एक अरसे बाद मैंने दो तीन दिनों पहले अपने ब्लॉग पर अपनी नयी ग़ज़ल पोस्ट की ........मैं जब भी ग़ज़ल लिखता हूँ तो सबसे पहले जिन लोगों को उसे सुना कर प्रतिक्रिया लेता हूँ उनमे अकील नोमानी, मनीष, अंजू, जोनी, सुमति शामिल होते हैं....ये वे लोग हैं जिनसे मुझे मेरी किसी भी रचना पर त्वरित प्रतिक्रिया मिलती है ....ये प्रतिक्रियाएं अच्छी -बुरी दोनों तरीके की होती हैं मगर होती एक दम निष्पक्ष हैं.................."साँसों में लोबान जलाना आखिर क्यों " पर इन सबकी प्रतिक्रियाएं मुझे उत्साह बढ़ने वाली रही....
मैंने ये ग़ज़ल अपने एक शायर दोस्त फ़साहत अनवर को भी एस एम् एस के जरिये भेजी...उन्होंने मुझे स्वरूप कमेन्ट भेजा की उन्हें इस ग़ज़ल की ज़मीन इतनी अच्छी लगी की उसी काफिये पर उन्होंने चार पांच शेर लिख डाले ........अनवर साहब के वो शेर आपके हवाले कर रहा हूँ गौर फरमाएं..........
मुझसे हर पल आँख चुराना आखिर क्यों !
दुश्मन के घर आना जाना आखिर क्यों !!
छोटे तबके वाले भी तो इंसान हैं,
महफ़िल में उनसे कतराना आखिर क्यों !!
मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!
मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आँखों में मैखाना आखिर क्यों !!
मुट्ठी में जो बंद किये हैं सूरज को,
उसको जुगनू से बहलाना आखिर क्यों !!
अनवर तेरी गज़लों के सब दीवाने हैं,
तू है ग़ालिब का दीवाना आखिर क्यों !!
एक सी ज़मीन पर दो ग़ज़लें पढना सचमुच अच्छा एहसास रहा.
7 टिप्पणियां:
बहुत खूब । आभार ।
मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!
हक़ है आपको कीजिए .....आपकी ग़ज़ल की खूबसूरती को दिल जो दे बैठे हैं.........
बहुत बढ़िया लगा! अत्यन्त सुंदर! विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!
वाह.....!!
हर शे'र लाजवाब है किसकी तारीफ करूँ और किसकी न करूँ .....
मुझसे हर पल आँख चुराना आखिर क्यों !
दुश्मन के घर आना जाना आखिर क्यों !!
बहूत खूब ....!!
छोटे तबके वाले भी तो इंसान हैं,
महफ़िल में उनसे कतराना आखिर क्यों !!
वाह....वाह.......!!
मेरे उसके जुर्म में कोई फर्क नहीं,
फिर मुझ पर इतना जुर्माना आखिर क्यों !!
लाजवाब....!!
मुझको तो हर पल पीने की आदत है,
उसकी आँखों में मैखाना आखिर क्यों !!
सुभानाल्लाह.....!!
अनवर तेरी गज़लों के सब दीवाने हैं,
तू है ग़ालिब का दीवाना आखिर क्यों !!
अब ये तो आप ही जाने जो खुद इतना उम्दा लिख रहा हो वो ग़ालिब का दीवाना क्यों है ....!!
एक अरसे के बाद एक क बाद एक दो ग़ज़ल तुम्हारी सुनने और भला हो ब्लॉग का जो पढने को मिलीं एक की सजावट अछि है तो दूसरी की बुनावट . बहुत करीने से लोबान को फिट करदिया है और बच्चों को चुपचाप बिठा के देखा दिया की कैसे जिंदगी से गुजरते हुए ग़ज़ल होती है जैसे बाग़ से गिजरते हुए फूल चुन ले कोई न पेड़ को पता चले न माली को न तोड़ने वाले को और न भगवन या मेहमान को
गुण गुना लेता हूँ
बेतरतीब सा घर ही अच्छा लगता है
बच्चों को चुपचाप बिठा के देखलिया.
मंत्री जी की ट्रेन आने वाली होगी रेसिवे करने जाना है फिर जल्द ही बात होगी ...जो अगर तीसरी ग़ज़ल तुमने भेजी तो खुदा हाफिज़
सुमति
वाह भाई वाह, सिर्फ आपको ही नहीं हमें भी एक ही ज़मीं पर दोनों ग़ज़ल बेहद दिल्कास्प लगी, चेले ने गुरु को ज़मीन दी गुरु ने उसे भी नजराने इक बेहतरीन ग़ज़ल ही तो दी......... दोनों को नमन.
मेरा भी इसी ज़मीन पर इक शेर पढ़ लें............
कोशिशे हमने भी की पर सब धूमिल रही
आपकी गज़ले इतनी दिलकश आखिर क्यों
हा ! हा !! हा !!! लगा जैसे मैंने भी इक तीर मार दिया,, पर मेरी ग़ज़ल लिखने की औकात कहाँ..........
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
bahut bahut bahut achchhe hai, maine aaisi line nahi suni,
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