अक्तूबर 18, 2011

नर्म अहसासों के साथ क्रान्ति की आवाज-‘मजाज़’


उर्दू साहित्य के ’कीट्स’ कहे जाने वाले असरार उल हक ’मजाज़’ की यह जन्मशती का वर्ष है। जन्मदिन की सौंवी सालगिरह पर इस महान उर्दू शायर को याद करते हुये यह कहना होगा कि महज 44 साल की छोटी सी उम्र में इस जहाँ से कूच करने से पहले वे अपनी उम्र से बड़ी रचनाओं की सौगात उर्दू अदब़ को दे गए। मजाज़ को इसलिये उर्दू शायरी का ‘कीट्स’ कहा जाता है, क्योंकि उनके पास अहसास-ए-इश्क व्यक्त करने का बेहतरीन लहजा़ था। मजाज़ को तरक्की पसन्द तहरीक और इन्कलाबी शायर का भी खिताब दिया जाता है। फैज अहमद फैज ने बहुत पहले कहा था कि वे क्रान्ति के ढिढो़रची की बजाय ‘क्रांति के गायक’ हैं।

मजाज़ का जन्म 19 अक्तूबर,1911 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के रूदौली गांव में हुआ था। उनके वालिद का नाम चौधरी सिराज उल हक था। चौधरी सिराज उल हक अपने इलाके में पहले आदमी थे, जिन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की थी। वे रजिस्ट्री विभाग में सरकारी मुलाजिम थे। वालिद चाहते थे कि उनका बेटा इन्जीनियर बने। इस हसरत से उन्होंने अपने बेटे असरार का दाखिला आगरा के सेण्ट जांस कालेज में इण्टर साइन्स में कराया। यह बात कोई 1929 की है। मगर असरार की लकीरों में तो शायद कुछ और ही लिखा था। आगरा में उन्हें फानी , जज्बी, मैकश अकबराबादी जैसे लोगों की सोहबत मिली। इस सोहबत का असर यह हुआ कि उनका रूझान बजाय इन्जीनियर बनने के गज़ल लिखने की तरफ हो गया। ‘असरार’ नाम के साथ ‘शहीद’ तख़ल्लुस जुड गया। कहा जाता है कि मजाज़ की शुरूआती ग़ज़लों को फानी ने इस्लाह किया। यह अलग बात है कि मजाज़ ने उनसे इस्लाह तो कराया ,परन्तु उनकी ग़ज़लों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पडने दिया। यहाँ उन्होने गज़लगोई की बारीकियों और अरूज़ (व्याकरण) को सीखा । इस दौरान उनमें दार्शनिकता का पुट भी आया , जिसका उनमें अभाव था। बाद में मजाज़ लगातार निखरते गए।

आगरा के बाद वे 1931 में बी.ए. करने अलीगढ़ चले गए...... अलीगढ़ का यह दौर उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ। इस शहर में उनका राब्ता मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी , सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुआ ,इनकी सोहबत ने मजाज़ के कलाम को और भी कशिश और वुसअत बख्शी । यहां उन्होंने अपना तखल्लुस ‘मजाज़’ अपनाया। इसके बाद मजाज़ गज़ल की दुनिया में बड़ा सितारा बनकर उभरे और उर्दू अदब के फलक पर छा गये। अलीगढ़ में मजाज़ की आत्मा बसती थी। कहा जाता है कि मजाज़ और अलीगढ़ दोनों एक दूसरे के पूरक थे....... एक दूसरे के लिए बने थे। अपने स्कूली जीवन में ही मजाज़ अपनी शायरी और अपने व्यक्तित्व को लेकर इतने मकबूल हो गए थे कि हॉस्टल की लड़कियां मजाज़ के गीत गाया करती थीं और उनके साथ अपने सपने बुना करती थीं। अलीगढ़ की नुमाईश , यूनीवर्सिटी, वहां की रंगीनियों आदि को लेकर मजाज़ ने काफी लिखा-पढ़ा। मजाज़ की शायरी के दो रंग है-पहले रंग में वे इश्किया गज़लकार नजर आते हैं वहीं दूसरा रंग उनके इन्कलाब़ी शायर होने का मुज़ाहिरा करता है। अलीगढ़ में ही उनके कृतित्व को एक नया विस्तार मिला। वे प्रगतिशील लेखक समुदाय से जुड़ गये। ‘मजदूरों का गीत’ हो या ‘इंकलाब जिंदाबाद’ , मजाज ने अपनी बात बहुत प्रभावशाली तरीके से कही।

अलीगढ़ का दौर उनकी जिन्दगी को नया मोड़ देने वाला रहा। आगरा में जहां वे इश्किया शायरी तक सीमित थे, अलीगढ़ में उस शायरी को नया आयाम मिला। आगरा से अलीगढ़ तक आते आते शबाब , इन्कलाब में तब्दील हो गया। 1930-40 का अन्तराल देश दुनिया में बड़ी तब्दीलियों का दौर था। राष्ट्रीय आंदोलन में प्रगतिशीलता का मोड़ आ चुका था। साहित्यकारों की बड़ी फौज़ इन्कलाब के गीत गा रही थीं। अलीगढ़ इससे अछूता कैसे रह सकता था। अलीगढ़ में भी इन विचारों का दौर आ चुका था। तरक्कीपसंद कहे जाने वाले तमाम कवि-लेखकों का अलीगढ़ आना-जाना हो रहा था। डा0 अशरफ यूरोप से लौट आए थे, अख्तर हुसैन रामपुरी बी0ए0 करने बाद आफ़ताब हॉस्टल में रह रहे थे । सब्त हसन भी अलीगढ़ में ही थे। सज्जाद जहीर ऑक्सफोर्ड में बहुत दिनों तक रहने के बाद अलीगढ़ आ गये थे। अंगे्रजी हुकूमत के दौरान कई तरक्कीपसन्द कही जाने वाली पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होकर ’जब्त ’ हो रही थीं, जाहिर है कि इन घटनाओं का असर मजाज़ और उनकी शायरी पर पडना लाजिमी थी । डा0 अशरफ , अख्तर रायपुरी, सबत हसन, सरदार जाफरी, जज्बी और ऐसे दूसरे समाजवादी साथियों की सोहबत में मजाज भी तरक्की पसंद तथा इंकलाबी शायरों की सोहबत में शामिल हो गये । ऐसे माहौल में मजाज ने ’इंकलाब’ जैसी नज्म बुनी । इसके बाद उन्होने रात और रेल ,नजर, अलीगढ, नजर खालिदा ,अंधेरी रात का मुसाफिर ,सरमायादारी,जैसे रचनाएं उर्दू अदबी दुनिया को दीं। मजाज़ अब बहुत मकबूल हो चुके थे।

1935 में वे आल इण्डिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर मजाज़ दिल्ली आ गये। दिल्ली में नाकाम इश्क ने उन्हें ऐसे दर्द दिये कि जो मजाज़ को ताउम्र सालते रहे। यह पत्रिका बमुश्किल एक साल ही चल सकी, सो वे वापस लखनऊ आ गए। इश्क में नाकामी से मजाज़ ने शराब पीना शुरू कर दिया। शराब की लत इस कदर बढ़ी कि लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। दिल्ली से विदा होते वक्त उन्होंने कहा-
रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं
नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं

लखनऊ में 1939 में सिब्ते हसन ,सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर ’नया अदब’ का सम्पादन किया जो आर्थिक कठिनाईयों की वजह से ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। कुछ दिनों बाद में वे फिर दिल्ली आ गये और यहां उन्होंने ‘हार्डिंग लाइब्रेरी’ में असिस्टेन्ट लाइब्रेरियन के पद पर काम किया, लेकिन दिल्ली उन्हें रास न आई। दिल्ली से निराश होकर मजाज़ बंबई चले गए,लेकिन उन्हें बंबई भी रास न आया। बंबई की सडकों पर आवारामिजाजी करते हुये मजाज़ ने अपने दिल की बात अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय नज्म ‘आवारा’ के मार्फत कुछ यूं कही-
शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूं
जगमगाती,जागती सडकों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है,कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल,क्या करूं।

बम्बई से कुछ समय बाद मजाज लखनऊ वापस आ गये। लखनऊ उन्हें बेहद पसन्द था। लखनऊ के बारे में उनकी यह नज्म उनके लगाव को खूबसूरती से प्रकट करती है।

फिरदौसे हुस्नो इश्क है दामाने लखनऊ
आंखों में बस रहे हैं गजालाने लखनऊ
एक जौबहारे नाज को ताके है फिर निगाह
वह नौबहारे नाज कि है जाने लखनऊ।

लखनऊ आकर वे बहुत ज्यादा शराब पीने लगे, जिससे उनकी हालात लगातार खराब होती गई। उनकी पीड़ा ,दर्द घुटन अकेलापन ऐसा था कि वे ज्यादातर खामोश रहते थे। शराब की लत उन्हें लग चुकी थी,जो उनके लिये जानलेवा साबित हुयी। 1940 से पहले नर्वस ब्रेकडाउन से लेकर 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन तक आते आते वे शारीरिक रूप से काफी अक्षम हो चुके थे। 1952 के तीसरे ब्रेकडाउन के बाद वे जैसे-तैसे स्वस्थ हो ही रहे थे कि उनकी बहन साफिया का देहान्त हो गया यह सदमा उन्हें काफी भारी पडा़। 5 दिसम्बर 1955 को मजाज ने आखिरी सांस ली। महज 44 साल का यह कवि अपनी उम्र को चुनौती देते हुए बहुत बडी रचनाएं कह के दुनिया से विदा हुआ।

आहंग,बोल धरती बोल, नजरे-दिल, ख्वाबे-सहर, वतन आशोब, आदि उनकी यादगार नज़्में हैं। मजाज की कविता में भावनाओं की बाढ़ है, इंसानी जज्बातों का हर रंग उसमें शामिल है चाहे वह दर्द हो या ख़ुशी , जुनूँ हो या इश्क । प्रगतिशीलता का जामा पहनकर उन्होंने कविता का नया दयार बख्शा ।

फैज उन्हें ‘क्रान्ति के गायक’ का खिताब देते हैं। इस महान शायर की जन्म शताब्दी पर स्मरण करना ’अदब’ के लिए जुरूरी है। उर्दू साहित्य के कीट्स माने जाने वाले मजाज़ को अदबी दुनिया का सलाम, जब तक उर्दू साहित्य रहेगा , मजाज़ उसी इज्ज़त -मोहब्बत के साथ गुनगुनाये जाते रहेंगे। 1945 में उनकी लिखी नज्म़ ‘बोल! अरी ओ धरती बोल’ की अभिव्यक्ति कितनी सार्वकालिक सत्य थी इसका नमूना देखिए-

बोल !अरी ओ धरती बोल
राज सिंहासन डावांडोल !
बादल बिजली रैन अंधियारी
दुख की मारी परजा सारी
बूढे़ बच्चे सब दुखिया हैं
दुखिया नर हैं दुखिया नारी
बस्ती बस्ती लूट मची है
सब बनिए हैं सब व्यापारी
बोल ! ओ धरती बोल
राज सिंहासन डावांडोल !

इस महान शायर को उनकी जन्मशती पर शत शत नमन !

30 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

kitni tareef ki jaye......ghazab....SHAAAAANDAAAARRRR....

Pushpendra Singh "Pushp" ने कहा…

सुन्दर पोस्ट भैया
पढ़ कर जानकारी के साथ मजा भी आया
पूरा जीवन गढ़ दिया "मजाज़"साहब का
बस दिल कह रहा है
"मान गए उस्तादों के उस्ताद .........
प्रणाम स्वीकारें

नीरज गोस्वामी ने कहा…

संग्रहनीय पोस्ट...मजाज़ साहब के परिचय के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया.

Rohit "meet" ने कहा…

bahut sii jankarii mili majaz saheb k bare mai bas kya likhe aaj alfaz sath nahi de rahe ...bahut badhai

अशोक कुमार शुक्ला ने कहा…

दिल्ली में नाकाम इश्क ने उन्हें ऐसे दर्द दिये कि जो मजाज़ को ताउम्र सालते रहे। यह पत्रिका बमुश्किल एक साल ही चल सकी, सो वे वापस लखनऊ आ गए।
लखनऊ उन्हें बेहद पसन्द था।
मजाज साहब को लखनऊ वालों का सलाम
सटीक विष्लेषण आभार

कृपया कभी मेरे ब्लाग पर आकर मुझे भी आर्शिवाद दे ! आभारी रहूँगा !!

kaushal ने कहा…

बेहतरीन ....! मजाज़ साहब पर इतने सारे
नर्म एहसासों को समेटे हुए गर्म एवं ताज़ा -
तरीन इस दिलचस्प पोस्ट के लिए सर जी
आपका अत्यंत आभार !!

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

बेहतरीन पोस्ट है ,,
इतनी तफ़सीली जानकारी मिली और वो भी ’मजाज़’ जैसे शायर की (जो मेरे पसंदीदा शो’अरा में से एक हैं) ,,मज़ा आ गया पढ़कर
आज भी जब अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का तराना पढ़ती हूं या सुनती हूं तो उन के फ़न की क़ायल हो जाती हूं
इस में कोई शक नहीं कि कमाल के शायर थे ’मजाज़’
उन की इंक़लाबी शायरी रग रग में जोश भर देती है

बहुत बहुत शुक्रिया इस पोस्ट के लिये,,आप का लेखन दाद ओ तहसीन का और मुबारकबाद का मुस्तहक़ है

SACHIN SINGH ने कहा…

MAJAJ SAHAAB KO MAINE AAJKAL PATRIKA KE OCTOBER EDITION SE JAANA HAI...
UNKE SHER PAR GAUR FARMAYE

APNE DIL KO DONO AALAM SE UTHA SAKTA HOO MAIN,
KYA SAMAJHATI HO TUMKO BHI BHOOLA SAKTA HOO MAIN,

AAYO MILKAR INQALAAB TAAJATAR PAIDA KARE
DAHAR PAR ISS TARAH AA JAYE KI SAB DEKHA KARE


BAHUT HI SHAANDAR POST.....!!!!!!!
MAJAAJ SAHAAB KO SAADAR NAMAN

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

आप जैसे साहित्य प्रेमी के कारण एक नायाब शायर से उसके १००वे जन्म्दिन पर मुलाकात हो पाई

www.navincchaturvedi.blogspot.com ने कहा…

मज़ाज साहब की याद दिलाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

शिवम् मिश्रा ने कहा…

इस पोस्ट के लिए तहे दिल से आपका बहुत बहुत आभार ... और हाँ 'हिन्दुस्तान' के संपादकीय पेज पर जगह बनाने के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

Abhishek Ojha ने कहा…

छिट फूट शेर पढ़े हैं इनके कभीइधर से कभी उधर से. ! बहुत बढिया... कभी पढ़ना होगा इन्हें भी.

Salim Raza ने कहा…

bahut hi umda likha hai apne

Salim Raza ने कहा…

kin alfazon main main apke is prayaas ki tareef karun shayed mere paas alfaaz nhi honge kyunki.. in jaisee hastiyon ke jaane ke baad unko zinda rakhna ye har ek inasan ke bas ki baat nhi hai,,aap jaise qadar daano ki vajaha se ye log aaj bhi amar hain yaqeenan inko zinda rakhna ye sab ki zimmedari hai,..hame nayi peerhi ko bhi inke bare me batana hoga,,,,pawan sb zindabad ,,,god bless

Salim Raza ने कहा…

kin alfazon main main apke is prayaas ki tareef karun shayed mere paas alfaaz nhi honge kyunki.. in jaisee hastiyon ke jaane ke baad unko zinda rakhna ye har ek inasan ke bas ki baat nhi hai,,aap jaise qadar daano ki vajaha se ye log aaj bhi amar hain yaqeenan inko zinda rakhna ye sab ki zimmedari hai,..hame nayi peerhi ko bhi inke bare me batana hoga,,,,pawan sb zindabad ,,,god bless

brajesh FAS98 ने कहा…

बहुत अच्छा लेख है जितनी तारीफ की कम हो धन्यवाद सर

brajesh FAS98 ने कहा…

बहुत अच्छा लेख है जितनी तारीफ की जाय कम होगी !वास्तव में आपका धन्यवाद कहने के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं | धन्यवाद सर !

वाणी गीत ने कहा…

मज़ाज साहब के जीवन परिचय की संग्रहणीय जानकारी !

Arunesh c dave ने कहा…

शानदार शख्सियत का बेहतरीन परिचय दिया है है आपने। जिस कौम के शायर और साहित्याकारों को गर्दिश मे गुजारा करना पड़े उस कौम का हाल क्या होता है यह हिंदूस्तान आकर समझा जा सकता है।

virendra sharma ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति .मजाज़ साहब के बारे में विस्तार से जाना .शुक्रिया .

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मजाज़ साहब के कई शेर पढ़े अहिं किताबों में और हर बार सीखा ही है की कैसे कहे जाते अहिं शेर ...
उनके जीवन को जानना खुशकिस्मती है मेरी ... शुक्रिया ...

avinash ने कहा…

achcha likha hai..maine majaz saab par doordarshan ke liye film banayi hai jo DD 1 par 2 baar air hui hai....

Avinash Tripathi

avinash ने कहा…

achcha likha hai..maine majaz saab par doordarshan ke liye film banayi hai jo DD 1 par do baar air hui hai..

avinash Tripathi

rafat ने कहा…

bahut acchi prstuti.
zindgi saaz de rhai hai mujhe
shahr o ejaaz de rhai hai mujhe
aur bahut door aasmaano se
mot aawaaz de rhai hai mujhe---majaz

Urmi ने कहा…

मजाज़ साहब से परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! शानदार प्रस्तुती!

"अर्श" ने कहा…

शानदार तरीके से आपने मजाज़ साब के बारे में बातें की है... बहुत बढिया


अर्श

Rakesh Kumar ने कहा…

'असार उल हक मजाज'जी के बारे में बहुत सुन्दर जानकारी मिली आपकी इस पोस्ट से.

बहुत बहुत आभार.

मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.

'नाम जप' के बारे में अपने
अमूल्य विचार और अनुभव प्रस्तुत
करके अनुग्रहित कीजियेगा.

संगीता पुरी ने कहा…

मजाज़ साहब का विस्‍तृत परिचय अच्‍छा लगा .. बहुत सुंदर प्रसतुति !!

Urmi ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार के सभी सदस्य को दिवाली की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

मजाज़ साहब के बारे में इतनी तफ़सील से जानकारी देने के लिए शुक्रिया सिंह साहब...बधाई.