रवायती ग़ज़ल लिखने में मैं खुद को बहुत असहज पाता हूँ...........रवायती ग़ज़लें इश्क, एहसास, शराब, शबाब, बेवफाई जैसे ख्यालों तक ही खुद को समेटी रहती हैं..........इधर ग़ज़लों का रूप-रंग- कलेवर बदला है, उसमें इन सारे विषयों को तो देखा ही जा सकता है साथ ही गरीबी, राजनीति, सामाजिक पहलू, पर्यावरण, रिश्ते के ताने-बाने, धर्म जैसे मुख्तलिफ विषयों पर भी उतनी ही संजीदगी से लिखा पढ़ा जा रहा है......... आज की ग़ज़ल सामाजिक सरोकारों से महक रही है.......नए-नए एहसासात अब ग़ज़लों की ज़मीन को भिगो रहे हैं........नए प्रयोग और भाषा धर्मिता ग़ज़लों में सहज दृष्टव्य हैं...............! वापस आता हूँ अपनी शुरूआती बात पर...........रवायती ग़ज़लों के लिखने की कोशिश पर. असल में मेरी पत्नी को रवायती ग़ज़लें ही ज्यादा पसंद हैं ..........जिनमे नाज़ुक एहसासों की खुश्बू आती रहे.... मैंने अपनी धर्म पत्नी के कहने पर एक रवायती ग़ज़ल लिखने का प्रयास किया है, आपको वो प्रयास पेश कर रहा हूँ.....!
कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू हो !!
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!
ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!
मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!
तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!
नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है !!
दिसंबर 24, 2009
मेरा एहसास मेरे रू ब रू...........!
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16 टिप्पणियां:
कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू !!
रवायती ग़ज़ल हु-ब-हु है.
इस अच्छी गजल के लिये आपका और भाभी जी का शुक्रिया
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!
ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!
इन ग़ज़लों में भी आपका कमाल नज़र आ रहा है ...... इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए तो भाभी जी का शुक्रिया अदा करना पड़ेगा ........
prabhaavi abhivyakti.
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अंग्रेज़ी का तिलिस्म तोड़ने की माया।
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
गज़ब की गज़ल ! यह शेर तो बहुत पसन्द आया -
"मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!"
पहला शेर समझने में मुझे मुश्किल हुई (दोष मेरे अल्प उर्दू-ज्ञान का है)- कू ब कू समझ में नहीं आया । वैसे भाव समझ गया ।
भैया !
लोगों ने मुझे बदनाम कर दिया है कि मेरी टिप्पणियाँ
नकारात्मक होतीं हैं .. पर मैं क्या करूँ '' फर्जी तारीफ की
धारा '' से वास्ता नहीं जोड़ पता , जो लगता है कह देता हूँ -
अच्छा लगे या बुरा , पर मेरा दिल किसी के लिए बुरा नहीं
चाहता .. एक '' जमादार '' की औकात के साथ मैं ब्लॉग-जगत में
हूँ , और इसी में खुश हूँ ..
अब मैं आपकी पोस्ट के नकारात्मक पक्ष पर पहले आता हूँ ( अपने
अल्पज्ञ होने के बावजूद ) ---
----- आपकी गजल के पहले शेर में 'बहर' - संबंधी त्रुटी है ..
----- '' नए प्रयोग और भाषा धर्मिता '' पर मुझे खटका , मुझे लगता है
कि '' नई भाषा और प्रयोग-धर्मिता '' होना चाहिए , तक तुक और सधेगा ..
अगर मैं गलत तो माफ़ कीजियेगा ..
'' मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !!
ये आँखें मुन्तजिर रहती हैं जिसकी,
उसे भी काश मेरी आरज़ू हो !!
मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!
तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,
मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो !!
नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है !!''
.......... इनकी तारीफ में क्या कहूँ , सब शेर बड़े सधे
और मर्मस्पर्शी हैं ( ''गुफ्तगू है'' में ''जुस्तजू हो ''रहे तो अच्छा
शायद टाइपिंग की गड़बड़ी है )
भाभी के शास्त्रीय (क्लासिक) - लगाव
की तारीफ करता हूँ ...
.......... आभार ,,,
टाइपिंग में मुझसे भी गलती हुई --
''गुफ्तगू है '' में
'' गुफ्तगू हो '' हो तो बेहतर ..
....... क्षमा चाहूँगा ..
कोई भी तज़्किरा हो या गुफ्तगू हो !
तेरा ही चर्चा अब तो कू ब कू !!
तुझे चाहूं तुझे पूजूं मेरी जां
तभी तो मैं भी निखरूं सुर्खरू हो
रवायती ग़ज़ल...सच कहा पवन जी। हम कितनी भी तेवर सजा लें लेकिन जो बात ग़ज़ल की इस अदा में है उसका कोई सानी नहीं।
मतला पढ़ कर बशीर बद्र याद आये..वो "अव्व्लो आखिरश दरम्यां दरम्यां" वाला शेर उनका।
ग़ज़ल का बयान अच्छा लगा। ऊपर अमरेन्द्र जी से सहमति है मेरी भी। लेकिन सिर्फ मतला बहर से बाहर जा रहा है। मेरी समझ से...मतले के पहले मिस्रे में यदि "या" हटा दें तो सब ठीक है। मेरे ख्याल से गलती से टाइप हो गया होगा।
"मयस्सर बस वही होता नहीं" वाला शेर तो क्या खूब बुना है सरकार आपने।..और "तुम्हें हासिल ज़माने भर के गुलशन,मिरे हिस्से में भी कुछ रंग ओ बू हो" वाले शेर पे हमारी करोड़ों दाद कबूल करें।
बेहतरीन
बहुत सुंदर ग़ज़ल..... कमाल कर दिया आपने..... बहुत खूबसूरती से लफ़्ज़ों को गढ़ा है.... बहुत अच्छी लगी यह ग़ज़ल.....
बहुत शानदार!
@
मुखातिब इस तरह तुम हो कि जैसे,
मेरा एहसास मेरे रू ब रू हो !!
इस पर मुग्ध हो गए। प्रेम और प्रेमी एक हो गए !
_______________________
अमरेन्द्र जी और गौतम जी की बातों पर अमल कीजिए महराज! क्या टिप्पणियाँ देखते ही नही हैं?
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो ....
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ...
नहीं कुछ कहने सुनने की ज़ुरूरत,
निगाह ए यार से जब गुफ्तगू है ...
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ....बहर , नुक्ता.. मतला,मिस्रे आदि के बारे में तो हम खुद ही नहीं जानते ...!!
सादर वन्दे
मयस्सर बस वही होता नहीं है,
दिलों को जिसकी अक्सर जुस्तजू हो !
बहुत ही सुन्दर रचना, वैसे यह सही कहा जाता है कि व्यक्ति कि कामयाबी के पीछे औरत(पत्नी) का हाथ होता है, आप के साथ भाभी जी को भी बधाई.
रत्नेश त्रिपाठी
आपके ब्लॉग पैर तो अक्सर विसिट करता हूँ और सौभाग्यबस दो बार आपसे मिलने का मौका भी मिला हैं | आपके वक्तितव के बारे में निम्न लाइन ज्यादा सार्थक प्रतीत होती हैं |
" लेहेजें की उदासी कम होगी, बातों में खनक आ जाएगी ,
दो रोज हमारें साथ रहो , चेहरें पर चमक आ जायगी || "
उपरोक्त लाइन मशहूर शायर " डॉ. अंजुम बाराबंकी : की हैं | वैसे भी जैसा आपको पता ही हैं , हम लोग तो दिन भर computers से realated चीजो से उलझते रहते हैं , लेकिन कंप्यूटर ने जो सबसे अच्छी सुविधा प्रदान की है वो हैं " Copy + Paste " , और मैं उसका उपयोग आपके ब्लॉग पर कुछ लाइन जो सार्थक प्रतीत होतीं हैं , पेस्ट कर देतां हूँ.| आपके ब्लॉग की गरिमा को ध्यान में रखते हुए मैंने भी हिंदी में टाइपिंग अपने पिछले १२ साल के carrier में करना शुरू कर दिया हैं| परिणामतः मुझे आजकल अपने विभाग का हिंदी नोडल ऑफिसर का अतरिक्त प्रभार सौपां गया हैं , जो की राजभाषा के प्रोन्नति के लिए भारत सरकार के आदेशानुसार कार्य करेगी.
सधन्यवाद
regards/vijay
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