............ मुशायरा परवान चढ़ चुका था अब उस्ताद शायरों की बारी थी. नाज़िम मुशायरा ने माइक पर अकील नोमानी को दावत दी. इधर बीते कुछ बरसों में अकील नोमानी, मंच मुशायरों के चर्चित नाम रहे हैं. अकील नोमानी ने ’’ अपने काबू से निकल जाने को जी चाहता है, गिरते गिरते भी संभल जाने को जी चाहता है. लाख मालूम हों झूठे हैं दिलासे लेकिन, बाज़ औकात बहल जाने को जी चाहता है. ’’ कलाम सुनाया तो सामयीन की आखिरी हद तक वाह-वाह का शोर गूंज उठा. पहले तहत और फिर तरन्नुम............................ दोनों तरीके से अपनी गजलों को अकील नोमानी ने सुनाया. सामयीन की मांग पर उन्होंने अपनी गजल ’’महाजे-जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है, किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है. खुशी गम से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती, मुसलसल हँसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है. मैं जिन लोगों से खुद को मुख्तलिफ महसूस करता हूँ, मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है .’’ सुनायी तो मंच उनकी जिन्दाबाद की आवाजों से गूंज उठा.
अब तक मेहमान शायरों का तआर्रूफ कराते हऐ उन्हें माइक पर दावत देने में मसगूल नाजिम मंसूर उस्मानी को अपना कलाम सुनाने के लिये जब डा0कलीम कैसर ने दावत दी तो माहौल और भी खास हो उठा. एक मुददत से मंसूर उस्मानी मुशायरों के खास नाजिम (संचालक) रहें हैं. देश से लेकर विदेशों में चाहे सऊदी अरब हो ,बहरीन हो,कनाडा हो या अमेरिका...........हरेक जगह मुशायरों में उनकी निजामत ने अपनी कामयाबी का परचम फहराया है. वास्तव में निजामत मुशायरे की कामयाबी -नाकामयाबी बहुत बड़ी वज़ह होती है....................... मंसूर साहब ने यह जिम्मेदारी अपने कन्धों पर जब जब उठायी है, मुशायरों में कामयाबी की नई इबारत गढ़ी है. बहरहाल मंसूर साहब ने ’’चाहे दिल ही जले रोशनी के लिये , हम सफर चाहिये जिन्दगी के लिये. दुश्मनी के लिये सोचना है गलत, देर तक सोचिये दोस्ती के लिये." और " कभी कभी तो हमें दिल ने ये मलाल दिया , तुम्हारी याद भी आई तो उसको टाल दिया. दिलों की बात में दिल्ली को जोड़कर यारों, गजल को हमने बड़ी कशमकश में डाल दिया. " गजल पढ़कर अपने हुनर का सबूत पेश किया।
मुशायरा अपने अन्तिम पड़ाव में था ........... आवाज़ दी गयी मेहमान शायरा इशरत आफरीन को . मैनपुरी मुशायरे के लिए मोहतरमा इशरत आफरीन अमेरिका से आयी थीं. टेक्सास यूनीवर्सिटी की हेड ऑफ़ उर्दू डिपार्टमेंट और शायरी की एक बड़ी शख्सियत मोहतरमा इशरत आफरीन ने संयोजक हृदेश सिंह के महज़ एक अनुरोध पर उन्होंने हैदराबाद का मुशायरा छोड़कर मैनपुरी आना मन्जूर किया था. उपस्थिति सामयीन ने उनकी भारत आमद का खड़े होकर इस्तकवाल किया . खुद मोहतरमा इशरत आफरीन ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुये शानदार शेर सुनाये. उनकी गजल ’’भूख की कड़वाहट से सर्द कसीले होंठ खून उगलते, सूखे, चटखे, पीले होंठ. टूटी चूड़ी ठंडी लड़की बागी उम्र, सब्ज़ बदन पथराई आँखें नीले होंठ. सूना आँगन तनहा औरत लंबी उम्र,ख़ाली आँखें भीगा आँचल गीले होंठ’’ ने बैठी हुयी महिला श्रोताओं को खास तौर पर आकर्षित किया. ग़ज़ल में फेमिनिस्ट मूवमेंट की बड़ी लम्बरदार के रूप में पहचानी जाने वाली मोहतरमा इशरत आफरीन ने " लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती हैं, तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं. माँए अपने दुःख की विरासत किसको देंगी, संदूकों में बंद ये जेवर क्यों रखती हैं." सुनकर सामईन को दीवाना बना दिया. उन्हें सुनकर लगा कि गजल पढ़ने का शऊर तो कोई मोहतरमा इशरत आफरीन से सीखे। अगर महान गजल गायक जगजीत सिंह ने उनकी गजल गाई हैं, तो उनका चुनाव कहीं से गलत नहीं है. उन्होंने मैनपुरी के इस मंच के माध्यम से पूरे आवाम को अपनी मेहमान नवाजी का शुक्रिया कहा.
अब बारी थी मुशायरे की शान, हिन्दुस्तान के अजीम शायर और इस मुशायरे के सदर-ए-मोहतरम ज़नाब वसीम बरेलवी साहब का. नाजिम ने ज़नाब वसीम बरेलवी को माइक पर आने की दावत दी तो सुबह के तीन बजे चुके थे। मगर सामयीन की बड़ी तादाद उन्हें सुनने के लिये अभी तक जमी हुयी थी. वसीम साहब ने मंच पर आते ही मैनपुरी की जनता को सलाम करते हुये एक से बढ़कर एक शेर पढ़े " शाम तक सुबह की नजरों से तर जाते हैं, इतने समझौंतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं. इक जुदाई का वह लम्हा कि जो मरता ही नहीं, लोग कहते थे कि सब वक्त गुजर जाते हैं" जैसे शेरों से आगाज़ कर उन्होंने जनता की मांग पर " उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है, जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है. नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये, कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है. थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे , सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है. बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता, मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है. सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का, जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है." सुनाया. अगले एक घन्टे तक वे बिना रूके एक से बढ़कर एक शेर से भीड़ को नवाजते रहे. "कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है, ये सलीक़ा होए तो हर बात सुनी जाती है. जैसा चाहा था तुझेए देख न पाये दुनिया, दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है. अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ , जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है " जैसे लोकप्रिय शेर कभी तहत तो कभी तरन्नुम में पढ़कर वसीम साहब अपनी मकबूलियत का एहसास करा गए.
आखिर में सुबह चार-सवा चार बजे संयोजक हृदेश सिंह ने अपनी संयोजक समिति और आयोजक समिति के साथ-साथ हाजरीन, मेहमान शायर और मोहतरम मेहमानों का शुक्रिया अदा किया तथा मुशायरे के बेहतरीन इन्जामात और सह- संयोजन के लिए स्थानीय कवि दीन मोहम्मद दीन और फ़साहत अनवर को बधाईयाँ दीं तो मैनपुरी की जनता ने भी संयोजक हृदेश सिंह का तालियाँ बजाकर सम्मान व धन्यवाद ज्ञापित किया
इस प्रकार एक अदबी मुशायरा मैनपुरी की इस प्रदर्शनी के इतिहास में सोने के अक्षरों में कैद हो गया. सच तो यह है कि यह एक ऐसा मुशायरा था , जिसे लोग लम्बे समय तक भुला नहीं पायेंगे.
22 टिप्पणियां:
बेहद उम्दा और दिलचस्प वर्णन किया है आपने मैनपुरी के इस बेहतरीन मुशायरे का ... आनंद आ गया ... बहुत बहुत आभार !
बहुत उम्दा !
ख़ूबसूरत अश’आर और एक अच्छे मुशायरे का इतना मुतवाज़िन बयान !!!!!!!
माशाअल्लाह !
मुबारक हो !
बहुत अच्छा वर्णन, आनन्द ही आनन्द..
बहुत खूब भैया
जोरदार चित्रण किया मुशायरे का
एक बार फिर मुश्यारा सुन कर मजा आ गया
वसीम साहब ने तो मंच तो लूटा ही
मैनपुरी की जनता का दिल भी लूट लिया
आपकी लेखनी को सलाम .....!
वाह...वाह...वाह.....
आद सिंह साहब ..आपकी ये पोस्ट पढ़कर तो हमने मुशायरे का पूरा आनंद ले लिया ......
महाजे-जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है,
किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है.
खुशी गम से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती,
मुसलसल हँसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है.
सुभानाल्लाह ....
अकील नोमानी साहब के बहुत ही उम्दा शेर ...
दुश्मनी के लिये सोचना है गलत,
देर तक सोचिये दोस्ती के लिये."
वाह.....
माँए अपने दुःख की विरासत किसको देंगी,
संदूकों में बंद ये जेवर क्यों रखती हैं."
वाह...वाह......
इक जुदाई का वह लम्हा कि जो मरता ही नहीं,
लोग कहते थे कि सब वक्त गुजर जाते हैं"
क्या बात है.....
हुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता,
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है.
ज़नाब वसीम बरेलवी जी को सलाम ...
मज़हब की ज़िन्दगी के लिए खून की तलब,
हम खून से नहाके इबादत करेंगे क्या.
वाह ...सर्वत जी दाद कबूल करें ....):
चाहतों की ज़रा सी दस्तक पर दिल का राज़ खोल सकता है,
इश्क ऐसी ज़बान है प्यारे जिसको गूंगा भी बोल सकता है “
क्या बात है ...कैसर साहब जी सुभानाल्लाह ...!
इस मुशायरे का माशाल्लाह जिस ढंग से आपने वर्णन किया है ....हमें तो अपने भाग्य पर रंज होने लगा ..
और आपके भाग्य से हसद ...):
आपको इन नामचीन शायरों के मुशायरे में शिरकत की बधाई ....
और हमें जो ये सुखद एहसास दिया उसके लिए भी ..शुक्रिया ...आभार ....
बहुत सुंदर तरीके से वर्णन किया है आपने ऐसा लग रहा है कि हम भी इसमें भाग लेकर आयें हों .....आपका आभार
मुशायरे का इतना सजीव चित्रण मैंने नहीं देखा. ऐसा लगता है जैसे की मैं मुशायरे मैं ही बैठा हुआ हूँ. जब चित्रण ही इतना गज़ब का है तो मुशायरा कितना गज़ब का हुआ होगा इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. काश मैं भी आपके साथ उस मुशायरे शामिल हुआ होता. बहरहाल आपको बहुत बहुत बधाई.
बहुत खूबसूरत वर्णन..लगा कि मुशायरे में शरीक हो गए हैं..बहुत सुन्दर
आभार आपका ! जीवन्त हो गया यह मुशायरा आपके शब्द पाकर भाई जी !हार्दिक शुभकामनायें !!
जनाब पवन सिंह साहब
आदाब
मुझे ये शरफ हासिल है कि इस मुशायरे में मैंने भी शिरकत की थी और आपसे मेरी मुलाक़ात भी हुई थी सर्वत साहब मंसूर उस्मानी साहब और अकील नोमानी साहब के ज़रिये [ आपने मैनपुरी के मुशायरे को तारिख के सफों में दर्ज करा दिया है मैनपुरी के मुशायरे मैं पहले भी सुनता रहा हूँ लेकिन जो शायरी इस मुशायरे में सुनने को मिली उसके लिए आप काबिले सिताइश हैं [
आपने जिस तरह महमान नवाजी की वो मेरे दिल पैर एक गहरी छाप छोड़ गयी है आपकी वजह से मेरा मैनपुरी से फिरोजाबाद का सफ़र यादगार बन गया आप ने मुझे इशरत आफरीन साहिबा और परवेज़ जाफरी साहब के साथ २ घंटे तक साथ रहने का मौक़ा फराहम कराया उसके लिए मैं आपका कर्ज़दार हो गया क्यूंकि आपने जो गाडी भेजी उसमें मेरे साथ इशरत आफरीन साहिबा और उनके शोहर परवेज़ जाफरी साहब भी थे [
जब भी आपको फुर्सत मिले तो मेरे ब्लॉग पर ज़रूर तशरीफ़ लाइए क्यूंकि मैंने भी मैनपुरी के मुशायरे का सजीव चित्रण करने की कोशिश की है उम्मीद है की आपको मेरा ये प्रयास पसंद आएगा....... मेरा ब्लॉग है www.hadijaved2006.blogspot.com
खुदा से दुआ करता हूँ की आप मैनपुरी के मुशायरे को परवान चदते रहें आमीन
जनाब पवन सिंह साहब
आदाब
मुझे ये शरफ हासिल है कि इस मुशायरे में मैंने भी शिरकत की थी और आपसे मेरी मुलाक़ात भी हुई थी सर्वत साहब मंसूर उस्मानी साहब और अकील नोमानी साहब के ज़रिये [ आपने मैनपुरी के मुशायरे को तारिख के सफों में दर्ज करा दिया है मैनपुरी के मुशायरे मैं पहले भी सुनता रहा हूँ लेकिन जो शायरी इस मुशायरे में सुनने को मिली उसके लिए आप काबिले सिताइश हैं [
आपने जिस तरह महमान नवाजी की वो मेरे दिल पैर एक गहरी छाप छोड़ गयी है आपकी वजह से मेरा मैनपुरी से फिरोजाबाद का सफ़र यादगार बन गया आप ने मुझे इशरत आफरीन साहिबा और परवेज़ जाफरी साहब के साथ २ घंटे तक साथ रहने का मौक़ा फराहम कराया उसके लिए मैं आपका कर्ज़दार हो गया क्यूंकि आपने जो गाडी भेजी उसमें मेरे साथ इशरत आफरीन साहिबा और उनके शोहर परवेज़ जाफरी साहब भी थे [
जब भी आपको फुर्सत मिले तो मेरे ब्लॉग पर ज़रूर तशरीफ़ लाइए क्यूंकि मैंने भी मैनपुरी के मुशायरे का सजीव चित्रण करने की कोशिश की है उम्मीद है की आपको मेरा ये प्रयास पसंद आएगा....... मेरा ब्लॉग है www.hadijaved2006.blogspot.com
खुदा से दुआ करता हूँ की आप मैनपुरी के मुशायरे को परवान चदते रहें आमीन
अति उत्तम ,अति सुन्दर और ज्ञान वर्धक है आपका ब्लाग
बस कमी यही रह गई की आप का ब्लॉग पे मैं पहले क्यों नहीं आया अपने बहुत सार्धक पोस्ट की है इस के लिए अप्प धन्यवाद् के अधिकारी है
और ह़ा आपसे अनुरोध है की कभी हमारे जेसे ब्लागेर को भी अपने मतों और अपने विचारो से अवगत करवाए और आप मेरे ब्लाग के लिए अपना कीमती वक़त निकले
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
वर्णन जीवंत है... लगा हम भी सुन रहे
सिँह साहब जी,
जिस प्रकार श्री देवकीनन्दन खत्री जी की लेखनी के तिलिस्म में डूबकर पाठक भी उन्हीं अंधी गुफाओं में पहुँच जाता है या जसदेव सिँह जी की कामेन्ट्री सुनते हुए श्रोता भी अपने हाथों में हॉकी उठा लेता था.....कुछ वैसा ही लगा आपका रिपोताज पढ़ते हुये।
मुशायरे के जीवन्त वर्णन ने मैनपुरी की सैर करा दी... बस कलामों को पढ़ते रहने का जी चाहता है।
यह मुशायरे यूँ ही रौनक रहे और आपकी बकलम रिपोर्ट पढ़ने को मिले....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
एक सुन्दर मुशायरा और उसमे शामिल बेहतरीन शायरों के बारे में आपने जो जानकारी दी है वो कबीले तारीफ़ है ... कई लाजवाब पंक्ति पढवाने के लिए शुक्रिया !
आनंद आ गया पढ़कर। एक तो दिल में बिठा लिया है...
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का,
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है.
...आभार।
कमाल है पूरे मुशायरे का आनंद एक पोस्ट से ! ...आभार आपका !
पवन भाई, एक अरसे की ख़ामोशी के बाद आपको पढ़ने का मौका मिला. वाकई, मैनपुरी के इस मुशायरे का आपने जो वर्णन किया है,उससे मुशायरे मे न होते हुए भी उस माहौल का आनंद आ गया. इस पोस्ट के लिए ढेर सारी बधाई.
इनदिनों मुशायरे वैसा जज्बा सिरहन पैदा नहीं करते....जैसा हम कभी कभार अपने बचपान में महसूस किया करते थे .खास तौर में सर्दियों में जब ख़त्म होता था तब आपको लगता था .जल्दी ख़त्म हो गया .....
अच्छा लगा पढ़कर...
आपकी पोस्ट पढ़ कर ही मुशायरे का पूरा आन्नंद उठा रही हूँ. लाजवाब लेखन. मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका आभार
आपने तो मुझे जैसे मैनपुरी के मुशायरे में बैठा दिया। सब कानों से सुन गया, आपकी प्रस्तावक-शैली भी बढ़िया है जो।
वसीम बरेलवी की गजलें अच्छा लगती हैं-‘शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ/ कीजिये मुझे कुबूल मेरी हर खुशी के साथ’! उर भी कई अशआर हैं जो मन मोहते हैं! सहज ही!
आनंद आया पढ़कर! आभार !!
विनम्र सुधार --
@ कीजिये मुझे कुबूल मेरी हर खुशी के साथ’!
मेरी हर “कमी” के साथ !!
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