इधर काफी दिन से कोई ग़ज़ल ब्लॉग पर पोस्ट नहीं की थी.......दोस्तों की तरफ से उलाहने आ रहे थे कि ग़ज़ल पोस्ट करो..................... पीसिंह, शिवम् मिश्र, सुमति, सत्यम, अमरेन्द्र, मनीष ,पंकज, विप्लवी साहब जैसे दोस्तों की बात का आदर करते हुए एक नयी ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ...........इस उम्मीद में कि आपको ये पेशकस शायद पसंद आये..........! हाज़िर है ग़ज़ल............!
वो कभी गुल कभी खार होते रहे,
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!
मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला,
हौसले हादसों में जो खोते रहे !!
आर्ज़ू थी उगें सारे मंज़र हसीं,
इसलिए फसल ख्वाबों की बोते रहे !!
जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
वो कभी गुल कभी खार होते रहे,
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!
मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला,
हौसले हादसों में जो खोते रहे !!
आर्ज़ू थी उगें सारे मंज़र हसीं,
इसलिए फसल ख्वाबों की बोते रहे !!
जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
37 टिप्पणियां:
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
----
बहुत सुन्दर भाव
खूबसूरत
"जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!"
ज़िन्दगी जीने का सही अन्दाज़ सिखाया आपने । बोझ की तरह ज़िन्दगी को ढोकर जिया तो क्या जिया ॥ हर पन्क्ती खूबसूरत ॥
कल जो मेरी टिप्पणी थी, वह बिल्कुल ठीक थी,यह आज की गजल ने सिद्ध कर दिया.
बहुत ही खूबसूरत लेखनी है आपकी जो इतनी उम्दा रचनाये उकेरती है
रामनवमी की बधाई हो
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
सच कहा आपने
इंसानी फ़ितरत की बहुत उम्दा अक्कासी की गई है
इस शेर में
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
बहुत ख़ूब!
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
आपकी तारीफ हम क्या करें भला
ग़ज़लगो बेशुमार हैं हम कौन होते हैं.....
भैया !
इन दिनों दिल का कटोरा भंगुर-पात्र सा है , उसमें आपकी
आबे-गजल ने बड़ी राहत दी है !
आज सिर्फ भावक की नजर से देखूंगा , खुद की खुशी के खातिर !
.
@ वो कभी गुल कभी खार होते रहे,
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
------ बाहर की दुनिया के सापेक्ष बनती है एक अन्दर की दुनिया ;
जहाँ कुछ फूल सजाते हैं हम कांटे के साथ संतुलन बनाते हुए !
इन अमर-फूलों को अमर-काँटों के साथ ऐसा निर्वाह देते हैं कि
एक बसंत निर्मित होता है , जिसको ताउम्र बहार के लिए तैयार
रखते हैं ,,, इसमें आ ही जाती है खटक कभी कभी .. पैरहन बेदाग़ होने पर
भी धोना जरूरी लगता है , आँखों को भी तो अपने नैसर्गिक धर्म का निर्वाह करना है ! सो करेंगी वे !
.
मुद्दतों का सायादार पेड़ कोई सचेत हो कर क्यों कटेगा , आरी अचेत की लाचारी में चलती है !
या फिर ज्यादा सायादार पेड़ के लोभ में यह मानते हुए कि 'एक म्यान में कहाँ रहेगी दो तलवार' !
@मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को कंधे पे ढोते रहे !!
यहाँ तो ---
'' सब सदाचार की तरह सपाट
और इमानदारी की तरह असफल है | '' ( धूमिल )
@ ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
गाँव में देर तक की बरसात में माटी के पाहों के गिर जाने का बिम्ब मूर्त हो गया !
.
सभी पंक्तियाँ दिल में उतर गयीं , कई बार पढ़ गया हूँ , आज ही आपकी नज्म भी पढी और
गजल भी , आनंद आ गया ! आभार !
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे
वाह जी वाह...सुभान अल्लाह...बहुत दिनों बाद सही लेकिन बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने...मेरी दिली दाद कबूल करें...हर शेर नापा तुला और बेजोड़ है...
नीरज
बहुत खूबसूरत गजल है।
फिर भी हम उनको दिल में संजोते रहे !!
यही तो बात है असली.
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
सुंदर पंक्तियाँ...........सुंदर ग़ज़ल।
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को कंधे पे ढोते रहे....
आज के लिये....जैसे सब कुछ मिल गया इस एक शेर में....
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को कंधे पे ढोते रहे !!
मंजिलें उनको मिलतीं भी कैसे भला,
हौसले हादसों में जो खोते रहे !!
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
बस एक शब्द - उम्दा
हर शेर लाजबाब निकाला है, वाह!
@ वो कभी गुल कभी खर होते रहे ....क्या बात है ...
@ ये ना देखा छत मेरी कमजोर थी ...
बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने ..
किस राह से बचना है ...
किस छत को भिगोना है ...
अच्छी ग़ज़ल ...!!
बेमिसाल, हर शेर काबिले तारीफ़ और वज़नदार. दाद कुबूल करें
कमाल की अदायगी है ... बेहतरीन ग़ज़ल ...
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे
न जाने कितने फूल यूँ ही मुरझाते रहेंगे ..........
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे
ये मजबूरी कभी किसी पर न आए .... ...
बेहतरीन
जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
behad sundar lagi poori rachna
"ग़ज़ल को पढ़ के कुछ कह ना पाए मगर!
मन में शब्दों की लड़ियाँ पिरोते रहे!!"
*
पवन भाई, आपके इस ग़ज़ल की शान में बस यही कह सकता हूँ. आपकी गजलों में देश और समाज का जो गहरा बोध है, उसे देख कर लगता है की अदम गोंडवी' साहेब ने जो बात ग़ज़ल के बारे में कही थी आप उसे पूरी तरह निभा रहे हैं-
"भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो!
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो!!
जो ग़ज़ल महबूब के जलवों से वाकिफ हो चुकी!
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो!!"
आप यूँ ही शानदार ग़ज़लें लिखते रहे..पाठकों की संवेदना को छूते -झकझोरते रहे..मेरी और से ढेर सारी शुभकामनाएँ.
भैया
सर्व प्रथम में ब्लॉग पर देर से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ
बेहतरीन ग़ज़ल
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
सच से रूबरू मिसरा ..............
इश्क का पैरहन यूँ तो बेदाग़ था,
हम मगर उसको आँखों से धोते रहे !!
दिल निकाल के रख दिया हुज़ूर ...........
पूरी की पूरी ग़ज़ल लाजबाब ....................
वादियों में धमाकों की आवाज़ से,
सुर्ख गुंचे जो थे ज़र्द होते रहे !!
बहुत खूब .....!!
जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!
न मिले हम तो ढोये जा रहे हैं ......!!
नज़्म खूबसूरत है और अंत तो
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे!
वाह!
कभी फूल कभी कांटे मगर बिठाया उन्हें दिल में ,वादियों के धमाके से पुष्प का रंग बदलना अच्छे शेर |पेड़ काटने वाली बात हकीकत ,यही हो रहा है आजकल ,मोहतरम वाला शेर भी सच | एक उम्मीद में सपनों की फसल बोना |जिन्दगी को बोझ की तरह ढोने वाले को जिन्दगी बख्शती नहीं है और अंतिम शेर तो कमाल कमजोर छत पर पानी बरसना |
इश्क के पैरहन को ""उनकी"" आँखों से धोना क्या "अपनी " आँखों से धोना नहीं हो सकता था
सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं कुछ तो इतनी प्यारी की लगता है अपना ही दर्द बयान कर रही हों--
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
---कई अर्थ समेटे है।
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!
---इसमें एक इमानदार आदमी का दर्द अभिव्यक्त होता है।
ये न देखा कि छत मेरी कमजोर थी,
देर तक घर को बादल भिगोते रहे !!
---इसमें तो जन-जन की पीड़ा समाहित है।
---बधाई हो sdm साहब गजल के लिए भी और आपकी संवेदना के लिए भी।
--आभार।
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
मोहतरम हो गए वो जो बदनाम थे,
हम शराफत को काँधे पे ढोते रहे !!
ऐसे नायाब और असरदार अश`आर पढ़ कर
दिल को बहुत सुकून हासिल हुआ
पूरी ग़ज़ल बार-बार पढने को मन करता है
मुबारकबाद
दिनों बाद रुख किया तो ये अद्भुत ग़ज़ल प्रतिक्षारत मिली..अहा! इस जमीन पर की ग़ज़ल को इतने बेहतरीन धुन में गुनगुनाया जा सकता है कि क्या बताऊं...
मतले का ऐलान दिल के करीब लगा और इश्क के पैरहन को बेदाग़ होने के बावजूद आँखों से धोते रहने की जिद इसी मतले का विस्तार लगा...क्या खूब अंदाज़ है शायरे-मोहतरम, क्या खूब!
पाचवां शेर हमारा हुआ, गर इजाजत हो तो...
फसल ख्वाबों की बोने वाला शेर भी खूब बना है सर जी। ...और आखिरी शेर हासिले-ग़ज़ल है।
पूरी ग़ज़ल पर ढ़ेरम-ढ़ेर दाद।
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे
बहुत खूब दिल को छूने वाली ग़ज़ल पेश की है
akhiri sher hasil-e-Ghazal hai.... is baat se ham bhi sahamat :)
लाजवाब !!!!!!!!
प्रिय भैया , आपकी ग़ज़ल आपके अनुभव और संवेदनाओं की बानगी है . सुन्दर शेर हैं दिल की गहराई से लिखे है , नाचीज़ का सलाम कबूल करें .'' ज़िन्दगी भी उन्हें बख्सती क्या भला...........'' मार्के की लाईने है .......... हमेशा याद रहेंगी............ उम्दा कलाम ...
wah..wa...
शुक्रिया ,रदीफ़ ,क़ाफिया के मुताल्लिक़ आपका 'नज़रिया' अच्छा लगा
बेहतरीन ग़ज़ल पोस्ट करने करवाने के लिए आपके दोस्त मुबारकबाद के हक़दार हैं .
जिन्दगी भी उन्हें बख्शती क्या भला,
बोझ की तरह जो इसको ढोते रहे !!
बहुत खूब
ब्लॉग पर शिरकत के लए धन्यवाद
सभी शेर बढ़िया है सिंग साहब लेकिन सबसे अच्छा यह शेर लगा मुझे ...
काट डाला उसी पेड़ को एक दिन,
मुद्दतों जिसके साए में सोते रहे !!
kyaa kahein....??
apni zabaan mein....
''very nice''...........!!!!!!
ये ग़ज़ल ख़ूब है - क्या बहुत ख़ूब है
ख़ूबियाँ देख हम मस्त होते रहे !
एक टिप्पणी भेजें