों की यात्रा' बमुश्किल एक महीने पहले मैंने लखनऊ पुस्तक मेले से खरीदी थी औरउन्हें इस अद्भुत कृति के लिखने पर कई बार धन्यवाद देने की कोशिश कर चुका था, मगर कोई संपर्क न. न मिल पाने के कारन यह कार्य नहीं कर सका था. मैंने इस कृति का ज़िक्र कुछ दिनों पूर्व अपने ब्लॉग पर किया ही था.
खैर मैंने बिलकुल भी देर नहीं लगी श्री राग से मिलने में ......मिलने का सन्देश भेजा, उन्होंने तुरंत बुला लिया...... श्री राग से पहली मुलाक़ात इतनी आत्मीय थी कि मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सका. हौले हौले से मुंह में 'रजनीगंधा' चलाते हुए चश्मा पहने इकहरे बदन वाले श्री राग इतने युवा लगे कि वे कहीं से भी मुझे 1990 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी नहीं लगे. कुछ लम्हों की औपचारिकताओं के बाद वे तुरंत अनौपचारिक हो गए ..............अपने साहित्यिक सारोकारों को बताने लगे कि सिविल सेवक होने के वाबजूद वे कैसे सतत साहित्य सृजन करते रहे. व्यस्तता के बाद भी वे म . प्र. के पर्यटन व सांस्कृतिक विरासत के ऊपर काफी किताबें लिख चुके हैं. उनकी एक कृति "ये भूमंडल की रातें" कविता रूप में है जिसे कुछ दिनों पूर्व ही म.प्र. सरकार के 'वाचस्पति अवार्ड' से नवाजा गया है. इतिहास के अध्येता होने के नाते वे सम्प्रति 1857 की क्रांति पर एक किताब लिख रहे हैं.
श्री राग मूलत: बिहार के रहने वाले हैं. उन्होंने दिल्ली के सेन्ट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में स्नातकोत्तर किया तदोपरांत दिल्ली युनिवर्सिटी से आधुनिक भारतीय इतिहास में एम् फिल किया. वे इससे पूर्व म.प्र. की विशिष्ट प्राचीन प्रतिमाओं पर पुस्तक “Masterpieces of MP” तथा “50 years of Bhopal as capital” का लेखन भी कर चुके हैं. इसके अलावा वे प्राचीन ऐतिहासिक छाया चित्रों के संकलन की पुस्तक “Vintage Madhya Pradesh” का संपादन भी कर चुके हैं.आज कल वे पुणे स्थित राष्ट्रिय टेलीविजन संसथान के निदेशक का दायित्व संभाल रहे हैं. श्री राग से यह मुलाकात हमेशा याद रहेगी.
लेखकीय क्षमता के धनी प्रशासनिक सेवारत श्री राग की विद्वता, सृजनात्मकता तथा प्रशासकीय सूझ बूझ मेरे लिए सदीव प्रेरणा स्रोत का कार्य करेगी.

नवंबर 26, 2009

ज़ख्म जो अब तक भरा नहीं .........


कुछ ज़ख्म कभी नहीं भरते ........................!

याद तो नहीं करना चाहता मगर भूलती भी तो नहीं वो रात.......अचानक मुंबई में आंतक का जो खेल शुरू हुआ उसने पूरे देश में दहशत मचा दी थी. दस आतंकी और उनकी लेओपोल्ड कैफे , नरीमन पॉइंट.....ताज होटल जैसे स्थानों पर दहशतगर्दी..........! सांस साधे एनएसजी के जवानों का अभियान देखता देश...... बहरहाल 170 शहीद जिनमे 16 वे वीर पुलिस कर्मी भी थे जिन्होंने अपनी जान गवां दी ............साल गुजर गया है मगर ज़ख्म अभी तक भरा नहीं है............!

जो हुआ अब कभी कहीं हो............नम आँखों से 26/11 की बरसी पर शहीदों को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि !

(तस्वीर बीबीसी से)



नवंबर 20, 2009

बावस्तगी चलती रहे............



पता ही नहीं चला कब 10 साल गुजर गए...... मुट्ठी से रेत की तरह.......शायद उससे भी ज्यादा तेज........ऐसे कि पलकें बंद कीं और खोलें तो एक दशक गुज़र जाए...! आज अंजू के साथ 10 साल का सफ़र पूरा हुआ है....1999 में जब हमारी शादी हुयी थी तो हम महज 24 बरस के थे वो उम्र कि जब बच्चे अपने कैरियर को शेप दे रहे होते हैं.....हमने अपना कैरियर बनाया और झट से शादी कर डाली........! मंसूरी से ट्रेनिंग ख़त्म हुयी और उसके तुरंत बाद हम परिणय सूत्र में बंध गए......! इस बीच हमने जिंदगी के तमाम उतार चढ़ाव देखे....कुछेक मुश्किलें जरूर आयीं मगर ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक ठाक निबट गया...........एक सर्विस से दूसरी और फिर दूसरी से तीसरी........अंतत: देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में ..... दो मासूम बेटियां.........कानपुर- लखनऊ-बरेली-गाज़ियाबाद के बाद अब गोरखपुर प्रवास..............! खैर फिर आता हूँ अपनी शरीके - हयात अंजू पर.........! आदमी को अपने जीवन के नाज़ुक क्षणों में किसी ऐसे सहारे की ज़रुरत होती कि जब वो बिलकुल किसी औपचारिकताओं में नहीं बंधना नहीं चाहता.........खुल जाना चाहता है.......फूट पड़ना चाहता है........हर एक सुख दुःख को बाँटना चाहता है.......अंजू के साथ मेरा यही सब कुछ रहा....हर नाज़ुक वक़्त में वो मेरे साथ रही...............सुख-दुःख साथ महसूस किये.........! मैं इस मोड़ पर आकर महसूस करता हूँ कि अच्छा हमसफ़र मिलना भी किस्मतों की ही बात होती है और निश्चित रूप से मैं इस मामले में खुद को सौभाग्यशाली समझ सकता हूँ कि अंजू मेरे साथ है.......! हम दोनों सरकारी सेवाओं में रहे मगर इतना किया कि घर -ऑफिस को दूर दूर रखा..........न घर में ऑफिस की बात की और न ही ऑफिस में घर की बात को आने दिया .........इस सिद्धांत को पालने के अलावा "इगो" नहीं पनपने दिया जो घर को नरक बनाने में सबसे बड़ा कारक होता है....! बस ऐसे ही दस साल पूरे हो गए....... आगे सफ़र जारी है.........! 10 साल पहले मेरे दोस्त मनीष ने मुझे मेरी शादी पर एक शेर लिख कर दिया था, शेर तो बशीर बद्र साहेब का था मगर कुछ बदलाव मनीष ने अपने हिसाब से कर दिए थे ......वो शेर फिर से याद आ गया तो लिख दे रहा हूँ.........

कभी सुबह की धूप में झूम कर, कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलो सदा कभी ख़त्म तुम्हारा सफ़र न हो !

मनीष का शेर सही साबित करने की कोशिश - ज़द्दोजहद ही तो है ये..............!

औपचारिक ज्यादा नहीं होना चाहता..........बहुत लिख पाना इस बारे में मेरे लिए मुश्किल है........सफ़र को आसान और खूबसूरत बनाने के लिए ईश्वर- परिजन- माता- पिता, भाई- बहन- मित्रों की भूमिका का शुक्रगुज़ार हूँ.........!
बिना किसी लाग लपेट के ग़ज़ल का वही एक शेर जो दस साल पहले मैंने अपनी शरीके हयात को नजराने में दिया था आज फिर दोहराने का जी किया है, सो दोहरा रहा हूँ......!

वो तितली की तरह पल पल ठिकाने दर ठिकाने तुम,
मगर हम भी अज़ब साइल हर एक गुंचे से बावस्ता........!


यह बावस्तगी यूँ ही चलती रहे......खुदा करे!

नवंबर 18, 2009

तज़ाद ज़िन्दगी में..........

पिछली पोस्ट कई मायनों में मेरे लिए महत्त्वपूर्ण रही........पिछली पोस्ट में मैंने कुछ हायकू आप सबको पढवाए थे......निश्चित ही हायकू लिखना एक कठिन सृजनात्मक प्रक्रिया है.....छोटे फॉर्मेट की इस विधा में लिखना अक्सर आसान नहीं होता.....कभी पूरी बात कहने में चूक हो जाती है तो कभी भाव या व्याकरण वाला पक्ष कमजोर हो जाता है....... ....मेरे उन हायकू के प्रतिउत्तर में मानोसी जी ,उड़न तश्तरी, शरद जी और गिरिजेश राव की प्रतिक्रिया सचमुच सीख देने वाली थीं.......गौतम राजरिशी साब की प्रतिक्रिया हौसला बढ़ने वाली थी......सत्यम, शिवम्, पी सिंह ने उत्साह वर्धन किया.......आप सभी का आभार! हायकू लिखने का क्रम जारी है कुछ पढने- पढ़ाने लायक लिख लूँगा तो आप को पेश करूंगा ...फिलहाल तो एक ग़ज़ल आप सबको पेश रहा हूँ......!

आखिर तज़ाद ज़िन्दगी में यूँ भी आ गए !
फूलों के साथ खार से रिश्ते जो भा गए !!

ऐसे भी दोस्त हैं कि जो मुश्किल के दौर में,
सच्चाइयों से आँख मिलाना सिखा गए !!

जिस रोज़ जी में ठान लिया जीत जायेंगे,
यूँ तो हज़ार मर्तबा हम मात खा गए !!

आँखों में ज़ज्ब हो गया है इस तरह से तू,
नींदों के साथ ख्वाब भी दामन छुड़ा गए !!

नादानियों की नज्र हुआ लम्ह-ए - विसाल,
गुंचों से लिपटी तितलियाँ बच्चे उड़ा गए!!

तुम क्या गए कि जीने की वज्हें चली गयीं,
वो राहतें, वो रंगतें , आबो- हवा गए !!

नवंबर 10, 2009

मेरे हायकू .......

हायकू ऐसी विधा है जिसे भारत में और खासकर हिंदी भाषा में लोकप्रिय होने में वक्त नहीं लगा ........... 5-7-5के फॉरमेट में बंधी इस कविता की प्रवृत्ति बहुत ही नुकीली और बेहद प्रभावशाली है......मूलत: जापानी भाषा की कविता को हिंदी कलेवर में अपनाने और उसे लोकप्रिय बनाने के आन्दोलन में बहुत से नाम आते हैं....उनका ज़िक्र और उनके बारे में फिर कभी तफ़सील से बात करूंगा फ़िलहाल तो अपने कुछ मेरे हायकू पोस्ट कर रहा हूँ.....नया स्वाद है हो सकता है, कुछ कसैला भी लगे....!

1

आसमान में,

सूरज चाँद तारे,

किसने टाँके ?

2

एक तरफा,

फैसला तुम्हारा भी,

मुझे मंज़ूर।

3

मिले हो तुम,

फ़िर से महेकेगी,

ये रात रानी।

4

अन्नान बोले-

अगला युद्ध होगा,

पानी के लिए।

5

टूटे सम्बन्ध,

लाख चाहो मगर,

जुड़ते नही।

6

भरी भीड़ में,

हरेक पे हावी था,

अकेलापन।

7

अखबार में,

खबरें नही ,सिर्फ़

विज्ञापन हैं।

8

पैसा नही है

सब कुछ, सिर्फ़ है

हाथ का मेल।

9

कागजी फूल

ही सजते हैं अब ,

गुलदानों में

10

कैसे देखूं मैं

तुम्हारी नज़रों से ,

कायनात को।

11

मुश्किल वक्त,

ज़रूर गुजरेगा,

धैर्य तो रखो।

12

कोशिश तो की,

मगर उड़ा न सका,

फ़िक्र धुँए में।

13

भीग जाता हूँ

अंतर्मन तक मैं

भीगी ऋतु में।
14

स्वाद रिश्ते का

काश मीठा हो जाता,

चलते वक्त।

15

अवसर था-

खो दिया ,अब तो था

पछताना ही।

16

थक जाती हैं

राहें भी,साथ -साथ

चलते हुए।

17

सिर्फ़ अच्छाई

याद रह जाती है

मौत के बाद।

नवंबर 06, 2009

नयी ताज़ा ग़ज़ल..........

मित्रों ने कहा कि बहुत दिनों से अपनी कोई ग़ज़ल पोस्ट नहीं की....क्या कहता उनसे....असल में खुद को कहाँ तक पोस्ट में रखता रहूँ.....दुनिया जहान में इतने लोग -इतने किस्से -इतनी घटनाएँ हैं कि उनके बारे में लिखते हुए ही आनंद महसूस करता हूँ....बहरहाल अपने दोस्त मनीष की मांग पर बहुत संकोच के साथ एक नयी ताज़ा ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ.......................शायद पसंद आये............!

तेरी खातिर खुद को मिटा के देख लिया !
दिल को यूँ नादान बना के देख लिया !!

जब जब पलकें बंद करुँ कुछ चुभता है,
आँखों में एक ख्वाब सजा के देख लिया !!

बेतरतीब सा घर ही अच्छा लगता है,
बच्चों को चुपचाप बिठा के देख लिया !!

कोई शख्स लतीफा क्यों बन जाता है,
सबको अपना हाल सुना के देख लिया !!

खुद्दारी और गैरत कैसे जाती है,
बुत के आगे सर को झुका के देख लिया !!

वस्ल के इक लम्हे में अक्सर हमने भी,
सदियों का एहसास जगा के देख लिया !!

अक्टूबर 30, 2009

धुनों के यात्री....पंकज राग


सितम्बर माह में मैं लखनऊ में था। लखनऊ में उन दिनों राष्ट्रीय पुस्तक मेला चल रहा था ....काम में व्यस्तता इतनी ज्यादा थी की मैं इस मेले में बस आखिरी दिन जा सका. किताबें वैसे भी मेरे खर्चे की एक बड़ी मद रही हैं......इस मेले में मैंने कुछ शायरी की किताबें और कुछ नए उपन्यास अदि ख़रीदे.....


विभिन्न प्रकाशकों के स्टालों से गुज़रते हुए अचानक राजकमल प्रकाशन के स्टाल पर निगाह एक किताब को देख कर अटक गयी .........सामान्य से कुछ ज्यादा ही मोटी दिखने वाली इस किताब का नाम था " धुनों की यात्रा"....पलटने पर दिखाई पड़ा कि इस पुस्तक के लेखक हैं...श्री पंकज राग। यह पुस्तक 1931-2005 तक की अवधि में हिंदी फिल्मों में संगीत दे चुके संगीतकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित थी। चूँकि मेरी हिंदी फिल्म संगीत व् उनके संगीतकारों में हमेशा दिलचस्पी रही है सो मैं इस पुस्तक को खरीद बैठा। 1000 रुपये वाली इस पुस्तक यद्दपि आरम्भ में कुछ महँगी लगी किन्तु जब इस पुस्तक को पढना शुरू किया तो लगा कि यह पुस्तक महज़ सूचनाओं का संकलन भर नहीहै। यह पुस्तक अपने आप में एक सम्पूर्ण शोध ग्रन्थ है....यह शोध ग्रन्थ कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। पहला महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह पुस्तक एक आई. ए. एस.अधिकारी द्वारा लिखी गयी है। आम तौर पर सिविल सेवकों को "ड्राई" माने जाने वाले मिथक को खंडित करने की जिम्मेदारी मध्य प्रदेश कैडर के आई. ए. एस. अधिकारी श्री पंकज राग ने निभाई है।फिल्म संगीत के उपरे सरस एवं प्रमाणिक शोध करने वाले श्री पंकज राग 1990 बैच के आई. ए. एस. अधिकारी हैं जो विभिन्न महत्त्वपूर्ण सरकारी ओहदों पर रह चुके हैं और वर्तमान में पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन इंस्टिट्यूट के निदेशक भी पुन आते हैं " धुनों की यात्रा" पर।मेरी नज़र में यह ऐसी पहली किताब है जिसमे हिंदी फिल्मों के संगीतकारों के विषय में विषद सामग्री दी गयी है। संगीतकारों के विवरण और विश्लेषण के साथ उनकी सृजनात्मकता को सन्दर्भ सहित संगीत,समाज और जन- आकाँक्षाओं की प्रवृत्तियों को रेखांकित किया गया है....800 पृष्ठ वाली इस पुस्तक में दशक वार- संगीत कारों के विषय में फिल्मवार व गीतवार दी गयी जानकारी अद्भुत है....चालीस के दशक से आरम्भ हुए हिंदी फिल्म संगीत के विषय में लेखक ने अत्यंत बारीकी से राग-ताल-गीत की सजावट और बुनावट के विषय में गूढ़ जानकर प्रस्तुत की है...


यह पुस्तक नामचीन संगीतकारों के विषय में तो है साथ ही अच्छा काम करने के बावजूद गुमनामी में खो गए कई ऐसे संगीतकारों के विषय में अच्छी खासी जानकारी प्रस्तुत करती है. पंकज मालिक, खेमचंद प्रकाश,अनिल विश्वास, सी रामचंद्र, हुस्नलाल भगतराम ,चित्रगुप्त, गुलाम मोहम्मद, एस. डी. बर्मन, खय्याम, नौशाद, रोशन, सरदार मालिक, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, हेम,अंत कुमार, ओ पी नैयर, सलिल चौधरी, रवि, जयदेव, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मी-प्यारे, आर. डी. बर्मन, रविन्द्र जैन, राजेश रोशन से लेकर समकालीन लिजेंड ए. आर. रहमान तक प्रमुख संगीतकारों पर वृहद् जानकारी उपलब्ध तो है ही...........गुमनामी में कहीं चुप गए राजकमल, रघुनाथ सेठ, दत्ताराम ( आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें.....), रामलाल ( पंख होते तो उड़ जाती रे....... ), एस. मोहिंदर ( गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा....), बसंत देसाई ( सैयां झूटों का बड़ा सरताज निकला......) पर भी कमोवेश उससे भी ज्यादा जानकारी बहुत ही रोचक भाषा में मिलती है. फिल्मों और संगीत से जुडी हस्तियों के अनूठे पोस्टर प्रस्तुति को और भी जीवंत कर देते हैं. संगीत प्रेमियों विशेषतया हिंदी फिल्म संगीत में रूचि रखने वाले पाठकों/ श्रोताओं के लिए यह पुस्तक किसी दस्तावेज से कम नहीं.... यद्दपि इस अनूठी कृति के लिए श्री राग की प्रशंसा करना भी उनके कृतित्व के सापेक्ष बहुत कम होगा.......तथापि श्री पंकज राग को हिंदी फिल्म संगीत के ऊपर जुनूनी काम करने के लिया सादर नमन.....!

अक्टूबर 26, 2009

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है.............


24अक्टूबर शनिवार शाम से शुरू हुए ओसियान सिनेफ़ैन फ़िल्म समारोह की शुरुआत "गुलज़ार साहब को सम्मानित किये जाने के साथ " होने की खबर बहुत सुखद लगी.......इस बरस की शुरुआत में भी तब बहुत अच्छा लगा था जब ऑस्कर में उनके "जय हो" ने हम भारतीयों
को बरसों की साध पूरी होने का अवसर दिया था. दिल्ली में आयोजित ओसियान सिनेफ़ैन फ़िल्म समारोह में गुलज़ार साहब को सम्मानित किया जाना खुद समारोह की इज्ज़त बढाता है. गुलज़ार साहब पर इतना लिखा गया है कि जब भी कुछ लिखने को जी चाहता है तो लगता है कि यह सब तो लिखा जा चुका है. क्या लिखूं उनके ऊपर.... " मोरा गोरा अंग लई ले " से गीतों को लिखने की शुरुआत करने वाले गुलज़ार अब तक "चड्ढी पहन कर फूल खिला है " जैसे मनभावन बाल गीत से लेकर " कजरारे- कजरारे" तक का लम्बा सफ़र तय कर चुके हैं। गीतकार-फिल्मकार-डायेरेक्टर- साहित्यकार और भी जाने क्या क्या..........गुलज़ार साहब को हमारा इस अवसर पर फिर से एक बार सलाम.....सच तो यह है कि हम हमेशा उन्हें सलाम करने के लिए तैयार रहते हैं....बस कोई बहाना चाहिए।

इस मौके पर बिना उनकी नज़्म के बात अधूरी रहेगी सो आईये उनकी नज़्म के सहारे उनको सलाम भेजते हैं......

नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होठों पर

उड़ते -फिरते हैं तितलियों की तरह

लफ्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नही

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जनम

सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी-----------------?

अक्टूबर 12, 2009

निदा फाजली साहेब का जन्मदिन.....

आज निदा फाजली का आज जन्म दिन है. निदा साहेब हमेशा से मेरे प्रिय शायर रहे हैं.सच तो यह है कि वे मेरे ही नहीं पूरे अवाम और जहाँ तक हिन्दुस्तानी भाषा समझी जाती है वे वहां तक अपना दखल रखते हैं.यूँ तो उनका अपना हर एक शेर, हर एक नज़्म, दोहे, लेख अपने आप में एक मील का पत्थर है मगर उनकी मकबूलियत का एक छोर " कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता " से भी शुरू होता है. बगैर हिंदी- उर्दू के विवाद में पड़े उन्होंने शायरी का एक लम्बा सफ़र तय किया है...उर्दू में दोहे लिखने का आगाज़ भी उन्ही के जादू का कमाल है. 1938 में जन्मे निदा साहेब जन्म दिन की दिलीदिन की दिली मुबारकबाद .
निदा साहेब भी संघर्षों की एक ऐसी दास्ताँ हैं जो जिंदगी के धूप छाओं से गुज़रती रही है. बँटवारे के बाद पूरे परिवार का पाकिस्तान चले जाना और उनका यहीं रुक जाना....मुंबई जाना...पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहना प्रगतिशील उर्दू रायटर्स के बीच पहचान बनाना, मुशायरों में शिरकत करना....1964-80 के बीच का यह सफ़र निदा साहेब के लिए खुद को बनाये रखने की ज़द्दोजहद का समय था....1980 में फिल्म आप तो ऐसे थे के गीत " कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता " ने उन्हें हर एक जुबान पे ला दिया. अपने इस गीत की सफलता के बाद निदा फाजली ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस गीत ने पूरे भारत में धूम मचा दी। इसके बाद निदा फाजली ने सफलता की नई बुलंदियों को छुआ और एक से बढ़कर एक गीत लिखे। वर्ष 1983 में फिल्म रजिया सुल्तान के निर्माण के दौरान गीतकार जां निसार अख्तर की आकस्मिक मृत्यु के बाद निर्माता कमाल अमरोही ने निदा फाजली से फिल्म के बाकी गीत को लिखने की पेशकश की। वर्ष 1998 में साहित्य जगत में निदा फाजली के बहुमूल्य योगदान को देखते हुये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा निदा फाजली को खुसरो अवार्ड, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी पुरस्कार, हिंदी उर्दू संगम पुरस्कार, मीर तकवी मीर पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। अब तक निदा फाजली द्वारा लिखी 24 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। अपने जीवन के लगभग 70 वसंत देख चुके निदा फाजली आज भी पूरे जोशो खरोश के साथ साहित्य और फिल्म जगत को सुशोभित कर रहे हैं। मेरा यह दुर्भाग्य ही है की तमाम शायरों -गीतकारों-कवियों-लेखकों से मिलने के बावजूद अभी तक मेरी मुलाकात निदा साहेब से नहीं हो सकी है.....मैं उस दिन के इन्तिज़ार में हूँ जब उनसे मेरी मुलाकात हो. आज उनके जन्म दिन पर मेरी तरफ से मेरी पसंद की कुछ रचनाएँ जो उन्ही को पेशे खिदमत कर रहा हूँ......
मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
प्रसिद्द शायर शानी उनके बारे में ठीक ही फरमाते हैंगज़ल की जान हो या ज़बान, सोच हो या शिल्प, छब-ढब हो, रख-रखाव हो या सारा रचनात्मक रचावअपने मिज़ाज़, तेवर और रूप में रचनाकार निदा फ़ाज़ली बिल्कुल अकेले ही दिखायी देते हैं। कुछ मायने में तो वे उर्दू के उन बिरले जदीद शायरों में से हैं जिन्होंने सिर्फ़ विभाजन की तक़लीफ़ें देखीं और सही हैं बल्कि बहुत बेलाग ढंग से उसे वो ज़बान दी है जो इससे पहले लगभग गूँगी थी। उर्दू की शायरी की सबसे बड़ी और पहली शिनाख़्त यह है कि उसने फ़ारसी की अलामतों से अपना पीछा छुड़ाकर अपने आसपास को देखा, अपने इर्द-गिर्द की आवाज़ें सुनीं और अपनी ही ज़मीन से उखड़ती जड़ों को फिर से जगह देकर मीर, मारीजी, अख्तरुल ईमान, जांनिसार अख्सर जैसे कवियों से अपना नया नाता जोड़ा। उसने ग़ालिब का बेदार ज़हन, मीर की सादालौही और जांनिसार अख्तर की बेराहरवी ली और बिल्कुल अपनी आवाज़ में अपने ही वक़्त की इबारत लिखीऐसी इबारत, जिसमें आने वाले वक्तों की धमक तक सुनाई देती है। यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिन्दी और उर्दू की दीवार ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाज़ली का नाम सबसे पहले लिया जाएगा।


मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है

औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है

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दो और दो का जोड़ हमेशा
चार कहाँ होता है
सोच-समझवालों को थोड़ी
नादानी दे मौला


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कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता


ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता


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सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो


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बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता


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हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी

सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी

*************

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं


वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद-नगर के हम हैं


खुदा से दुआ मांगते है की आप यूँ ही लिखते रहे.....और अलम जलाते रहें.

अक्टूबर 05, 2009

ओरछा के किले से.............

हुज़ूर फिर हाज़िर हूँ......पिछले दिनों मैं यू पी दर्शन पर था....अकेलापन नए एहसास को जगाने में हमेशा मोडरेटर की भूमिका निभाता है......ऐसा ही कुछ मेरे साथ ओरछा में हुआ . ओरछा के किले में अकेलेपन के माहौल में और बेतवा के किनारे बैठकर ओरछा रिसॉर्ट में एक ग़ज़ल लिख डाली....बगैर किसी इस्लाह और तरमीम के यह ग़ज़ल आप सब के हवाले कर रहा हूँ....अच्छी लगे या बुरी निष्पक्ष प्रतिक्रिया का बेसब्री से इन्तिज़ार रहेगा......ग़ज़ल हाज़िर है.

मेरी तन्हाई क्यों अपनी नहीं है !
ये गुत्थी अब तलक सुलझी नहीं है !!

बहुत हल्के से तुम दीवार छूना,
नमी इसकी अभी उतरी नहीं है !!

मुआफी बख्श दी एक तंज़ देकर,
"तुम्हारी भूल ये पहली नहीं है" !!

समझना है तो बस आँखों से समझो,
कोई तहरीर या अर्जी नहीं है !!

बुलंदी, शोहरतें, इज्ज़त, नजाकत,
मुझे पाना है, पर जल्दी नहीं है !!

बहुत चाहा तेरे लहजे में बोलूं,
मेरे लहजे में वो नरमी नहीं है !!

सितंबर 19, 2009

"साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों "-2

एक अरसे बाद मैंने दो तीन दिनों पहले अपने ब्लॉग पर अपनी नयी ग़ज़ल पोस्ट की ........मैं जब भी ग़ज़ल लिखता हूँ तो सबसे पहले जिन लोगों को उसे सुना कर प्रतिक्रिया लेता हूँ उनमे अकील नोमानी, मनीष, अंजू, जोनी, सुमति शामिल होते हैं....ये वे लोग हैं जिनसे मुझे मेरी किसी भी रचना पर त्वरित प्रतिक्रिया मिलती है ....ये प्रतिक्रियाएं अच्छी -बुरी दोनों तरीके की होती हैं मगर होती एक दम निष्पक्ष हैं.................."साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों " पर इन सबकी प्रतिक्रियाएं मुझे उत्साह बढ़ने वाली रही....
मैंने ये ग़ज़ल अपने एक शायर दोस्त फ़साहत अनवर को भी एस एम् एस के जरिये भेजी...उन्होंने मुझे स्वरूप कमेन्ट भेजा की उन्हें इस ग़ज़ल की ज़मीन इतनी अच्छी लगी की उसी काफिये पर उन्होंने चार पांच शेर लिख डाले ........अनवर साहब के वो शेर आपके हवाले कर रहा हूँ गौर फरमाएं..........

मुझसे हर पल आँख चुराना आखिर क्यों !
दुश्मन के घर आना जाना आखिर क्यों !!

छोटे तबके वाले भी तो इंसान हैं,
महफ़िल में उनसे कतराना आखिर क्यों !!

मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!

मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आँखों में मैखाना आखिर क्यों !!

मुट्ठी में जो बंद किये हैं सूरज को,
उसको जुगनू से बहलाना आखिर क्यों !!

अनवर तेरी गज़लों के सब दीवाने हैं,
तू है ग़ालिब का दीवाना आखिर क्यों !!

एक सी ज़मीन पर दो ग़ज़लें पढना सचमुच अच्छा एहसास रहा.

सितंबर 16, 2009

साँसों में लोबान जलाना........

काफी दिनों बाद इधर ब्लॉग पर लिखने की भूख बढ़ गयी . दिल नहीं माना और फिर से लिखना शुरू किया....... व्यस्तता के बाद ब्लॉग पर लिखने का क्रम जोड़ना वाकई सुखद रहा. इधर कल बारिश हो रही थी....ऐसे शानदार मौसम में मैंने एक ग़ज़ल लिखी...... या यूँ कहिये बस लिख गयी. अपने दोस्त शायर अकील नोमानी से कुछ ज़ुरूरी इस्लाह कराने के बाद ग़ज़ल आप की नज़र कर रहा हूँ ……….गौर फरमाएं..............!

साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों !
पल पल तेरी याद का आना आखिर क्यों !!

जिसको देखो वो मशरूफ है अपने में,
रिश्तों का फिर ताना बाना आखिर क्यों !!

एक से खांचे सांचे में सब ढलते है,
फिर ये मज़हब-जाति-घराना आखिर क्यों !!

एक खता, यानी चाहत थी जीने की
पूरी उम्र का ये जुर्माना आखिर क्यों !!

मसअले उसके शम्सो -कमर के होते हैं,
मेरी मशक्कत आबो दाना आखिर क्यों !!

सितंबर 13, 2009

बोरलाग का जाना

ख़बर मिली कि नॉर्मन बोरलाग नही रहे.....एक टीस सी उठी. बोरलाग वही शख्स थे जिन्होंने 1970 के दशक में भारत और तमाम विकासशील देशों को भोजन उपलब्ध कराने में महती योगदान दिया था। हरित क्रांति के मसीहा के रूप में उन्होंने पिछड़े देशों में खाद्यान्न उपज के प्रति जो आन्दोलन चलाया उसका सम्मान उन्हें नोबेल पुरुस्कार के रूप में मिला। ऐसे में डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन का यह कहना बिल्कुल सटीक ही है कि "नॉर्मन बोरलॉग भूख के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले महान योद्धा थे. उनका मिशन सिर्फ़ खेतीबाड़ी से पैदावार बढ़ाना ही नहीं था, बल्कि वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते थे कि ग़रीब तक अन्न ज़रूर पहुँचे ताकि दुनिया भर में कही भी कोई भी इंसान भूखा ना रहे।"
यदि वैज्ञानिक लहजे में कहा जाए तो उन्होंने छोटे कद वाले गेंहूं और अन्य फसलों के पौधों को उगाने पर ज़ोर दिया ताकि अपनी ऊर्जा को बचा कर पेड़ ज्यादा उत्पाद दे सकें......ऐसा करने से फसली उत्पादन इस हद तक बढ़ा कि फौरी ज़रूरतें पूरी हो सकीं । यह अलग बात है कि कालांतर में इसके बहुत नकारात्मक प्रभाव भी देखे गए क्योंकि उनके बीजों की और खेती-बाड़ी के तरीक़ों की निर्भरता उर्वरक खादों पर बहुत थी जिससे ज़मीन की उत्पादक क्षमता धीरे-धीरेकम होती जाती है. लेकिन फिलहाल हम उन पर न जाकर बस नॉर्मन बोरलॉग को इसलिए याद कर रहे हैं कि उन्होंने ही हमारे जैसे देशों को 1970 में भूख से निजात दिलाई।