साल की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती थी.........बरस 2010 के पहले दिन यानी 1 जनवरी को अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सजदा किया .........मेरे लिए यह एक अधूरी ख्वाहिश के पूरे होने जैसा था.
दरअसल 31 दिसम्बर की रात को जब हम जयपुर में पुराने साल की विदाई और नए साल के स्वागत का जश्न मना रहे थे............तभी यह तय हुआ कि साल की शुरुआत अजमेर में महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सर झुकाने के साथ की जाए. मैं अपने मित्र सुमति और दोनों परिवारों के साथ अल सुबह ही जयपुर से अजमेर रवाना हो लिए........ दोनों शहरों के बीच की दूरी लगभग 140किमी है मगर रास्ता इतना बेहतरीन है की यह दूरी महज दो घंटों से भी कम समय में आराम से पूरी की जा सकती है......बहरहाल हमारा कारवां 9 बजे तक अजमेर में पहुँच गया .........हम सीधे पहुंचे दरगाह पर............अच्छी खासी भीड़ थी..........!
सच तो यह है कि ख्वाज़ा की दरगाह पर जाने की इच्छा विगत दो साल से पूरा नहीं हो पा रही थी . दरअसल यह एक कौल था जो दो सालों से निभा नहीं पा रहा था......2007 में मैंने यह सोचा था कि ख्वाज़ा चिश्ती कि दरगाह पर जरूर जाऊँगा....... लेकिन कहते हैं न कि होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है.....यहाँ भी अपनी मजबूरियों का शिकार हो गया और किया हुआ कौल दो सालों तक नहीं निभा पाया......... इस बार अचानक जयपुर में साल के आखरी दिनों को बिताने का प्रोग्राम बना तो.............वहीँ यह तय हुआ कि अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के दर पर भी हो लिया जाए.....! इस बार जब यह प्रोग्राम बना तो इसे खोने का सवाल ही नहीं उठता था.........31 दिसम्बर की रात की थकान के बाद भी 1जनवरी की सुबह अजमेर निकल देने के लिए मैं तत्पर था......साथ में संगी साथियों ने भी उत्साह पूर्वक हामी भरी तो कोई गुंजाईश नहीं रह गयी.
हमारा कारवां पहुंचा अजमेर......बहारअपनी गाड़ी लगाकर जैसे ही दरगाह वाली सड़क पर हम मुड़े तो एक मुक़द्दस एहसास होना शुरू हो गया......सड़क पर भरी भीड़ थी.सड़क के दोनों और फूल- चादर- इत्र- लोबान- मेहंदी- खेल- खिलौने की लोकल दुकानें थीं.....जोर जोर से सूफियाना कलाम बज रहे थे........आपस में इन कलामों की आवाज़े इस तरह गुँथ गयीं थीं कि किसी भी कलाम को पहचान पाना मुश्किल था.....! इसी रास्ते होते हम पहुंचे दरगाह के विशाल गेट पर.....!
महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती (1143-1223 AD) को चिश्ती सिलसिले को भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है...उनकी पैदाइश तो ईरान की थी....घूमते घामते वे 1192 में भारत आ गए......शुरुआत में वे दिल्ली और लाहौर रुके बाद में वे अजमेर में बस गए................ कायनात को भाई चारा का सन्देश देने के लिए वही खानकाह की स्थापना कर डाली....उनके सीधे सच्चे सिलसिले को को देख कर शीघ्र ही बड़ी संख्या में उनके अनुयायी बन गए.... बताते हैं कि वे बचपन से ही योग और ध्यान लगाने पर बहुत रमे रहते थे......महज 15 बरस की आयु में उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया......एक दिन जब वे अपने बगीचे में पौधों को पानी लगा रहे थे तो सूफी संत कुंदूजी उधर से गुजरे.......मोईनुद्दीन साहब ने उन्हें कुछ फल भेंट किये तो बदले में सूफी संत कुंदूजी ने उन्हें एक रोटी दी............ जैसे ही वो रोटी मोईनुद्दीन साहब ने खाई.............उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गयी.....इसके बाद तो मोईनुद्दीन साहब ने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बाँट दी और पूरी तरह सूफी रुख अख्तियार कर लिया.
इस दरगाह का मुख्य प्रवेश द्वार बहुत विशाल है बताया जाता है कि इसे हैदराबाद के निजाम ने दान किया था.......इतिहास की बात करें तो मुग़ल बादशाह अकबर हरेक साल यहाँ आगरा से पैदल चलकर आते थे......! मार्च 11, 1223 AD (6th of Rajab, 633 AH) में उनके देहांत के बाद अब हर बरस जबरदस्त उर्स मनाया जाता है..... ....!
दरअसल 31 दिसम्बर की रात को जब हम जयपुर में पुराने साल की विदाई और नए साल के स्वागत का जश्न मना रहे थे............तभी यह तय हुआ कि साल की शुरुआत अजमेर में महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सर झुकाने के साथ की जाए. मैं अपने मित्र सुमति और दोनों परिवारों के साथ अल सुबह ही जयपुर से अजमेर रवाना हो लिए........ दोनों शहरों के बीच की दूरी लगभग 140किमी है मगर रास्ता इतना बेहतरीन है की यह दूरी महज दो घंटों से भी कम समय में आराम से पूरी की जा सकती है......बहरहाल हमारा कारवां 9 बजे तक अजमेर में पहुँच गया .........हम सीधे पहुंचे दरगाह पर............अच्छी खासी भीड़ थी..........!
सच तो यह है कि ख्वाज़ा की दरगाह पर जाने की इच्छा विगत दो साल से पूरा नहीं हो पा रही थी . दरअसल यह एक कौल था जो दो सालों से निभा नहीं पा रहा था......2007 में मैंने यह सोचा था कि ख्वाज़ा चिश्ती कि दरगाह पर जरूर जाऊँगा....... लेकिन कहते हैं न कि होता वही है जो ऊपर वाला चाहता है.....यहाँ भी अपनी मजबूरियों का शिकार हो गया और किया हुआ कौल दो सालों तक नहीं निभा पाया......... इस बार अचानक जयपुर में साल के आखरी दिनों को बिताने का प्रोग्राम बना तो.............वहीँ यह तय हुआ कि अजमेर में ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती के दर पर भी हो लिया जाए.....! इस बार जब यह प्रोग्राम बना तो इसे खोने का सवाल ही नहीं उठता था.........31 दिसम्बर की रात की थकान के बाद भी 1जनवरी की सुबह अजमेर निकल देने के लिए मैं तत्पर था......साथ में संगी साथियों ने भी उत्साह पूर्वक हामी भरी तो कोई गुंजाईश नहीं रह गयी.
हमारा कारवां पहुंचा अजमेर......बहारअपनी गाड़ी लगाकर जैसे ही दरगाह वाली सड़क पर हम मुड़े तो एक मुक़द्दस एहसास होना शुरू हो गया......सड़क पर भरी भीड़ थी.सड़क के दोनों और फूल- चादर- इत्र- लोबान- मेहंदी- खेल- खिलौने की लोकल दुकानें थीं.....जोर जोर से सूफियाना कलाम बज रहे थे........आपस में इन कलामों की आवाज़े इस तरह गुँथ गयीं थीं कि किसी भी कलाम को पहचान पाना मुश्किल था.....! इसी रास्ते होते हम पहुंचे दरगाह के विशाल गेट पर.....!
महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती (1143-1223 AD) को चिश्ती सिलसिले को भारत में लाने का श्रेय दिया जाता है...उनकी पैदाइश तो ईरान की थी....घूमते घामते वे 1192 में भारत आ गए......शुरुआत में वे दिल्ली और लाहौर रुके बाद में वे अजमेर में बस गए................ कायनात को भाई चारा का सन्देश देने के लिए वही खानकाह की स्थापना कर डाली....उनके सीधे सच्चे सिलसिले को को देख कर शीघ्र ही बड़ी संख्या में उनके अनुयायी बन गए.... बताते हैं कि वे बचपन से ही योग और ध्यान लगाने पर बहुत रमे रहते थे......महज 15 बरस की आयु में उनके ऊपर से पिता का साया उठ गया......एक दिन जब वे अपने बगीचे में पौधों को पानी लगा रहे थे तो सूफी संत कुंदूजी उधर से गुजरे.......मोईनुद्दीन साहब ने उन्हें कुछ फल भेंट किये तो बदले में सूफी संत कुंदूजी ने उन्हें एक रोटी दी............ जैसे ही वो रोटी मोईनुद्दीन साहब ने खाई.............उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गयी.....इसके बाद तो मोईनुद्दीन साहब ने अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बाँट दी और पूरी तरह सूफी रुख अख्तियार कर लिया.
इस दरगाह का मुख्य प्रवेश द्वार बहुत विशाल है बताया जाता है कि इसे हैदराबाद के निजाम ने दान किया था.......इतिहास की बात करें तो मुग़ल बादशाह अकबर हरेक साल यहाँ आगरा से पैदल चलकर आते थे......! मार्च 11, 1223 AD (6th of Rajab, 633 AH) में उनके देहांत के बाद अब हर बरस जबरदस्त उर्स मनाया जाता है..... ....!
महान सूफी संत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती का सन्देश है......" सभी से प्यार करो, सभी की सेवा करो,सबके लिए अच्छाई की दुआ करो, सबकी मदद करो......किसी को नुकसान मत पहुँचाओ.." चिश्ती सिलसिले के भारत में मकबूल होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि यह सिलसिला भारत की पुरानी वेदांत दर्शन से काफी हद तक साम्यता रखता था......इस सिलसिले का ‘वहदत उल वजूद’ दर्शन पुरातन वेदांती विचारधारा से बहुत मिलता जुलता था..........!
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम.... क्या गरीब क्या अमीर .............सभी के लिए यह दरगाह एक पाक- पवित्र जगह है....... ! दरगाह से उठती लोबान की खुशबू......लाल-पीले धागों में बंधी हुए मन्नतें .........क्या ही बेहतरीन एहसास से हम गुजरे.......!
गंगा जमुनी तहजीब और सांझी विरासत की एक अद्भुत मिसाल पर सर झुकाने का साल का यह पहला दिन मुझे अब तक रोमांचित कर रहा है..........!
क्या हिन्दू क्या मुस्लिम.... क्या गरीब क्या अमीर .............सभी के लिए यह दरगाह एक पाक- पवित्र जगह है....... ! दरगाह से उठती लोबान की खुशबू......लाल-पीले धागों में बंधी हुए मन्नतें .........क्या ही बेहतरीन एहसास से हम गुजरे.......!
गंगा जमुनी तहजीब और सांझी विरासत की एक अद्भुत मिसाल पर सर झुकाने का साल का यह पहला दिन मुझे अब तक रोमांचित कर रहा है..........!
10 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर वर्णन ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का
पढ़ कर एसा लगा मानो यह सौभाग्य हमें यहीं बैठे -२ प्राप्त हो
गया हो एसा वर्णन तो सिर्फ आप ही कर सकते है |
बहुत -२ आभार एवम
नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं .............
बंधू आपकी बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ की जो स्वर्गिक अनुभव दरगाह शरीफ में होता है उसे कहीं और नहीं अनुभव किया जा सकता है . लेकिन सिर्फ एक बात का रंज रह जाता है की जब दरगाह शरीफ के अन्दर जाते है तो लोग जो की दरगाह के अन्दर है पैसे के लिए इस कदर हाय तौबा मचाते है की सब ख़ुशी काफूर हो जाती है ऐसा लगता है की खुदा के घर भी शैतान बसते है लोग दूर -दूर से अपने पिया ख्वाजा साहब की जियारत को आते है लेकिन यह लोग पूरा मजा ख़राब कर देते है जो नुरानी अहसास होता है उसमे यह लोग भंग डाल देते है . लेकिन फिर भी कोई रंज नहीं होता क्योंकि अपने ख्वाजा से मिलना सचमुच सुखद अनुभव है. अजमेर वाकई शानदार जगह है . हाँ आपकी जानकारी के लिए एक बात जोड़ना चाहता हूँ की एक रिवाज़ है की खवाजा साहब से मिलाने से पहले उनके मामू हजरत खवाजा खानुन साहब की जियारत की जाती है जिनकी दरगाह ग्वालिअर में है वोह भी बहुत ही सुकून देने वाली जगह है रूह को जो शांति मिलती है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है .
आपने अपने लेख में एक जगह महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया साहब का जिक्र किया है जिनकी दरगाह दिल्ली में है ना की अजमेर में
Realy how beautifully u described and we came to know more about ....
While reading ur article one of the famous sentence coming into my mind which suits to this article and probably u will also like
"Trusting in GOD won't make the mountain smaller,
but will make climbing easier.
Do not ask him for a lighter load but ask him for a " STRONGER BACK"
regards
Vijay, NTPC-Singrauli
ख्वाज़ा हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती भारत में सांस्कृति और सामाजिक सदभाव के सबसे बेहतरीन प्रतीक हैं.इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैसे-जैसे समाज में घ्रणा और साम्प्रदायिकता बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ख्वाज़ा हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती की प्रासंगकिता बढ़ती जा रही है.
हम भी हाजिरी लगा आये थे . एक रुहानी सकून तो मिल्ता ही है वहां . इरादे रोज़ बनते है टूट जाते है वहा वही जाता है जिसे ख्वाजा बुलाते है
आज ही घर से लौटा हूँ ..
नए साल की शुभकामनाएँ ..
ख्वाजा मोइनुद्दीन की तरह पाक चिश्तिया-पोस्ट
बड़ी अच्छी लगी ..
ध्वनित होने लगा ---
'' मैं तो दीवानी ..
......... ख्वाजा की दीवानी '' ........ आभार ,,,
LAJAWAAB DRESHY KAHINCHA HAI AAPNE CHISHTI KI DARGAAH KA ..... BAHU LAJAWAAB ... AAP KISMAT WAALE HAIN ....
नए साल की शुभकामनायें ! उनका सन्देश जन-जन अपनाए तो फिर क्या बात हो.
अभी तक मुझे मौका तो नहीं मिला है, अब आपकी ये पोस्ट पढ़कर प्रेरित हुआ हूं कि अगली बार प्रयास जरुर करता हूं इस मशहूर जियारत पर जाने की...
हमारी उत्कंठा भी जागृत हो गयी है हाजिरी लगाने के लिये वहाँ ।
बेहद सुन्दर प्रविष्टि ।
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