नवंबर 09, 2010

एक सार्थक उपन्यास.....'ये वो सहर तो नहीं' !

" ये दाग दाग उजाला ये शब ग़जीदा सहर,
वो इन्तिजार था जिसको ये वो सहर तो नहीं "

फैज साहब की नज़्म से प्रारम्भ होने वाला उपन्यास ‘ये वो सहर तो नहीं......‘ वर्तमान परिदृश्य को जिस बेबाकी से बयान करता है उसके लिए लेखक पंकज सुबीर प्रशंसा के पात्र हैं। गुदगुदी करते करते कोई तेजी से कचोट जाये तो कैसा लगता है........ बस यही एहसास है "ये वो सहर तो नहीं".....!
यह उपन्यास विन्यास और शिल्प की दृष्टि से इसलिए अद्भुत है क्योंकि यह उपन्यास 1857-2007 के 150 वर्षों की कहानी कहता है। अगर यह कहा जाए कि डेढ़ सौ वर्षों से अधिक समय की थाह लगाते हुए लेखक पंकज सुबीर ने प्रकारान्तर से लोकतंत्र की सामर्थ्य और सीमा को परखा है, तो कहीं से गलत न होगा. उपन्यास के पात्र आजादी के पूर्व के आशावाद और आजादी के बाद की उपजी परिस्थितियों के बीच हिचकोले खाते नजर आते हैं. देश में तख़्त बदलता है, निजाम बदलता है मगर परिस्थितियॉ जस की तस रहती हैं. उपन्यास सिद्धपुर (जिसे बाद में सीदपुर कहा गया है) के अंग्रेजी केंटोमेंट और नबावी हुकूमत से आरंभ होती हुई आज के सीदपुर तक जाती है. यद्यपि सिद्धपुर की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने में पंकज काफी समय लगाते हैं किन्तु यह परिचय काफी रोचक है सो पाठकों को बोझिलता महसूस नहीं होती कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, पात्रों को वुसअत मिलती है. कहानी की शुरुआत में अँगरेज़ पोलिटिकल एजेण्ट हृयूरोज का बंगला उपन्यास का मुख्य पात्र बनता है. इस बंगले में 1857 में हृयूरोज अपने सहयोगियों के साथ एक पोलिटिकल एजेण्ट की भांति जो कुछ भी कर गुजरने की फिराक में है वही कमोबेश 2007 में इसी जगह सीदपुर के कलेक्टर (आई.ए.एस.) मानवेन्द्र सिंह द्वारा अपनी चाण्डाल चैकडी के मार्फत दोहराया जाता है। शासन -प्रशासन -पत्रकारों की यह तिकड़ी जिस भी तरह अपने स्वार्थों की पूर्ति करती है, उसे यह उपन्यास बखूबी प्रस्तुत करता है.

राजनीतिक व्यक्तित्वों और उनके सोचने की प्रवृत्ति को यह उपन्यास जिस बेबाकी से प्रस्तुत करता है वह लाजबाव है। उपन्यास के पात्र और घटनाएं भले ही काल्पनिक हों लेकिन वास्तव में वे हमारे आस-पास से उठाए गए प्रतीत होते हैं....! यही इस उपन्यास की सफलता है...!पात्र और घटनाएँ किस तरह पाठक से नाता जोड़ लेते हैं, इसकी एक बानगी उपन्यास के इस अंश में देखिये....... ‘‘बात तब की है जब उस घटना को बीते कुछ ही दिन हुए थे जब एक संन्यासिन ने एक राजा को सूबे के चुनावों में हरा कर सत्ता हथिया ली थी. यह भी बिल्कुल अलग बात है कि राजा, राजा नहीं थे केवल नाम के ही थे और संन्यासिन भी संन्यासिन होकर केवल नाम की ही थीं. राजा केवल इसलिए राजा थे क्योंकि उनके पूर्वज किसी रियासत के राजा हुआ करते थे और संन्यासिन केवल इसलिए संन्यासिन थीं क्योंकि वे भगवा रंग के वस्त्र धारण करती हैं. इसके अलावा न तो राजा के आचरण में राजा जैसा कुछ था और ना ही संन्यासिन के आचरण में संन्यासिन जैसा ही कुछ था. संन्यासिन के हाथ से सत्ता जानी थी सो अन्ततः चली ही गयी. सत्ता गयी इसका मतलब यह कि उनकी पार्टी से उनको चलता कर दिया गया. उनकी पार्टी यूज एंड थ्रो में बहुत विश्वास करती थी.‘‘

आई।ए.एस.-पत्रकार-नेताओं की यह तिकड़ी किस प्रकार निजी स्वार्थों में लिप्त और आकण्ठ डूबी हुई है, यह इस उपन्यास का केन्द्र बिन्दु है। विकास और जनता के हितों की अनदेखी कर कैसे यह तिकड़ी अपने स्वार्थों की पूर्ति करती है....उपन्यास में यह रोमांचक मोड़ है. सिद्धपुर का कलेक्टर मानवेन्द्र जो एक आई.ए.एस. अफसर है वो जिस कूटनीतिक ढंग से अपने विरोधी पत्रकार ‘परमार‘ से निपटता है वो उपन्यास में ‘थ्रिल‘ पैदा करता है.

बहरहाल इस उपन्यास में आज की सच्चाईयों को पंकज सुबीर ने बहुत ही बेबाकी से परोसा है। ‘तंत्र‘ किस प्रकार अपने हितों तक सिमट कर रह गया है, यह उपन्यास इस सोच की बेहतरीन प्रस्तुति है. भाषा की दृष्टि से तो उपन्यास बेजोड़ है. स्थानीय लोकोक्तियों को समाहित करते हुए पात्रों का आपसी संवाद सहज रोचकता पैदा करता है,जैसे ‘हाथ पुंछे भैरों', ‘बीमार कुत्ते वाला किस्सा' (पृष्ठ 111), 'कच्चा कैरी पक्का आम, टॉई टुईँ लेंडी फुस्स' (पृष्ठ 32) जैसे कई जुमलों का प्रयोग इतनी सावधानी से किया गया है कि लेखक पंकज सुबीर का लेखकीय कौशल देखते ही बनता है.

ब्लोगर नीरज गोस्वामी यदि यह कहते हैं कि "ये वो सहर तो नहीं" पढते वक्त कई बार ऐसा लगता है कि जैसे हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित व्यंगकारों जैसे परसाई जी, शरद जोशी जी, श्री लाल शुक्ल जी या फिर ज्ञान चतुर्वेदी जी को पढ़ा जा रहा है तो गलत अथवा अतिश्योक्ति नहीं लगता.......! दो काल में सामानांतर चल रही कहानियों में तालमेल बिठाना कोई हंसी खेल नहीं, पंकज जी का ये विलक्षण लेखन उन्हें अपने समकक्ष लेखकों से बहुत आगे ले जाता है। बकौल नीरज, लेखन की इतनी खूबियां एक ही उपन्यास में समेटना बहुत आश्चर्य का विषय है और ये पंकज जी के गहन अध्यन और हमारे समाज में घट रही गतिविधियों पर उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है. उन्होंने जिस अंदाज़ से पात्रों का चरित्र चित्रण किया है उसे पढ़ कर लगता है जैसे हम उन्हें जानते हैं और वो हमारे बीच के ही हैं.

बहरहाल जागरूक पाठकों के लिए यह कृति संग्रहणीय व अपरिहार्य है। एतिहासिक पगडण्डियों से गुजरते हुए वर्तमान की गंदी गलियों तक पहुँचने में यह कृति एक ‘गाइड‘ की तरह कार्य करती है. वैसे तो पंकज सुबीर युवा लेखकों की श्रेणी में अग्रिम पंक्ति में आ ही चुके हैं मगर फिर भी पंकज सुबीर जैसे लेखकों को प्रोत्साहित करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि नयी पीढी के लेखकों में महान कथाकार कमलेश्वर सरोखी ‘किस्सा गोई‘ की प्रवृत्ति इतनी दृढ़ रूप में कम ही देखने को मिलती है. कथा-शिल्प-भाषा की दृष्टि से उपन्यास ‘ये वो सहर तो नहीं‘ के लिए लेखक पंकज सुबीर को इस उपन्यास के लिए कोटिश: बधाई, साधुवाद. भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार से यह कृति यदि सम्मानित की गयी है तो यह कृति इसकी सही हकदार है भी.

निष्कर्षत: फैज के मोहभंग ‘वो इन्तजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं‘ से साहिर के प्रबल आशावाद ‘वो सुबह कभी तो आएगी‘ के बीच यह कृति एक साहित्यिक, सामाजिक दस्तावेज है जिसके लिए लेखक पंकज सुबीर की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है.

25 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

सब से पहले तो बेहद नाराज़ हूँ आपसे .....मैनपुरी आये और बताया भी नहीं ...यह क्या बात हुयी जनाब !?

वैसे, बेहद उम्दा रिवियु है ..... आपका बहुत बहुत आभार ! पंकज जी को बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

रोचक वर्णन ने पढ़ने की उत्सुकुता जगा दी है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आप मेरी बात से सहमत हुए देख कर खुशी हुई...यकीनन पंकज जी का ये उपन्यास आधुनिक व्यंग लेखन में मील का पत्थर साबित होगा.


नीरज

पंकज सुबीर ने कहा…

पूरी समीक्षा को एक सांस में पढ़ गया । क्‍योंकि ये उपन्‍यास प्रशासनिक व्‍यवस्‍था के विरोध में चलता है इसलिये किसी प्रशासनिक अधिकारी की समीक्षा बहुत मायने रखती है । बड़ी बात ये है कि कुछ दिनों पहले ही दैनिक भास्‍कर में इस उपन्‍यास की एक समीक्षा श्री अभय अरविंद बेडेकर ने की है जो स्‍वयं एसडीएम हैं । और अब आप । दोनों ने एक ही स्‍वर में जो कहा है उससे मुझे लगता है कि उपन्‍यास अपने आप को ठीक प्रकार से अभिव्‍यक्‍त कर पाया है । आपने तो जिसे प्रकार उपन्‍यास की वो सभी छोटी छोटी बातें पकड़ी हैं उसे देख कर दंग रह गया । लेखक किसी भी कृति को लिखते समय जिस मनोदशा में होता है यदि उसे कोई समीक्षक ठीक प्रकार से पकड़ ले तो लेखक का लेखन सफल हो जाता है । आपने वहीं किया है । समीक्षा को कापी करके ले जा रहा हूं ताकि आपके नाम से आपकी सहमति से प्रिंट मीडिया में उपयोग कर सकूं ।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा समीक्षा..जल्द हॊ पढ़ने मिल रही है यह उपन्यास हमें भी.

निर्मला कपिला ने कहा…

पंकज सुबीर जी की विलक्षण प्रतिभा से तो खूब परिचित हूँ। उनके उपन्यास के बारे मे बहुत चर्चा सुनी मगर अभी पढा नही। आपकी समीक्षा पढ कर उपन्यास पढने की इच्छा वलवती हो उठी है। मेरा विश्वास है कि पंकज सुबीर का नाम साहित्य के इतिहास मे सुनहरे शब्दों मे लिखा जायेगा। उन्हें इस उपन्यास के लिये बहुत बहुत बधाई और आपका धन्यवाद।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

लग रहा है एसडीएम लोगों ने सांठ-गांठ कर रखी है, मामला आखिर बिरादरी का जो ठहरा (अधिकारियों वाली) :D
लेकिन यदि एक पाठक अपनी राय इस प्रकार की दे रहा है तो निश्चित रूप से ही उपन्यास बढिया होगा और यथार्थ के निकट भी.
अवश्य पढ़ूंगा..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

काशीनाथ सिंह का भी एक उपन्यास बहुत चर्चित हुआ है, उसे भी पढ़ना है...

pran sharma ने कहा…

BHARTIYA JNANPITH DWARA " YE VO
SAHAR TO -- " KAA PUSASKRIT HONAA
HEE SAB SE BADEE UPLABDI HAI
UPNYAASKAR SHRI PANKAJ SUBEER KEE .
VAH SAMKAALEEN KATHA AAKASH KE
DHRUV TARA BANEN , MEREE HARDIK
KAMNA HAI.

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

मुलम्मा चढ़ा के बात कहने की बजाय सच कहना श्रेयस्कर होगा| आज के दौर के सुदृढ़-सशक्त हस्ताक्षर, साहित्य के डे-नाइट हिमायती एवम् दूरगामी सोच के वाहक पंकज सूबीर जी को जान कर मुझे चंद दिन ही हुए हैं [यह मेरी कमी है, चूँकि मैं साहित्यिक मुख्यधारा से काफ़ी लंबे अंतराल के बाद जुड़ा हूँ], इसलिए इन के बारे में बहुत कुछ लिखना अभी सम्भव नहीं हो पा रहा| फिर भी, इन चंद दिनों में जो कुछ जान पाया हूँ इन के बारे में, और जैसा कि उक्त समीक्षा में भी वर्णित किया गया है, अब तो मैं भी लालायित हो गया हूँ इस उपन्यास को पढ़ने के लिए|

बहरहाल, बहुमुखी प्रतिभा के धनी भाई श्री पंकज सुबीर जी को मेरी तरफ से भी बहुत बहुत मुबारकबाद| ईश्वर आप को कामयाबी की हर बुलंदी को छूने में मददगार साबित हो| साहित्य के प्रति आप का समर्पण बेमिसाल है| समय के साथ साथ आप के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है| आप की सदा ही जय हो पंकज भाई|

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

pankaj ji bahut achha ye samiksha padh kar bahut bahut badhai aapko ....

तिलक राज कपूर ने कहा…

मेरी बात शायद कुछ लोगों को अच्‍छी न लगे, लेकिन इस सत्‍य को नकारा नहीं जा सकता कि प्रशासनिक व्‍यवस्‍था का वर्तमान स्‍वरूप लोकतंत्र का पक्षधर नहीं बचा है। स्‍वार्थ लोलुपता में बढ़ते हुए कुछ अधिकारियों के कारण एक विचित्र सी स्थिति निर्मित हो गयी है जिसमें प्रतिबद्ध जनसेवक तक घुटन महसूस करने लगे हैं। और कुछ प्रशासकीय अधिकारी 'ये वो सहर तो नहीं' से खुलकर सहमत हैं तो निश्चित ही ये अधिकारी कुछ अलग सोच रखते हैं और अपने सेवा-धर्म को समझ रहे हैं। अगर कुछ अधिकारी भी लोकतंत्र के प्रति खुलकर अपनी प्रतिबद्धता व्‍यक्‍त करते हैं और मनसा-वाचा-कर्मणा एक ही हैं तो बदलाव अवश्‍य आयेगा। वो सहर अवश्‍य आयेगी जो खो गयी है।

VOICE OF MAINPURI ने कहा…

मान गये....भैया इतनी खुबसूरत समीक्षा की है उपन्यास से पहले इस समीक्षा की तारीफ़ नहीं की तो गुनाह नहीं बल्कि गुनाह-ए-अज़ीम होगा.जिस तरह से आपने लिखा है लगता है ''रागदरबारी'' का ''ये वो सहर तो नहीं....''नया अप डेटिड वर्जन है....अब इसको पढना जरुरी हो गया है..

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ग़ज़ल, कवितायें और कहानी ...... पंकज जी की लेखनी किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है .....उनका कहानी संग्रह पढ़ कर उनकी विलक्षण कल्पना शक्ति और लेखन विधा से सब परिचित है .... ये उपन्यास अभी पढ़ तो नहीं सका पर आपकी और सभी टिप्पणियों से लग रहा है की आपने उपन्यास की आत्मा को खोज निकाला है ... आशा है जल्दी ही इसको पढने का सौभाग्य मिलेगा .....

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

पंकज जी के लेखन कौशल से उनके ब्लॉग पर अनेक बार रूबरू होने का मौका मिला है...इस उपन्यास की भी इन दिनों काफ़ी चर्चा हो रही है...
सिंह साहब आपने भी इस समीक्षा रूपी पोस्ट को बहुत प्रभावी ढंग से पेश करते हुए उत्सुकता पैदा कर दी है.

Arvind Mishra ने कहा…

ये वो सहर तो नहीं जुगुप्सा उत्पन्न करती है-समीक्षा में अन्य पहलुओं प्रकाशक ,पृष्ट मूल्य का अभाव खटकता है !

Kunwar Kusumesh ने कहा…

आपके ब्लॉग पर पंकज सुबीर जी के उपन्यास की समीक्षा पढ़ी. पात्रों की चर्चा तथा दृष्टान्तों का बढ़े सलीके से सिलसिलेवार उल्लेख पुस्तक को विधिवत पढ़ने के लिए प्रेरित करता है.समीक्षा शुरू से अंत तक पाठक को बिलकुल बांधे रखती है.ये खूबी एक कुशल समीक्षक के क़लम में ही होती है कि वो कैसे grooming करते हुए चलता है.आपकी साहित्यिक रूचि,पंकज सुबीर जी के उपन्यास से परिचय,सब अच्छा लगा.और हाँ,आपका मेरे ब्लॉग पर आना भी अच्छा लगा.आभार.
कुँवर कुसुमेश
ब्लॉग :kunwarkusumesh.blogspot.com

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

शायद कभी हवा के पंखों पर चढ़कर यह पहुँचे हम तक
तब पढ़ लें हम और आपकी बातों से भी सहमत हो लें
अभी सिर्फ़ चर्चायें पढ़ कर अपने मन को बहलाते हैं
अगर इनायत हो जाये तो हो सकता है पाठक हो लें

Pushpendra Singh "Pushp" ने कहा…

परम आदरणीय भैया
बहुत ही उम्दा लिखा इस उपन्यास के बारे में
जरुर ही कोई खास बात होगी
आभार

सत्येन्द्र सागर ने कहा…

ये उपन्यास मैंने आपके घर पर ही आपके पुस्तकालय मैं पढ़ा था. यह एक बहुत ही जानदार उपन्यास है जो की वर्तमान राजनितिक-प्रशाशनिक संस्कृति का शानदार वर्णन करता है. आपकी समीक्षा ने इस उपन्यास की उपयोगिता और बढा दी है. मुझे लगता है समाज के हर जागरूक व्यक्ति को इस उपन्यास का पाठन अवश्य करना चाहिए.

Abhishek Ojha ने कहा…

हम्म... पढ़ी जायेगी कभी. रोचकता तो बना ही दी है आपने. बिन झूठ बोले कहूं तो अगले साल पढ़ ली जायेगी.

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι ने कहा…

आपके अन्दाज़े- बयां ने उपन्यास पढ्ने की ललक मन में पैदा कर दी है। पंकज जी को एडवान्स में मुबारकबाद और आपका आभार।

वाणी गीत ने कहा…

काकोड़ा की तस्वीरें देखने आये तो उपन्यास की कहानी मिल गयी ...
रोचक वर्णन ...प्रशासनिक अधिकारी होकर ऐसी निष्पक्ष सोच ....कही कुछ उम्मीद की किरण है तो !

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

पढ़ गया एक साँस में पंकज सुबीर जी की तरह मैं भी।

आपने समीक्षा मनोयोग से की है, जिस पर सुबीर जी का प्रसन्न होना स्वाभाविक है। क्योंकि सर्जक की सर्जना परखी/परख ली जाय - इसका भी एक तोष है।

आभार!

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

पुस्‍तक अभी तक नहीं पढ़ी है जबकि सुबीर भाई दे चुके हैं। समीक्षा इसलिए नहीं पढ़ी क्‍योंकि पहले पुस्‍तक तो पढ़ लूं।