बीते सप्ताह अनायास और अनियोजित तरीके से देश के महान शाइर पद्म श्री बेकल उत्साही से मुलाकात हुई। दरअसल हुआ यूं कि एक शाम मेरे स्थानीय शाइर दोस्त जनाब कलीम कैसर ने मोबाईल पर सूचित किया कि बेकल उत्साही साहब गोरखपुर में आज किसी काम से आये हुये हैं, कल सुबह वापस बलरामपुर (उत्साही साहब यहीं के रहने वाले है।) चले जायेंगे। मैंने जनाब कलीम कैसर से अपनी इच्छा प्रकट की कि उत्साही साहब से मुलाकात किस तरह सम्भव है ? उनका जबाब आया कि यदि शाम को आप घर पर रहें तो उत्साही साहब को लेकर हम लोग आपके घर पर ही आ जाते हैं। इससे अच्छा प्रस्ताव भला मेरे लिए और क्या हो सकता था। मैंने तुरन्त हामी भर दी। वादे के मुताबिक जनाब कलीम कैसर शाम 7 :00 बजे अपने मित्र डॉ0 अजीज के साथ ‘बेकल उत्साही’ साहब के साथ मेरे घर तशरीफ ले आये। मैंने इसी बीच अपने मित्र और अग्रज बी0आर0 विप्लवी साहब को भी आमंत्रित कर लिया था, सो वे भी समय पर हाजिर हो गये। महफिल जम गई।
उल्लेखनीय बात यह थी कि इधर कुछ दिनों से पंकज सुबीर, अर्श तथा वीनस केशरी जी के ब्लाग पर सीहोर कवि सम्मेलन और बेकल उत्साही साहब के बारे लेकर लगातार लिखा पढ़ा गया था। बेकल साहब से मुलाकात के वक्त यह भी जेहन में बनी रही........ !
बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ......शुरुआत हुई उनके जीवन परिचय से, वे स्वयं बताने लगे कि 1928 में गोण्डा जनपद के रमवांपुर गाँव में उनका जन्म हुआ और उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन......घर पर शाइरों का आना जाना रहता था........उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी ......पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं .................आरम्भ गीतों से ही हुआ...........बाद में वे बेकल उत्साही के नाम से लोकप्रिय हुये। बहरहाल आज देश का कोई भी मंच हो, चाहे वहाँ पर कवि सम्मेलन हो अथवा मुशायरा उत्साही साहब की उपस्थिति पूरे जोशो खरोस के साथ वहां रहती है। 1976 में बेकल उत्साही साहब को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया और 1986-92 तक वे राज्य सभा में सांसद मनोनीत हुए। उन्होंने न केवल गज़लें लिखीं बल्कि हिन्दी गीत और दोहे लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण दिया। उन्होंने भाषा और विधा को भावनाओं के आदान-प्रदान में बाधक नहीं बनने दिया और शायद यही स्थिति किसी भी साहित्यकार को उसके कालजयी होने के लिए धरातल प्रदान करती है। उनके गीत जन भाषा में हैं। खड़ी बोली में लिखे गये ये गीत उर्दू और हिन्दी के बीच एक सन्धि स्थल का निर्माण करते हैं। यदि वे यह कहते है ‘मेरे सामने गज़ल है, मैं गीत लिख रहा हूँ’ तो वे अपनी भावनायें ही प्रकट कर रहे होते हैं। उनका यह कहन बरबस ही दिल में बैठ जाता है कि-नज़्म के अंदाज़ में हुस्ने-गज़ल का बांकपनमिल गई हिन्दी के रस को फ़ारसी की चाशनी दोस्त मेरे गीत का लहजा नई काविष के साथमीर के अहसास में है फ़िक्र तुलसी दास की।बेकल उत्साही साहब की खूबसूरती यह है कि उनकी जितनी पकड़ उनकी ‘अरूज’ पर है, उससे ज़्यादा पकड़ ‘पिंगल शास्त्र पर है। इसलिए जिस अधिकार से वे गज़ल कहते हैं, उतने ही अधिकार से वे दोहे-गीत भी कहते हैं। उनके काव्य में धर्म, दर्शन , भक्ति, सामाजिक मूल्यों के दर्षन होते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि गज़ल का आरम्भ कबीर और तुलसी करते हैं, तो उसे सिद्ध करने के लिए उनके पास अकाट्य प्रमाण भी है। वे कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में जितने शब्दों का प्रयोग किया है, उतना तो दुनिया के किसी भी साहित्यकार ने नहीं किया। कबीर के दर्षन को वे अद्भुत मानते हैं। बहरहाल उनके चन्द दोहे पेश करने का जी चाह रहा है मुलाहिजा फरमाएं -
उल्लेखनीय बात यह थी कि इधर कुछ दिनों से पंकज सुबीर, अर्श तथा वीनस केशरी जी के ब्लाग पर सीहोर कवि सम्मेलन और बेकल उत्साही साहब के बारे लेकर लगातार लिखा पढ़ा गया था। बेकल साहब से मुलाकात के वक्त यह भी जेहन में बनी रही........ !
बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ......शुरुआत हुई उनके जीवन परिचय से, वे स्वयं बताने लगे कि 1928 में गोण्डा जनपद के रमवांपुर गाँव में उनका जन्म हुआ और उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन......घर पर शाइरों का आना जाना रहता था........उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी ......पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं .................आरम्भ गीतों से ही हुआ...........बाद में वे बेकल उत्साही के नाम से लोकप्रिय हुये। बहरहाल आज देश का कोई भी मंच हो, चाहे वहाँ पर कवि सम्मेलन हो अथवा मुशायरा उत्साही साहब की उपस्थिति पूरे जोशो खरोस के साथ वहां रहती है। 1976 में बेकल उत्साही साहब को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया और 1986-92 तक वे राज्य सभा में सांसद मनोनीत हुए। उन्होंने न केवल गज़लें लिखीं बल्कि हिन्दी गीत और दोहे लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण दिया। उन्होंने भाषा और विधा को भावनाओं के आदान-प्रदान में बाधक नहीं बनने दिया और शायद यही स्थिति किसी भी साहित्यकार को उसके कालजयी होने के लिए धरातल प्रदान करती है। उनके गीत जन भाषा में हैं। खड़ी बोली में लिखे गये ये गीत उर्दू और हिन्दी के बीच एक सन्धि स्थल का निर्माण करते हैं। यदि वे यह कहते है ‘मेरे सामने गज़ल है, मैं गीत लिख रहा हूँ’ तो वे अपनी भावनायें ही प्रकट कर रहे होते हैं। उनका यह कहन बरबस ही दिल में बैठ जाता है कि-नज़्म के अंदाज़ में हुस्ने-गज़ल का बांकपनमिल गई हिन्दी के रस को फ़ारसी की चाशनी दोस्त मेरे गीत का लहजा नई काविष के साथमीर के अहसास में है फ़िक्र तुलसी दास की।बेकल उत्साही साहब की खूबसूरती यह है कि उनकी जितनी पकड़ उनकी ‘अरूज’ पर है, उससे ज़्यादा पकड़ ‘पिंगल शास्त्र पर है। इसलिए जिस अधिकार से वे गज़ल कहते हैं, उतने ही अधिकार से वे दोहे-गीत भी कहते हैं। उनके काव्य में धर्म, दर्शन , भक्ति, सामाजिक मूल्यों के दर्षन होते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि गज़ल का आरम्भ कबीर और तुलसी करते हैं, तो उसे सिद्ध करने के लिए उनके पास अकाट्य प्रमाण भी है। वे कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में जितने शब्दों का प्रयोग किया है, उतना तो दुनिया के किसी भी साहित्यकार ने नहीं किया। कबीर के दर्षन को वे अद्भुत मानते हैं। बहरहाल उनके चन्द दोहे पेश करने का जी चाह रहा है मुलाहिजा फरमाएं -
मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम।
सांस उसके सीता बसे, रोम-रोम में राम।।
मैं खुसरों का वंश हूँ, हूँ अवधी का सन्त।
हिन्दी मिरी बहार है, उर्दू मिरी बसन्त।।
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात जब, आया मौसम सर्द।।
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।
‘बेकल’ साहब उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-
‘बेकल’ साहब उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-
गोरी तेरे गाँव में।
पीपल बरगद टहल रहे हैं।
मौसम बाँधे पाँव में।।
और
छत पर बैठी देर से
गोरी चोटी गूँथ रही है
गेंदा और कनेर से
वे कृष्ण को बहुत प्यार करते हैं, कहते हैं, कि कृष्ण बहुत नटखट हैं और वे सबको छेड़ते रहते हैं। एक रचनाकार के रूप में मैंने भी उनसे बहुत छेड़-छाड़ की है। उसी छेड़-छाड़ का एक नमूना यह है-
ऐसा दर्पन मुझे कन्हाई दे।
जिसमें मेरी कमी दिखाई दे।।
गति मिरी साँसों की ठहर जाए।
जब तिरी बाँसुरी सुनाई दे।।
श्याम मैं दूर रहके हूँ बीमार।
पास आकर मुझे दवाई दे।।
वस्त्र वापस दे साधनाओं के।
आस्था को न जग हँसाई दे।।
दे कलम अपनी बाँसुरी जैसी।
अपनी रंगत की रोशनाई दे।।
तूने माखन चुराये हैं छलिये।
दिल चुराने की मत सफ़ाई दे।।
दोस्ती का उधार है तुझ पर।
हक़ सुदामा का पाई-पाई दे।।
और अन्त में भारतीय परम्परा के इस महान वाहक कवि गज़लकार बेकल उत्साही की एक गज़ल पेशे खिदमत है जो भारतीय आम आदमी की स्थिति-परिस्थिति को किस खूबसूरती के साथ बयान करती है-
अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम,
शहर जाकर मकान बोते हैं।।
धूप ही धूप जिनकी खेती थी,
अब वही सायाबान बोते हैं।।
कोंपलें दुश्मनी की सब्ज़ हुई,
दोस्ती मेह्रबान बोते हैं।।
तीर तरकाश से जब नहीं उगते,
लोग ज़द पर कमान बोते हैं।।
अब उजालों की चोटियों पे न जा,
तेरे साये ढलान बोते हैं।।
लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़,
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं।।
फ़स्ल तहसील काट लेते हैं,
हम मुसलसल लगान बोते हैं।।
रूत के आँसू ज़मीन पर बेकल।
इन दिनों आसमान बोते हैं।।
और...........
ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!
अजब है आजकल की दोस्ती भीए दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!
तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!
44 टिप्पणियां:
बेहतरीन शाइर से परिचय अच्छा लगा। मैंने पहले उन्हें नहीं पढ़ा था सो आपका आभार।
parichay achchha laga
dhnyvad
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
काश कभी मेरी भी उनसे मिलने के तमन्ना पूरी हो.. आपको बहुत-बहुत बधाई.. कभी बात हो मेरी तरफ से भी प्रणाम कहियेगा..
भैया
बेहद वेहद खुबसूरत मुलाकात
बेकल साहब के बारे में जानकर अच्छा लगा
उनकी रचनाएँ भी पढ़ीं बहुत ही उम्दा लिखा है
एसे महान दुनियां में कम पैदा होते है |
आप को व् वेकल साहब को मेरा
प्रणाम...........................!
किस अंश की तारीफ़ करून सम्पूर्ण पोस्ट ही लाजवाब है. आदरणीय बेकल उत्साही जी को पढ़कर आनंद आया.
भैया बहुत खूब....जनाब बेकल साहब को हमरा सलाम.मजा आ गया.शानदार पोस्ट.
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात जब, आया मौसम सर्द।।
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।
वाकई, बेहद ख़ूबसूरत और भावपूर्ण दोहे !
बेकल उत्साही--- एक परम्परा, एक समूचा युग, वो शायर जिसकी रचनाओं ने पूरे देश क्या, विश्व के उन तमाम क्षेत्रों में, जहां हिंदी/उर्दू बोलने-समझने वाले कुछ लोग भी हैं, न सिर्फ वहां अपनी छाप छोड़ी बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुमनामी से शोहरत की बुलंदियों तक पहुँचाया. अदब, सिर्फ अदब की खिदमत ने ही उन्हें पद्मश्री के सम्मान से नवाज़ा.
मेरी नजर में बेकल साहब का सबसे उल्लेखनीय कार्य यह है कि उन्होंने हिंदी गीत शैली को उर्दू में न सिर्फ स्थापित किया बल्कि उसे हमेशा के लिए, आने वाली नस्लों को तोहफे में दे दिया.
मुझ नाचीज़ को बेकल साहब के साथ २-४ मंचों पर साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त है.
* सिंह साहब, आप दूसरों के लिए जो कर रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. आज की दुनिया में २ पंक्तियाँ लिख कर लोग खुद को निराला, ग़ालिब. शेक्सपियर और जाने क्या क्या समझने लगते हैं. उसी दुनिया में रहते हुए आप खुद को पर्दे में रखते हुए, दूसरों को हाईलाइट कर रहे हैं, किस जमाने के इंसान हैं आप!
बहुत ही अच्छा काम किया आपने. बेकल साहब की प्रशंसा के लिये शब्द नहीं हैं मेरे पास.. यही है भारत की सच्ची धर्मनिरपेक्षता... धन्यवाद...
वेहतरीन लेख.
दिलचस्प.पूरी मुलाकात ओर उनके व्यक्तित्व को आपने जिस तरह से समेटा है ......ओर ये दो मुझे बेहद पसंद आये .......
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।
सादर वन्दे !
बहुत खूब |
रत्नेश
बहुत ही अच्छी अनुभूति हो रही है इस परिचय के बाद ।
जब से आपने बताया था हमें आपकी पोस्ट का इंतज़ार था
आगे सर्वत जी की बात को ही दोहराता हूँ कि ...
सिंह साहब, आप दूसरों के लिए जो कर रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं
अब एक नाम और बचा है :)
वो पोस्ट भी जल्दी से पढ़वाईये
बहुत अच्छी मुलाक़ात.... बेकल साहब मेरे नाना लगते हैं.... रिश्ते में.... मुझे भी कहा गया था गोरखपुर आने के लिए... बाकी बात आपसे फोन पर करता हूँ कल....
हुत उम्दा और लाभदायक पोस्ट ,
बेकल साहब को सुनना ख़ुद में एक बहुत ख़ूब्सूरत तजुर्बा है ,
"कब तक हाथ की रेखाओं में ढूंढेगा तक़दीर रे जोगी
क्या जाने कब नागिन बन कर डस ले कोई लकीर रे जोगी"
ये उन्का बहुत पुराना गीत था जिसे बचपन में सुना था और बहुत अच्छा लगा था
आप की बदौलत ये गीत फिर से याद आ गया
धन्यवाद
भैया ,
बेकल जी पूरी भारतीय गंगा-जमुनी तहजीब को अपने में समेटे हुए हैं !
दिमाग में बंद - दिमागी नहीं है , इसलिए शायरी की जमीन सबको
बरबस मोह लेती है ! बहुत कम रचनाकार होते हैं जो अपनी मादरे-जुबान
में लिखते हों , बेकल जी इस लिहाज से विरल साहित्यकार हैं जिन्होंने
अवधी में भी बहुत सारा लिखा है ! आप तो मिल लिए , हमारी प्यास
और बढ़ गयी !
सहज भाषा में बात कहना बेकल जी की विशेषता है ! यही वजह
है कि उनकी कविता जनमन को अपनी और इतना आकृष्ट करती है !
दाइकू तो गजब ही लगे ---
गोरी तेरे गाँव में।
पीपल बरगद टहल रहे हैं।
मौसम बाँधे पाँव में।।
और
छत पर बैठी देर से
गोरी चोटी गूँथ रही है
गेंदा और कनेर से
---- छोटे छोटे बिम्बों को पूरी रसमयता के साथ रखने के लिए शायद कवि ने यह
प्रयोग किया हो पर काव्य सुन्दर ढंग से बना है !
आभार मुलाक़ात और प्रस्तुति दोनों के लिए !
बेकल साहेब से एक दफा मुलाकात है. आज आपके माध्यम से परिचय प्राप्त कर याद भी ताजा हुई और अधिक जाना.
बहुत आभार.
बेकल उत्साही जी सच्चे अर्थों में रचनाकार है ...
संजो कर रखने लायक पोस्ट ...
आपकी किस्मत पर रश्क कर रहे हैं इतनी अज़ीम शख्शियत आपके घर पधारी...बेकल साहब ऐसे इंसान हैं जिनका चेहरा ज़ेहन में आते ही सर उनके सम्मान में झुक जाता है...उन्हें बरसों से कई बार मुशायरों में रूबरू सुना है, उनकी अदायगी और कलाम बेमिसाल हैं...आपने जो बेकल साहब के अशआर पढवाए हैं उनके बारे में क्या कहूँ..निशब्द हूँ...
ये जान कर बहुत ख़ुशी हुई के विप्लवी साहब आपके परिचित हैं...मैंने किताबों की "दुनिया श्रृंखला" उनकी किताब से ही शुरू की थी शायद उनको पता ही ना हो, मेहरबानी होगी यदि आप मेरा नमस्कार उनतक पहुंचा दें तो...
नीरज
आईये जानें .... मैं कौन हूं!
आचार्य जी
जी बेकल उत्साही साहब हिन्दुस्तान के रत्न है... मैं उनके बारे विशेष कुछ नहीं जानता था... आज आपने खूबसरती से मिलवाया और उनके अनमोल रचनाओं का रसास्वादन करवाया...
बहुत बहुत शुक्रिया आपका !!
समकालीन गजलकारों में बेकल जी का एक विशिष्ट स्थान है। उनके साथ हुए अनुभवों को हमारे साथ बांटने का शुक्रिया।
--------
रूपसियों सजना संवरना छोड़ दो?
मंत्रो के द्वारा क्या-क्या चीज़ नहीं पैदा की जा सकती?
I didnt know anything about him,sadly,but now after reading his 'dohes' I feel enlightened.Every line is entwined with wisdom and simplicity!!!!!
" जो करता हूँ तेरी किस्मत पर रश्क तो क्या गुनाह करता हूँ ?? "
सच में भैया, कभी कभी बहुत जलन होती है आप से |
वैसे आप का ब्लॉग हम सब के लिए बेहद जरूरी होता जा रहा है ................जिस तरह आप जा रहे हो पता नहीं किस दिन किस से मुलाकात करवा दो .............अगर ब्लॉग देखा नहीं तो मिलने से वंचित रह जायेगे !
बेकल उत्साही साहब जैसे बेहद आजिम शायर से मिलवाने के लिए तहे दिल से आपका शुक्रिया !
बेकल उत्साही जी की मुलाकात के लिए धन्यवाद. यह जानकर भी अच्छा लगा कि महफूज़ अली इनके नाती लगते हैं , भला लगा पढ़कर.
इतनी अज़ीम शख्सियत से मिलाने का बहुत बहुत शुक्रिया..
एक यादगार मुलाकात रही ये तो...और मुलाकात का विवरण हमारे लिए यादगार हो गया...
पदम श्री बेकल उत्साही का परिचय जान कर बहुत अच्छा लगा ...इनका लिखा हुवा सच मुच लाजवाब है ... सूफ़ियाना अंदाज़ के शाएर .... जैसे रग रग में हिन्दुस्तान की खुश्बू बसी हो ...
Bekal Utsahi ji mere bhi pasandeeda shayar hain.....Behtreen Post...
It seems after a decade this blog must be unique informative/ knowledge base of the greatest shyars ever in the past & present.
Before writing shyari, the way you giving background of the great personility is really enable to individual to visulize the era & potential even who have no knoweldge about the shyars.
wait for next post as usal as ever....
regards/vijay/
बहुत अच्छे sdm साहब,
बेकल साहब से मिलकर आनन्द आ गया।
बेकल उत्साही जी से परिचय अच्छा लगा...और
अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम,शहर जाकर मकान बोते हैं।।
बहुत सटीक बात कही है...सुन्दर अभिव्यक्ति
अंतरजाल और ब्लॉग का यही फायदा है...कि कुछ भी पुराना नहीं होता....
यहाँ तो जब आँख खुली तभी सवेरा समझो वाली बात है...
आपके ब्लॉग पर कुछ दिनों बाद आई हूँ...और जो पढ़ा वो अब सारी उम्र याद रहेगा...
सर्वश्री बेकल उत्साही जी से मिलना..और उनकी रचनाओं से रूबरू होना...रूहानी अहसास है...
और बेकल साहब, महफूज़ मियाँ के नाना भी लगते हैं....फिर तो हम ब्लॉग वासियों का उनसे दोहरा रिश्ता हो गया ..:):)
आपका हृदय से आभार....
MUJHE RASHK HAI AAPKI KISMET PAR...
DEKHIYE MAIN JALAN SE HARA HOTA JAA RAHA HOON!
Nice Post.
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।
गोरी तेरे गाँव में।पीपल बरगद टहल रहे हैं।मौसम बाँधे पाँव में।।
और
अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!
धूप ही धूप जिनकी खेती थी,
अब वही सायाबान बोते हैं।।
किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!
आपके ब्लाग में पहली बार आया हूं।
आपने बहुत अच्छी रचनाओ सं परिचय कराया
बहुत मुतासिर हुआ
बेकल साहब की ये गजल और इ दोहिकू और दोहे दिल में ठहर गए हैं...
राम, कबीर, कृष्ण, उर्दू हिंदी, गजल.... इस मिश्रण पर अब क्या कहा जाय ! कमाल !
New month new article awaited
regards.vijay
keep u reminding to manage time for new post time to time.
regards/viajy
Param sammaniya Bekal Utsahi sahab ko salam. aapko bahut bahut Dhanyavad, aapne mahan kavi ka parichay hum sabhi se karaya. Dhanya hai avadh ki nagri, jisme Bekal sahab ne sahitya ke kchetra me apna bahumulya yogdan diya.
बेकल साहब ka परिचय अच्छा लगा। आपका आभार।
ये बेमिसाल पोस्ट जाने कैसे छूट गयी थी मुझसे। आपसे कितनी जलन हो रही है काश कि आपको बता पाता....
बस टहलने निकला था इस दोपहरी में ब्लॉग पर पाँव जल रहे थे इस तपिश में , हलक सुखा जा रहा था और तभी आपके ब्लॉग पर पहुँच गया इस सुकुनियत के बारे में क्या कहूँ और फिर आपकी ये पोस्ट जनाब उत्साही के बारे में ...
पहली दफा उन्हें सीहोर में उन्हें सुना और जाना , इतने शालीन इंसान से पहली बार मिला था अपने जीवन काल में, तभी सोचा सच में सरस्वती तभी यहीं बसती है , उनकी कवितावों गीतों ग़ज़लों के बारे में सब जानते हैं मगर उनकी अदायगी उफ्फ्फ जिस मुकाम पे जाकर होती है कुछ कह नहीं सकता ! आप धन्य हैं जो आपके घर खुद बेकल साब आयें और वाजिब भी है के लोग आपसे रश्क करेंगे ....
अर्श
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