जुलाई 31, 2010

यार जुलाहे...... गुलज़ार !

लाइब्रेरी के रैक में रखी किताबों को उलटते पलते अचानक यार जुलाहे...... गुलज़ार हाथ में आ गयी. यह स्थिति मेरे लिए समंदर में सीपी-मोती मिल जाने वाली थी....याद आया कि यह किताब मैंने लखनऊ के पुस्तक मेले में देखी थी, बस किसी वज़ह से खरीद नहीं पाया था. बहरहाल किताब तुरंत इश्यू कराई और पढने बैठ गया.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.


गुलों को सुनना ज़रा तुम, सदायें भेजी हैं
गुलों के हाथ बहुत सी, दुआएं भेजी हैं
जो अफताब कभी भी गुरूब नहीं होता
हमारा दिल है, इसी कि शुआयें भेजी हैं.
तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं
सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी, घटायें भेजी हैं
तुम्हारे ख्वाब से हर शब लिपट कर सोते हैं
सज़ाएँ भेज दो, हमने खताएं भेजी हैं
**********
तिनका तिनका कांटे तोड़े ,सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लम्बी होती है चांदनी रात जुदाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
**********
तेरे शहर तक पहुँच तो जाता
रस्ते में दरिया पड़ते हैं--

पुल सब तूने जला दिए थे.
**********

मैं कायनात में,
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा

गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों

तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ


लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको

तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ॥

जुलाई 23, 2010

समंदर सामने और तिश्नगी है.......!


मित्रों अपने ब्लॉग पर एक नयी- ताज़ा ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ....! पढ़कर अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत ज़रूर कराईयेगा ....!

समंदर सामने और तिश्नगी है !
अज़ब मुश्किल में मेरी ज़िन्दगी है !!

तेरी आमद की ख़बरों का असर है,
फ़िज़ा में खुशबूएं हैं,ताज़गी है !!

दरो-दीवार से भी हैं मरासिम,
मगर बुनियाद से बावस्तगी है !!

वो आते ही नहीं हैं कर के वादा,
हमारी मौत उनकी दिल्लगी है !!


तेरी आँखों से रोशन है नज़ारे,
तेरी ज़ुल्फों से कोई शब जगी है !!

सुनाये थे जो नग्में कुर्बतों में,
ख्यालों में उन्हीं से नग्मगी है !!


लुटाता रोशनी है बेसबब जो,
उसी के हक में देखो तीरगी है !!

ख़फ़ा मुझसे हो तो मुझको सज़ा दो,
ज़माने भर से क्या नाराज़गी है !!


तुम्हें हर सिम्त हो मंज़िल मुबारक,
हमारे हक में बस आवारगी है !!

जुलाई 14, 2010

"जार्ज एवरेस्ट" पर ब्रेकफास्ट.....!

गत शुक्रवार को अकादमी में आदेश जारी हुआ कि शनिवार कि सुबह सभी लोग "जार्ज एवरेस्ट" प्वाईंट ट्रेकिंग करते हुए चलेंगे.....शनिवार का ब्रेकफास्ट वहीँ लेकर लंच वापस अकेडमी में करेंगे....! जार्ज एवरेस्ट प्वाइंट मसूरी से लगभग 6 किमी दूरी पर है.......पैदल ट्रेकिंग करते हुए अपने 100 साथियों के साथ इस प्वाईंट तक पहुँचना बहुत ही मजेदार अनुभव था......100 अफसरों का यह दल हंसी-ठहाके करते हुए चल पड़ा.....लगभग एक-डेढ़ घंटे के पैदल सफ़र के बाद जब जार्ज एवरेस्ट पहुंचे तो लगा कि क्या ही खूबसूरत जगह पर हम पहुँच गए है....चोटी पर आकर अचानक फैले हुए घास के मैदान जैसा था यह गंतव्य और इस मैदान के बीचों-बीच एक बड़ा सा बंगला भी था, जिसे 'जार्ज एवरेस्ट का बंगला' कहा जाता है ........! यहाँ पहुँच कर हमारे साथियों ने पहले तो नाश्ता लिया....फोटोग्राफी की गयी....देर तक हम सब इस चोटी से पहाड़ों की खूबसूरती को निहारते रहे......! ब्रेकफास्ट लेकर दोस्तों ने इसी पहाड़ी पर अन्त्याक्षरी का दौर शुरू कर दिया जो अगले दो-ढाई घंटे तक चला.
इसी बीच एक जिज्ञासा यह भी जगी कि जार्ज एवरेस्ट के बंगले का जायजा भी ले लिया जाए....यह विशालकाय बंगला जार्ज एवरेस्ट द्वारा 1832 में बनवाया गया था.....! हम देर तक यही सोचते रहे कि आज जबकि दुनिया बहुत आगे पहुँच गयी तब यहाँ छोटा सा घर बनाया जाना मुश्किल काम है.....1832 में यह काम कितना कठिन रहा होगा.....इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है. जार्ज एवरेस्ट (1790-1866) वेल्श के सर्वेक्षणकर्ता थे जो भारत में 1830-43 की अवधि में सर्वेयर जनरल ऑफ़ इंडिया रहे. उन्हें भारत के दक्षिण भारत से लेकर नेपाल तक तकरीबन 2400 किमी तक के भूभाग का ट्रिगोनोमेत्रिक सर्वे करने के लिए जाना जाता है. यह भी जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है कि माउन्ट एवरेस्ट का नाम इसी महान सर्वेयर के नाम पर रखा गया है. मसूरी में के जार्ज एवरेस्ट के बंगले तक जाना एक नया अनुभव था......उन्होंने यह घर 1832 में बनवाया था. वे यह भी चाहते थे कि सर्वे ऑफ़ इंडिया का हेड ऑफिस मसूरी में ही बने....हालाँकि उनकी यह इच्छा अधूरी ही रही...यह ऑफिस बाद में देहरादून में बनाया गया. इस प्वाईंट से हिमालय पर्वत श्रृंखला का दृश्य बहुत ही मनोरम था.
बहरहाल एक मनोरंजक- खुशनुमा दिन का प्रथमार्ध जार्ज एवरेस्ट पर बिताने के लिए लम्बे समय तक याद रहेगा....!

जुलाई 07, 2010

लाज़िम है बारिशों का मियां इम्तिहान अब......!

एक अरसे से ब्लॉग से गायब रहने के बाद फिर से हाज़िर हो रहा हूँ.....दरअसल गोरखपुर से आने के बाद मसूरी की ट्रेनिंग में ऐसा व्यस्त हुआ कि पढना- लिखना सब पीछे छूट गया....जीवन बस जैसे पीपीटी प्रेजेंटेसन'स तक सिमट कर रह गया। सोचा इस चादर के बाहर भी पैर फैलाए जाएँ इसी कोशिश- मशक्कत में ये ग़ज़ल लिख गयी सो बगैर देरी किये ये ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ.....!


उतरा है खुदसरी पे वो कच्चा मकान अब,
लाज़िम है बारिशों का मियां इम्तिहान अब !!

मुश्किल सफ़र है कोई नहीं सायबान अब,
है धूप रास्तों पे बहुत मेहरबान अब !!

क़ुर्बत के इन पलों में यही सोचता हूँ मैं,
कुछ अनकहा है उसके मिरे दरमियान अब !!

याद आ गयी किसी के तबस्सुम की एक झलक,
है दिल मिरा महकता हुआ ज़ाफ़रान अब !!

यादों को कैद करने की ऐसी सज़ा मिली,
वो एक पल बना हुआ है हुक्मरान अब !!

जुलाई 01, 2010

"आइस ब्रेकिंग" ग़ज़ल......!

काफी दिनों के बाद आज ब्लॉग को देखा तो अपनी मशरूफियत का एहसास हुआ.....न कोई पोस्ट न कोई टिप्पणी .......गोरखपुर से मसूरी का ये सफ़र बहुत ही शांति से गुज़र रहा है.....इस ख़ामोशी को एक ग़ज़ल के साथ तोड़ रहा हूँ एक ग़ज़ल के साथ......मगर यह ग़ज़ल मेरी न होकर मेरी हमसफ़र और शरीके हयात अंजू की है...... ग़ज़ल कच्ची है, गलतियाँ होनी ही हैं....! मगर फिर भी पेश है ये ग़ज़ल अपने उसी रूप में बगैर किसी इस्लाह के.......!

हवाओं का दरख्तों से मुसलसल राब्ता है
कि उसकी याद का खुश्बू से जैसे वास्ता है !!
हसीं मंज़र है वो नज़रों में उसको कैद कर लो
इन्ही लम्हों से सदियों का निकलता रास्ता है !!
तेरी चाहत के दरिया में उतर कर सोचते हैं
कि इसके बाद भी जीने का कोई रास्ता है !!
हरे पत्तों पे ठहरी बारिशों कि चाँद बूँदें
इन्ही आँखों से उन अश्कों का गहरा रस्स्ता है !!
किसी भी हाल में 'गेसू' कभी तन्हा कहाँ है
कि गोया साथ उसके चल रहा एक रास्ता है !!
जल्दी मुलाक़ात होगी एक नयी ग़ज़ल के साथ