लाइब्रेरी के रैक में रखी किताबों को उलटते पलते अचानक यार जुलाहे...... गुलज़ार हाथ में आ गयी. यह स्थिति मेरे लिए समंदर में सीपी-मोती मिल जाने वाली थी....याद आया कि यह किताब मैंने लखनऊ के पुस्तक मेले में देखी थी, बस किसी वज़ह से खरीद नहीं पाया था. बहरहाल किताब तुरंत इश्यू कराई और पढने बैठ गया.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.
यह किताब दरअसल यतीन्द्र मिश्र के संपादन में वाणी प्रकाशन ने निकाली है..... इस किताब में गीतकार-शायर-फिल्मकार गुलज़ार साहब के बारे में संपादक का 25-26 पन्नों का बेहतरीन भूमिका/ परिचय " कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये" है. संपादक यतीन्द्र मिश्र ने इस भूमिका को लिखने में अपनी काबिलियत का परिचय दिया है उन्होंने गुलज़ार साहब के फ़िल्मी व्यक्तित्व और उनके साहित्यिक पक्ष का बेबाक विश्लेषण करते हुए लिखा है... “हमें उनकी उस पृष्ठभूमि की ओर भी जाना चाहिए, जो मुम्बई से सम्बन्धित नहीं है, इसीलिए गुलज़ार की नज़्मों की पूरी पड़ताल, उन्हें हम उनके सिनेमा वाले व्यक्तित्व से निरपेक्ष न रखते हुए, उसका सहयात्री या पूरक मान कर कर रहे हैं."
यूँ तो गुलज़ार साहब पर इतना ज्यादा लिखा गया है की जब भी कुछ लिखा जाता है वो नया कम दोहराव ज्यादा लगता है....फिर भी यतीन्द्र मिश्र की रचनात्मक साहस की प्रशंसा करनी होगी कि इसके बाद भी उन्होंने अज़ीम शायर गुलज़ार पर लिखने की कोशिश की...और कामयाब कोशिश की है. मिश्र जी इस किताब के वाबत और शायर गुलज़ार साहब के बारे में अपनी बात की शुरुआत कुछ यूँ करते हैं "उर्दू और हिन्दी की दहलीज़ पर खड़े हुए शायर और गीतकार गुलज़ार की कविता, जो हिन्दी की ज़मीन से निकल कर दूर आसमान तक उर्दू की पतंग बन कर उड़ती है, उसका एक चुनिन्दा पाठ तैयार करना अपने आप से बेहद दिलचस्प और प्रासंगिक है. इस चयन की उपयोगिता तब और बढ़ जाती है, जब हम इस बात से रू-ब-रु होते हैं कि पिछले लगभग पचास बरसों में फैली हुई इस शायर की रचनात्मकता में दुनिया भर के रंग, तमाशे, जब्बात और अफ़साने मिले हुए हैं. गुलज़ार की शायरी की यही पुख़्ता ज़मीन है, जिसका खाका कुछ पेंटिंग्ज, कुछ पोर्टेट, कुछ लैंडस्केप्स और कुछ स्केचेज़ से अपना चेहरा गढ़ता है. अनगिनत नज़्मों, कविताओं और ग़ज़लों की समृद्ध दुनिया है गुलज़ार की, जो अपना सूफियाना रंग लिये हुए शायर का जीवन-दर्शन व्यक्त करती हैं. इस अभिव्यक्ति में हमें कवि की निर्गुण कवियों की बोली-बानी के करीब पहुँचने वाली उनकी आवाज़ या कविता का स्थायी फक्कड़ स्वभाव हमें एकबारगी उदासी में तब्दील होता हुआ नज़र आता है। इस अर्थ में गुलज़ार की कविता प्रेम में विरह, जीवन में विराग, रिश्तों में बढ़ती हुई दूरी और हमारे समय में अधिकांश चीजों के सम्वेदनहीन होते जाने की पड़ताल की कविता है. ‘यार जुलाहे........,’ इस अर्थ में उनकी पिछले पाँच दशकों में फैली हुई कविता की स्याही से निकला हुआ ऐसा आत्मीय पाठ है, जिसे मैंने उनके ढेरों प्रकाशित संग्रहों में से अपनी पसन्द की कुछ कविताओं, शेरों, गीतों और ग़ज़लों की शक्ल में चुना है. इस संग्रह को तैयार करने में मेरी पसन्द और मर्ज़ी का जितना हिस्सा शामिल है, उतने ही अनुपात में, इसमें गुलज़ार के शायर किरदार की कैफ़ियत, उनके जज़्बात और निजी लम्हों की रूहें क़ैद हैं. हिन्दुस्तानी जुबान में कुल एक सौ दस नज़्मों का यह दीवान है, तब उसको बनाने, उसको सँजोने की प्रक्रिया तथा गुलज़ार के कवि-व्यक्तित्व और उन दबावों-ऊहापोहों को तफ़सील से बयाँ करना भी यहाँ बेहद ज़रूरी है, जो ऐसे अप्रतिम शायर की खानकाह से निकल कर हमें हासिल हुआ है."
यह कहना कहीं से गलत न होगा की गुलज़ार साहब उब परम्परा के चमकते हुए नगीने है जिसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास, राजेन्द्र सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, शैलेन्द्र, बलराज साहनी, शुम्भु मित्र, गिरीश कर्नाड, विजय तेण्डुलकर, डॉ. राही मासूम रजा, ज़ाँनिसार अख़्तर और पं. सत्यदेव दुबे जैसे नाम शामिल हैं , जिन्होंने सिनेमा माध्यम को गहराई से समझ कर न सिर्फ़ उसे अभिनवता प्रदान की, बल्कि स्वयं की लेखकीय रचनात्मकता को भी अपने-अपने ढंग से समृद्ध किया. गुलज़ार जैसे शायर और फ़िल्मकार का जब कभी भी आकलन हो, तब इसी तरह होना चाहिए कि उनके सिनेमाई क़द को जाँचते समय हम उनके शायर से मुखातिब न हों और जब उनकी रचनाओं पर बात करें, तो थोड़ी देर के लिए इस बात को भूल जायें कि जिस लेखक की चर्चा हो रही है, उसका अधिकांश जीवन सिनेमा के समाज में बीता है.
इस संकलन के विषय में यह तो कहना ही पड़ेगा कि गुलज़ार साहब की झोली में इतने गौहर-मोती हैं कि उनमे से बेस्ट का चुनाव मुश्किल ही नहीं बहुत मुश्किल है मगर मिश्र जी ने यह कारनामा बहुत संजीदगी और सफाई से कर दिखाया है..... गुलज़ार साहब की चुनी हुयी नज्में, त्रिवेनियाँ और फिर ग़ज़लें पेश की हैं। यह संकलन अपने बेहतरीन प्रिंटिंग के लिए तो संग्रहणीय है ही....चित्रकार गोपी गजनवी के रेखांकन कृति को सूफियाना रंग देने में और भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.....गुलज़ार साहब के प्रशंसकों के लिए यतीन्द्र मिश्र का यह ऐसा तोहफा है जो दिल से लगाये रखने के काबिल है. यतीन्द्र मिश्र को उनके शानदार प्रयास के लिए कोटिश: बधाई.
गुलज़ार साहब इतने मकबूल शायर-गीतकार- आर्टिस्ट हैं कि उनकी हरेक रचना इतनी ज्यादा लिखी -पढ़ी जा चुकी है कि कुछ भी अनसुना नहीं लगता। सो पेश हैं, इस संकलन से ली गयी वे नज्में -ग़ज़लें जो अपेक्षाकृत कम सुनी पढ़ी गयी हैं...ताकि इस किताब की ताजगी का भी एहसास बना रहे.
गुलों को सुनना ज़रा तुम, सदायें भेजी हैं
गुलों के हाथ बहुत सी, दुआएं भेजी हैं
जो अफताब कभी भी गुरूब नहीं होता
हमारा दिल है, इसी कि शुआयें भेजी हैं.
तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगती
वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं भेजी हैं
सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है
पहन लो अच्छी लगेंगी, घटायें भेजी हैं
तुम्हारे ख्वाब से हर शब लिपट कर सोते हैं
सज़ाएँ भेज दो, हमने खताएं भेजी हैं
**********
तिनका तिनका कांटे तोड़े ,सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लम्बी होती है चांदनी रात जुदाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
**********
तेरे शहर तक पहुँच तो जाता
रस्ते में दरिया पड़ते हैं--
पुल सब तूने जला दिए थे.
**********
मैं कायनात में,
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
सय्यारों कि तरह भटकता था
धुएं में धुल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस ज़मीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कटकर जो लम्हा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ
लबों से चूम लो आंखो से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमू तो फ़िर पनाह मिले ॥
36 टिप्पणियां:
I am deeply impressed to find a new and stylized writings of yours.
Gulzar saab ,definitely is a creator ,one of his kind and your commentary proves it well enough.
आपका और मिश्र जी दोनों का बहुत बहुत आभार कि गुलज़ार साहब की नज्मो के इस दीवान के बारे में जानकारी मिली !
जनाब सिंह साहब,
शुक्रिया आपका, कि गुलज़ार साहब के ऐसे नायाब कलाम से रूबरू कराया.
हां.....’यार जुलाहे’ टाइटल वाली नज़्म पोस्ट नहीं की आपने....
चलिए पाठकों के लिए हम हाज़िर कर देते हैं-
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते-बुनते
जब कोई धागा टूट गया, या खत्म हुआ,
फिर से सिरा कोई जोड के उसमे आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने मे लेकिन इक भी गांठ गिरह
बंदर की देख नहीं सकता है कोई
मैने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
पर उसकी सारी गिरहें साफ नंज़र आती है.....
मेरे यार जुलाहे.....
मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
है न बहुत खूबसूरत नज़्म!
या अल्लाह .......कोई मुझे भी ये किताब भेज दे ........!!
गुलजार जी अद्भुत लिखते हैं .....क्या हौं ......बहुत सुकून मिलता है ऐसे शायर को पढ़ जो सीधे दिल पर दस्तक देता है .....
और शाहिद जी आप भी ......???
जब पहली बार गुलज़ार साहब की आवाज़ में यार जुलाहे सुना था तो लगा वाह...कैसे कोई शब्द और आवाज़ से जादू जगा सकता है...गुलज़ार रोज रोज नहीं कहीं सदियों में पैदा होते हैं इसीलिए वो गुलज़ार हैं और हमेशा गुलज़ार ही रहेंगे...इस किताब के बारे में बतलाने का शुक्रिया हम तो उनके बहुत पुराने फैन हैं...बहुत ही पुराने..
नीरज
यह किताब मैंने गुलजार जी के खूबसूरत साइन के साथ उस दिन ली थी जिस दिन लखनऊ मे वे इस किताब के विमोचन पर स्वयं आए थे ,मेरे साथ उन्होने फोटो भी खिंचवाई थी... । उस किताब को मैंने दिल से लगाके रखा है....माशाल्लाह !!! क्या जादू है उनकी कलम मे ....इस किताब की कई नज्मे उन्होने रूबरू हम लोगो को अपनी बेशकीमती आवाज मे सुनाई थी .... उस दिन की याद ऐसे है जैसे किसी खुशबू की वादी से गुजरा हो कोई ।
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
..वाह, क्या उम्दा पोस्ट है!
माशाल्लाह! कितना फ्लो से लिखा है आपने... कौनकीटीनेटिवली .. बुहत अच्छी लगी यह पोस्ट... .
क्या बात कही है आपने...
गुलज़ार साहब तो गुलज़ार हैं हीं...उनकी तारीफ की ताब हम जैसों की कलम में कहाँ ...
कहते हैं न..हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा..कुछ लोगों के लिए तो ये शेर इतना माफ़िक बैठता है कि बस दिल करता है कहते ही चले जाओ...
लेकिन आपकी भी प्रस्तुति कम कारगर नहीं रही...देखिये लोग कैसे खींचे चले आये हैं...
बहुत खूबसूरत पोस्ट लगी आपकी....
ये किताब एक पुस्तक दूकान में दिखी थी लेकिन उस दिन ले नहीं पाया. आभार इस जानकारी केलिए.
बहुत बहुत आभार ...गुलज़ार साहब के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा
गुलजार पर पढ़ना कई मायने में नया है मेरे लिए ---
-इसलिए कि सिने-जगत से ताल्लुक नहीं रहा कभी उसतरह ..
-इसलिए भी कि ठेठ अकादमिकी प्रक्रिया में लोकप्रिय लोगों के प्रति एक आरंभिक नकारवादी भाव पैदा हो जाता है ..
-इसलिए कि कभी इज़ाज़त और मासूम के गानों को लिखने वाले को जानने की छटपटाहट नहीं हुई ..
,,, पर अब आप के ब्लॉग से और कभी कभी कुछ जन गुलजार के 'उतारे हुए दिन' को ब्लॉग पर टांग रहे हैं, उससे , जिससे गुलजार को देखना हो रहा है , और बेशक आस्वाद में आनंद आ रहा है ! इस दृष्टि से इस गुलजार पोस्ट का शुक्रिया !
कलाओं पर यतीन्द्र भैया का लेखन एक सधी और पकी कला जैसा ही है ! चाहे उनका लेखन हो या आमने-सामने बातचीत का मसला , ऐसे विषयों पर उनकी पकड़ बेजोड़ है ! अभी गतवर्ष उनके द्वारा नृत्यांगना सोनल मानसिंह पर लिखी गयी किताब 'देवप्रिया' इस दृष्टि से खासी रोचक और उल्लेख्य पुस्तक है !
मुझे मोद इस बात का भी है कि एक आत्मीय द्वारा लिखी गयी किताब का जिक्र एक आत्मीय सज्जन के ही ब्लॉग पर आत्मीय शैली में देख रहा हूँ ! आभार !
पहले तो रश्क हुआ आपलोगों की किस्मत से...कि ऐसी किताबें इतनी आसानी से दुकानों पर ही नहीं, लाइब्रेरी में भी मिल जाती हैं. पर शुक्रगुजार हूँ, कि आपने इतनी आत्मीयता से उस पुस्तक और यतीन्द्र मिश्र के द्वारा उनके लिखे परिचय से रु-ब-रु करवाया,
उनकी खूबसूरत नज्में पढवाने का शुक्रिया
यतीन्द्र जी ने वाकई बिल्कुल सधे हुए अन्दाज में गुलज़ार साहब के व्यक्तित्व को रेखंाकित किया है। आपकी पोस्ट के बहाने हमें भी गुलज़ार साहब के विषय में थोड़ी और जानकारी हुई। किसी एक रचना की पंक्तियों को कोट करने की हिम्मत नहीं है
गुलज़ार को पढना ...मानो खुद अपनी रूह को सुनना ...
बहुत अच्छी पोस्ट ...!
गुलज़ार साहब को पढ़ना या सुनना ज़ह्न ओ रूह को सुकून बख़्शता है ,
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
बहुत ख़ूब!
धन्यवाद सिंह साहब
बेहद सुन्दर प्रस्तुति. गुलज़ार को पढना!!!!!! अच्छा लगा
adarniya bhaiya
guljar sahab se apne to bilkul
rubru kara diya
praman swikaren
psingh
गुलज़ार की बात ही कुछ और है. बहुत कम लोग होते हैं जो गिफ़्टेड होते हैं.
यार जुलाहे से परिचय के लिए आभार !
गुलज़ार...जैसे सोना या खुशबू या गर्म मौसम में मद्धम मद्धम चलती हुई हवा. विज्ञापन की भाषा में कहें तो "नाम ही काफी है".
यतीन्द्र मिश्र ने बड़ी मेहनत और मन लगा कर यह किताब रची है. गुलज़ार साहब वो अज़ीम हस्ती जिस पर हर कोई लिखने की हिम्मत भी नहीं कर सकता. फिर उनकी काविश और कोशिश को आपने जिस अंदाज़ से सराहा और गुलज़ार साहब को जैसे हमारे सामने रखा, उस की तारीफ़ कैसे करूं?
आप की दूसरों को हाईलाइट करने वाली पोस्ट्स पढकर मुझे रश्क होने लगता है--- पता नहीं मैं कभी उस मंजिल पर पहुँच भी सकूंगा जब लोग मुझे भी हाईलाइट करेंगे.
इस पोस्ट के पीछे जो मेहनत आपने की, उसका चश्मदीद गवाह मैं हूँ. अब मालूम हुआ आप परेशान क्यों थे.
बहुत बहुत धन्यवाद! अच्छी जानकारी प्राप्त हुई ! उम्दा प्रस्तुती!
मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!
बहुत खूब भैया उनके बारे में अपने ऐसा लिखा है कि......बस बार-बार दाद देने का मन कर रहा है....हजरत अमीर खुसरो के बाद गुलज़ार जी सबसे ज्यादा क्रिएटिव लगते है....सुंदर पोस्ट के लिए दिल शुभकामनायें
आदरणीय गुलज़ार साब के कद को बेहतरीन ढंग से मापती लगी ये पोस्ट.. पर चंदा का झिंगोला भला सिल पाया है कोई!! तस्लीम अर्ज़ है आपको भी सिंह साहब.. आपने वाणी जी की पोस्ट पर आह्वाहन किया और हम भी सुन के चले आये.. :)
अमरेंद्र जी के फेसबुक के रास्ते इधर आना हुआ।
इस पोस्ट का एक शेर
वो सारी चीज़ जो तुमको रुलायें भेजी हैं।
किस कदर हांट कर रही है क्या कहूँ ? जल्द ही इससे संबंधित पोस्ट मिल जाये मेरे ब्लॉग पर तो चोरी का इल्ज़ाम ना लगाइयेगा। :)
इस किताब पर अपनी भी मिल्कियत है...लेकिन जिस प्रवाह के साथ आपने लिखा है, मुझसे न हो पाता कभी।
खूब वक्त मिल रहा है लगता है मसूरी की उन वादियों में।
गुलज़ार साब के बारे में क्या कहें ... मुझे तो उनकी हर रचना बेहतरीन लगती है ...
इतनी खूबसूरत रचना पढवाने के लिए शुक्रिया !
जानकारी के लिए आभार.
yaar julahe waqayi bahut achchi bemisaal kitaab hai
mere pass bhi ye kitaab hai padh kar man sakun se bhar jata hai
तिनका तिनका कांटे तोड़े ,सारी रात कटाई की
क्यों इतनी लम्बी होती है चांदनी रात जुदाई की
आँखों और कानों में कुछ सन्नाटे से भर जाते हैं
क्या तुमने उड़ती देखी है, रेत कभी तन्हाई की
तारों की रोशन फसलें और चाँद की एक दराँती थी
साहू ने गिरवी रख ली थी मेरी रात कटाई की
**********
main to khokar reh gayi!
thanx sir..itni sundar nazm dene ke liye!
पवन भईया, जन्मदिन की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
aadarniy guljaar ji ke baare mere khyal se shayad hi koi aprichi hoga ,sambhavtah aaj ki peedhi ko chhod kar.kamaal ke pratibha ke dhani insaan hain .han,unki najmo ki sougaat se parichy karane ke liye aapkobahut-bahut dhanyavaad.
poonam
bahut badiya paryaas..
Meri Nayi Kavita Padne Ke Liye Blog Par Swaagat hai aapka......
A Silent Silence : Ye Paisa..
Banned Area News : Sitting down for hours could invite cardiac disaster
behtreen prastuti.....
संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित, धन्यवाद.
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