लाइब्रेरी के रैक में रखी किताबों को उलटते पलते अचानक यार जुलाहे...... गुलज़ार हाथ में आ गयी. यह स्थिति मेरे लिए समंदर में सीपी-मोती मिल जाने वाली थी....याद आया कि यह किताब मैंने लखनऊ के पुस्तक मेले में देखी थी, बस किसी वज़ह से खरीद नहीं पाया था. बहरहाल किताब तुरंत इश्यू कराई और पढने बैठ गया.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.
गुलों को सुनना ज़रा तुम, सदायें भेजी हैं
गुलों के हाथ बहुत सी, दुआएं भेजी हैं
जो अफताब कभी भी गुरूब नहीं होता
हमारा दिल है, इसी कि शुआयें भेजी हैं.
तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं
सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी, घटायें भेजी हैं
तुम्हारे ख्वाब से हर शब लिपट कर सोते हैं
सज़ाएँ भेज दो, हमने खताएं भेजी हैं
**********
तिनका तिनका कांटे तोड़े ,सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लम्बी होती है चांदनी रात जुदाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
**********
तेरे शहर तक पहुँच तो जाता
रस्ते में दरिया पड़ते हैं--
पुल सब तूने जला दिए थे.
**********
मैं कायनात में,
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ
लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ॥