दिसंबर 09, 2008
चिल्ड्रेन सेक्सन में बचपन
चिल्ड्रेन सेक्सन में बचपन
नवंबर 28, 2008
तुम्हे क्या हो गया है...मुंबई ?
हे ईश्वर, अमन चैन के दुश्मन इन चरमपंथिओं को सदबुद्धि दो. मानवता की यही पुकार है.....
नवंबर 24, 2008
धरम
कभी कभी अचानक ऐसा हो जाता है कि आप को सामान्य रैपर में भी बेहतरीन चीज मिल जाती है जिसकी आप उम्मीद भी नही करते. ऐसा ही कल मेरे साथ हुआ. मैं सार्थक हिन्दी फिल्मों को देखने का विशेष शौकीन हूँ सो फिल्मों को लेकर दांव खेलता रहता हूँ . बिना बहुत विचार किए मैंने कल "धरम" नाम की एक सीडी उठा ली और देखने बैठ गया. पूरी फ़िल्म एक सिटिंग में देख गया....अब ऐसा कम ही होता है कि मैं एक बार में बिना फॉरवर्ड किए कोई फ़िल्म देख जाऊं. कुछ समय की कमी होती है तो कुछ फिल्में भी ऐसी होती है कि दिमाग उनसे जुड़ नही पाता. "धरम" ने इन पूर्वाग्रहों को काफी दिनों बाद तोडा. मैं पूरी फ़िल्म देखने के बाद ही उठ सका हर सीन के बाद अगले सीन का इन्तिज़ार रहा. लो बजट की यह पिक्चर गत वर्ष काफी चर्चा में रही थी जब इस पिक्चर को ओस्कर के लिए नामित किया गया था मगर अन्तिम चयन एकलव्य- द रोयल गार्ड का हुआ था. खैर मैं इस विवाद से ऊपर उठकर सीधे धरम के बारे में आता हूँ.फ़िल्म बनारस के ब्राह्मण पंडित चतुर्वेदी (पंकज कपूर) की धार्मिक गतिविधिओं से शुरू होती है पंडित जी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण हैं पुरातन ग्रन्थ उनके आचार व्यवहार की दिशा निर्धारित करते हैं. उनका हर व्यवहार कट्टर तरीके से हिंदू परम्परा की तरह होता है. गैर धार्मिक काम के बारे में वे सोच भी नही सकते. उनकी पत्नी (सुप्रिया पाठक) उनके लिए एक सहायक की तरह हैं जो पंडित जी हर काम को पूरी श्रद्धा से करती हैं.पंडित जी बनारस के ही ठाकुर विष्णु सिंह (केके रैना) के मन्दिर के खानदानी पुजारी भी हैं. घटनाएं कुछ इस तरह चलती हैं कि विष्णु सिंह का पुत्र पंडित चतुर्वेदी को नापसंद करने लगता है. इसी बीच पंडित जी कि बेटी देविका जिसकी उम्र लगभग १० वर्ष है, उसे गंगा के घाट पर कोई अनजान औरत अपना दुधमुहा बच्चा पकड़ा कर गायब हो जाती है.देविका उस बच्चे को घर ले आती है जहाँ पंडित जी की पत्नी उस छोटे से बच्चे को पालती हैं .पंडित जी को यह ठीक नही लगता कि किसी अनजान बच्चे को उनके घर में इस तरह पनाह मिले. वे अपनी पत्नी से उस बच्चे को विधर्मी कहकर पीछा छुड़ाने कि बात करते हैं. पुलिस से कहकर उसकी माँ को भी खोजने का प्रयास करते हैं मगर सब कुछ बेमतलब साबित होता है. अंतत: पंडित जी की पत्नी उस बच्चे को अपनी संतान की तरह पालती हैं. बच्चा बड़ा होने लगता है पंडित जी को भी उससे प्यार होने लगता है. बच्चे का नाम कार्तिकेय रखा जाता है. जब वह ४ साल का होता है तो अचानक एक दिन उस बच्चे की माँ अपने बच्चे को ले जाने ले लिए पंडित जी के घर प्रकट हो जाती है.....माँ मुसलमान होती है...... विचित्र स्थिति सामने आ जाती बहरहाल बच्चा चला जाता है....पंडित जी अपने किए का पश्चाताप करते हैं कि उन्होंने एक विधर्मी बच्चे को घर में पनाह क्यूँ दी वे इसलिए चंद्रयान व्रत का अनुष्ठान करते हैं. एक विधर्मी बच्चे को पालने के विरोध में कुछ लोग पंडित जी को नीचा भी दिखाते हैं. कहानी यूँ ही चलती जाती है. फ़िल्म का अंत बहुत मर्मस्पर्शी है जब साम्प्रदायिक दंगो में कुछ लोग कार्तिकेय की जान लेने का प्रयास करते हैं.और पंडित जी स्वयं उसकी जान बचाते हैं.साधारण सी लगने वाली इस कहानी को विभा सिंह ने क्या गज़ब का ट्रीटमेंट दिया है. सबसे बड़ा सरप्राइजिंग पैकेज तो स्वयं निर्देशक भावना तलवार हैं जिन्होंने अपनी पहली ही फ़िल्म में अपने शानदार काम को अंजाम दिया. बोल्ड विषय पर फ़िल्म बनाना इतना आसान नही होता मगर भावना तलवार ने हद से आगे जाकर काम किया है...... अभिनय में पंकज कपूर, सुप्रिया पाठक, ऋषिता भट्टऔर केके रैना का काम ज़बरदस्त है. सोनू निगम के आलाप से गूंजती यह पिक्चर किसी के भी दिमाग को हिला देने में सक्षम है ....मैं बस यही कह सकता हूँ कि काश यह पिक्चर ऑस्कर जाने पाती......
नवंबर 22, 2008
हद हो गयी भाई....
नवंबर 13, 2008
होशंगाबाद डायरी
सबसे पहले नर्मदा की बात. नर्मदा यहाँ की लाइफ लाइन है. नर्मदा का अमरकंटक से निकल कर मध्य प्रदेश के इस शहर से गुजरना इस शहरवासिओं को गर्व का एहसास दिलाता है. हम जब होशंगाबाद में पहुंचे तो यहाँ हलकी हलकी ठंडक पड़ने लगी थी...नर्मदा की तरफ़ से मंत्रों और भजनों की आवाजें लाउड़्स्पीकर से आ रही थी. पता चला कि दीपावली से लेकर अगले 11 दिन तक यहाँ पूजा- भजन का माहौल रहता है नर्मदा के तट पर लोग श्रद्धा से आते हैं और स्नान -दर्शन करते हैं. हम भी नर्मदा के तट पर पहुंचे ..सेठानी घाट यहाँ का मुख्य घाट है.बहती हुई नर्मदा वाकई खूबसूरत लग रही थी.कम बारिश वाले इस क्षेत्र में नर्मदा को देखना वाकई सुखकारी था.
नर्मदा का दर्शन करने के बाद हमने इस शहर का भ्रमण किया.यह शहर तो छोटा है मगर यहाँ भारत के अन्य छोटे और मिडिल क्लास शहरों की तरह न तो भीड़ -भाड़ है और न ही ट्रैफिक की भागमभाग. धीमी गति से चलता हुआ यह शहर महानगरीय आपाधापी को चिढाता हुआ नज़र आया. सुबह 8 बजे तक इस शहर की नींद खुल चुकी थी...हमने पाया की यहाँ नाश्ते का काफी कल्चर है...मिठाईओं की दुकानों पर नमकीन पोहा (चावल से बना हुआ ) जगह जगह देखा. हमने स्थानीय लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि होशंगाबाद में पोहा को नाश्ते में लेना पुरानी परम्परा है...पोहा के साथ अगर गरम जलेबी मिल जाए तो फ़िर नाश्ता पूरा. और अगर हैवी नाश्ता करना है तो इसमे आलूवडा और भाजीवडा और गरमागरम चाय को और जोड़ लीजिये और मात्र 15 रुपये में दोपहर तक फ्री हो जाइए........और शायद शाम तक भी.
समीपवर्ती शहर बेतूल की तरफ़ जाते हुए से गुजरते हुए इस शहर के अन्तिम गाँव दांडीवादा में भी हम गए. आदिवासिओं के साथ हमने समय गुजारा...जानकर अच्छा लगा की अब आदिवासिओं की सामजिक शक्ल बदल रही है......अब पढ़ाई लिखाई की तरफ़ ध्यान दे रहे हैं. अगली पीढियां यह बात समझ चुकी हैं कि बिना शिक्षा के गुज़र नही है......छोटे छोटे बच्चों को स्कूल जाते देखना बहुत अच्छा लगा...लड़के- लड़कियों के छोटे छोटे झुंड अपनी साइकिलों पर स्कूल जाने के लिया निकल पड़े थे......दुनिया जहाँ में क्या हो रहा था इससे भी यह बच्चे बेखबर नही थे.....कौन सा फ़िल्म हीरो ,क्रिकेट खिलाड़ी उन्हें पसंद है इस पर उनकी प्रतिक्रिया सुनना अच्छा अनुभव था..... बाकी और भी बहुत कुछ के बारे में अगले कुछ पोस्ट में.
अक्टूबर 31, 2008
सरदार को याद करते हुए..
अक्टूबर 22, 2008
आमद कुबूल करें......
इधर बीते पन्द्रह दिनों में जो दो महत्त्वपूर्ण बातें रहीं ,वे थीं निजामी बंधुओं के कव्वाली प्रोग्राम और अमिताभ दास गुप्ता का नाटक " नयन भरी तलैया" देखने का अवसर मिला.
पहले निजामी बंधुओं पर चर्चा. निजामी बंधुओं की कव्वाली देखने में बड़ा मज़ा आया .भारत की गंगा जमुनी संस्कृति के उस्ताद शायर आमिर खुसरो,बाबा बुल्ले शाह से लेकर समकालीन शायरों जैसे राहत इन्दौरी और बशीर बद्र के शेरों को चुनकर उन्हें कव्वाली में पिरोकर इस खूबसूरती के साथ सुनाया कि हम लगातार वाह वाह करते रहे. मेरे प्रिय शायर आमिर खुसरो साहेब की आल टाइम लीजेंड "मोसे नैना लड़ाए के" तो सुनकर मज़ा आ गया. " मेरे मौला जिसपे तेरा करम हो गया, वो सत्यम शिवम् सुन्दरम हो गया" से आगाज़ करने वाले निजामी भाइयों ने महफ़िल लूट ली.ये गायक निजामी भाइयों के नाम से जाने जाते हैं. ये गायक बंधु सिकंदर घराने से ताल्लुक रखते हैं. यह घराना बीते 700 सालों से कव्वाली गायकी में लगा हुआ है.यह घराना हज़रात निजामुद्दीन और खुसरो साहेब के दरबारी गायकी से सम्बन्ध रखता है सूफी कव्वाली को "कौर तराने " से शुरुआत करते हैं . यह तकनीकी बात मुझे इसी कार्यक्रम में जाकर मिली . हमारे दोस्तों कि मांग पर उन्होंने महान गायक नुसरत फतह अली खान की गई कव्वाली "अल्लाह हूँ, अल्लाह हूँ" तथा ऐ आर रहमान की कम्पोज़ "मौला मेरे मौला" भी सुनाई. अब जबकि लगातार पुराणी संस्कृति से कलाकार दूर हिते जा रहे हैं ऐसे में विगत ७०० सालों की शानदार परम्परा को निभा रहे निजामी बंधुओं की गायकी और उनके हौसले को देखकर अपनी गंगा जमुनी संस्कृति पर हमें गर्व होना स्वाभाविक है.
अमिताभ दास गुप्ता का नाटक " नयन भरी तलैया" देखने का अवसर मिला. यह नाटक सत्ता और आम आदमी के बीच कि दूरी और उनकी प्राथमिकताओं को दर्शाता था. कहानी कुछ इस तरह थी कि एक राज्य में सूखा पड़ा हुआ है तालाब-नदी -पोखर सभी सूख चुके हैं. राजा- रानी इस सबसे बेखबर हैं. अपनी शानो-शौकत की जिंदगी बसर कर रहे हैं. उधर एक गाँव में सुखनी नाम की एक एक लड़की गाँव में एक कुआँ खोदने वाले एक आदमी से प्यार करती है. इसी बीच राजा के दरबार में एक साधू आता है और बताता है कि सूखा से तभी निपटा जा सकता है कि जबकि राज परिवार का कोई सदस्य कुएं में कूद कर अपनी जान दे दे...तब जोर से पानी बरसेगा.....राज परिवार में कोई भी अपनी जान देने को तय्यार नही होता है....रानी तब अपनी कुटिल बुद्धि से राजा को एक उपाय सुझाती है कि क्यों न अपने सबसे छोटे तीसरे पुत्र कि शादी किसी गाँव की लड़की से कर दें और उसको कुएं में कुदा दें इससे राज परिवार भी बच जायेगा और सूखे कि समस्या से भी निपटा जा सकेगा. राजा को यह विचार पसंद आ जाता है और लड़की खोजी जाती है अंतत लड़की सुखनी ही मिलती है.........उससे राजकुमार की शादी की जाती है,और उसे कुएं में धकेला जाता है.....एक दर्द भरा एंड इस नाटक का होता है जो यह सोचने पर विवश करता है कि सत्ता अपने स्वार्थ के लिए किस कदर अंधी हो जाती है... नाटक के सभी पात्र काफी गुंथे हुए थे. लगभग डेढ़ घंटे का यह नाटक शिखर और धरातल के बीच की खाई को स्पष्ट समझा गया.
सितंबर 18, 2008
तीजन बाई .....
सितंबर 13, 2008
लाल टिब्बा पर पिज्जा...
मुझे हमेशा से ऐसे प्रोग्राम अच्छे लगते हैं ..हम चार -पाँच लोग लाल टिब्बा के लिए 11 बजे निकल लिए मैं, अंजू, मुकुल और मुक्ता....काफिला चल पडा लाल टिब्बा की ओर...मसूरी से बमुश्किल 6 किमी. चलने के बाद लाल टिब्बा आने वाला था कि रास्ते में एक खूबसूरत सा चर्च मिला. इतवार का दिन होने कि वजह से काफी भीड़ भाड़ थी कुछ देर हम वहां रुके...कानों में प्रार्थनाओं के स्वर गूंजते रहे यह केल्लोग चर्च था जो 1903 में बनाया गया था बहुत ही अच्छा लग रहा था...पता किया तो बताया गया कि लाल टिब्बा थोड़ा आगे ही है... हम आगे बढे ....सिस्टर मार्केट कि तरफ़ जाने के लिए किसी ने कहा ......हम सिस्टर मार्केट कि तरफ़ चल दिए. बताना चाहूँगा 'सिस्टर मार्केट' दरअसल इस जगह को इसलिए कहा जाता है क्यूंकि यहाँ अँगरेज़ काल में हॉस्पिटल था और अंग्रेजों के आला अफसरों का इलाज़ यहीं होता था..इलाज़ करने वाली सिस्टर अपनी सामान्य खरीददारी यहीं करती थी तभी से इस जगह का नाम सिस्टर बाज़ार पड़ गया....हम सिस्टर बाज़ार पहुंचे . नज़र दौडाई तो देखा दूरदर्शन और आल इंडिया रेडियो का टॉवर भी यहाँ है 7700 फीटी ऊंचाई पर यह टावर वाकई हैरान कर देने वाला तथ्य था. 1975 में यह टावर यहाँ स्थापित किया गया था (शायद भारत में सबसे ऊपर दूरदर्शन का टावर यही है) इतवार का दिन होने कि वज़ह से स्कूली बच्चे तो नही दिखे मगर लोगों ने बताया कि इस एरिया में मिशनरी स्कूल बड़ी संख्या में हैं. मुकुल ने जानकारी दी कि पिज्जा वाली दुकान का नाम देवदार होटल है....हम लोग देवदार पहुंचे सीधी ऊँचाई पर यह होटल बिल्कुल पुराने डाक बंगलों की तरह बना हुआ था. बड़े बड़े कमरे बीच में अलाव सुलगाने की जगह ..ऊंची ऊंची छतें सुनसान तिब्बती शक्लों वाले बैरे ...हमें अब तक भूख भी लग चुकी थी मौसम खुशगवार था हमने देवदार के अन्दर पिज्जा खाने की बजे इस होटल के बहार खड़े विशालकाय पेड़ के नीचे कुर्सिओं पर बैठकर पिज्जा खाने का मन बनाया ........पिज्जा खाने का यह अनुभव भी जोरदार रहा......आर्डर लेने के करीब 40 मिनट के बाद पिज्जा परोसा गया ...पिज्जा भी बिल्कुल देसी तरीके से बना था ......पिज्जा का बेस काफी पतला और डिजाइनदार था.......हमने इस बड़े पिज्जा को बड़े चाव से खाया......शायद 7500 फीट की ऊंचाई पर पिज्जा खाने का ये शानदार अनुभव था .......जल्दी ही फ़िर आने का वादा कर हम इस लाल टिब्बा को सलाम कर वापस हो लिए...जल्दी मिलेंगे लाल टिब्बा...........सलाम लाल टिब्बा
सितंबर 06, 2008
मसूरी की बरसात
मसूरी मैं पहले भी आ चुका हूँ मगर वो सब दो-चार दिन वाले प्रवास थे...इस बार तो एक लंबा समय यहाँ गुज़रना है......मसूरी को लेकर एक क्लाविता लिखी है शायद आपको पसंद आए....
मसूरी
एक निहायत खूबसूरत दोशीजा
इसकी पेशानी पर सूरज की बिंदी है
तो
तमाम तराशे हुए कुहसार
उसके अल्हड़पन के गवाह हैं.
मसूरी
जब ये सुबह चाँदी के वर्क से
ढके बादलों की चुन्नी ओढ़कर आती है
तो और भी खूबसूरत हो जाती है.
मसूरी
कभी शाम को सिन्दूरी ओढ़नी
पहनती है ....
वाह क्या नक्शबंदी है.
यहाँ की बरसात
ऐसा लगता है
कि मसूरी ने अपने जज़्बात
इसके आब में घोले हैं
मोती से बिखर जाते हैं
जब बरसात होती है
जी चाहता है
इस मीठी मासूम बरसात में ता उम्र भीगते रहें.......
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कुहसार= पहाड़
आब= पानी
नक्शबंदी= आर्ट
अगस्त 28, 2008
पारिवारिक मूल्य
अगस्त 26, 2008
राजगुरु एक अद्भुत क्रांतिकारी
अगस्त 23, 2008
खुदा हाफिज़ गाजियाबाद.
गाजियाबाद दरअसल दो विपरीत परिस्थितियों से जूझता शहर है ...एकतरफ माल कल्चर है दूसरी तरफ़ अभी भी झुग्गी झोपडी बड़ी मात्रा में हैं..... उसी सड़क पर लैंड क्रूसर है तो उसी सड़क पर बैलगाडी और टट्टू भी...... बड़ी अजीब सी हालत है पैसे के पीछे भागते बदहवास से लोग......
.................. लेकिन मैं इस शहर का यही रूप देखूंगा तो शायद गलती होगी. इस शहर की सबसे ख़ास बात ये है कि हर आदमी को यहाँ पनाह है...जो लोग दिल्ली को अफोर्ड नही कर सकते उनके लिए ये शहर नया जीवन है सस्ते का सस्ता और दिल्ली वाले भरपूर मज़े भी.......साहित्य के क्षेत्र में यहाँ कुंवर बेचैन, पराग के सम्पादक देवसरे जी, गायिका विद्या भारति हैं कुछ बड़े जर्नलिस्ट भी हैं और उद्योग पति होना तो लाजिमी है ही .......इन सबसे ऊपर सुरेश रैना है जो भारत के नए क्रिकेटर हैं....इससे पहले यहाँ के मनोज प्रभाकर अच्छा खासा नाम कमा चुके हैं ....... व्यक्तिगत तौर पर मैं इस शहर का आभारी भी हूँ क्योंकि यहाँ मेरी मुलाक़ात उन चन्द लोगों से हुई जिन्होंने मुझे जीवन को देखने का एक नया तरीका दिया...और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मेरे दिल के करीब भी आए......दोस्त भी बने.......एक साथ मै इन सबके नाम लू तो ज़ाहिर है कुछ नाम तुंरत उभरते हैं......दीपक अग्रवाल, सर्व जीत राम, ओपी शर्मा, जे पी जैन, डॉ जय हरी, कुंवर बेचैन, कमलेश भट्ट, संजय तिवारी, ओझा, आशु गुप्ता, बिमल दुबे, विकाश, मनोज, रजनीश राय, राजपाल सिंह जी,अशोक अग्रवाल, सुदेश शर्मा.( हो सकता है की कुछ नाम जल्दवाजी में छूट भी गए हो ). इस शहर में आकर अपने कुछ पुराने दोस्तों से भी मुलाक़ात हो गयी...प्रो. रोहित,संजू भदौरिया, मोहित और सबसे ऊपर १९९७ बैच के वित्त अधिकारी पवन जी से जो मुझे बेहद पसंद हैं.
तमाम शिकायतों के बावजूद इस शहर को इतनी आसानी से भूला भी नही जा सकता.......आख़िर आई ऐ एस भी तो यहीं से बना हूँ जो मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है... १ सितम्बर से जब मै ट्रेनिंग पर मसूरी जा रहा हूँ तो शहर की तमाम खट्टी मीठी यादें मेरे साथ हैं......दुनिया गोल है शायद कुदरत फ़िर गाजियाबाद से मिलाये .................अहमद फ़राज़ का एक शेर है
फ़िर इसी राह गुज़र पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद,
जो भी बिछुडे हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तू इन्तिज़ार कर शायद....
................इन्ही उम्मीदों के साथ खुदा हाफिज़ गाजियाबाद.
अगस्त 21, 2008
एक और सोना चाहिए ....
बड़ी मुश्किल है इन चैनल वालों की ......इनकी praathmiktaayen अब तक clear नही है । sushil kumar के bronze पदक जितने के baawazood उनका dhyaan क्रिकेट पर ही रहा ,बल्कि क्रिकेट को ही jyada tarzih दी । कहाँ ९ देश क्रिकेट khelte हैं और हम bamushkil जीत paate हैं wahin २०५ deshon के olympic me पदक जितना बड़ी achievment है। भारत के ओलंपिक इतिहास में बुधवार का दिन बेहतरीन रहा बुधवार दोपहर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से बीजिंग ओलंपिक से भारत को कुश्ती में कास्य पदक मिलने की सूचना मिली। जहाँ पहलवान सुशील कुमार ने कांस्य पदक जीता और बॉक्सर विजेंदर कुमार का कांस्य पदक पक्का हो गया. पदक तालिका में भारत के नाम के आगे ओलंपिक खेलों में तीन पदक पहली बार दिखाई देंगे.बुधवार को जहां विजेंदर कुमार ने मुक्केबाज़ी के क्वार्टर फ़ाइनल में जीतकर कांस्य पदक सुनिश्चित किया वहीं सुशील कुमार ने कुश्ती में कांस्य पदक जीत लिया. पश्चिमी दिल्ली के बापरौला गांव निवासी सुशील कुमार के कुश्ती में कास्य पदक जीत लिया. इससे पहले 1952 में भारत के केडी जाधव ने कांस्य पदक जीता था. सुशील कुमार ने 75 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक के लिए हुए मुक़ाबले में कज़ाखस्तान के पहलवान लियोनिड स्पिरदोनोव को हराया. अब to हमारी nigaahen vijendar पर लगी हैं। 75 किलोग्राम वर्ग में विजेंदर ने बड़ी ही सधी शुरुआत करते हुए इक्वेडोर के मुक्केबाज़ कार्लोस गोंगोरा को 9-4 से हरा दिया. पहले राउंड में विजेंदर ने सधी हुई मुक्केबाज़ी करते हुए दो अंक जुटाए. दूसरे राउंड में भी वो रुक रुक कर मुक्के लगाते रहे और चार अंक जुटा लिए. तीसरे राउंड में गोंगोरा काफी थके हुए दिखे जिसका फ़ायदा विजेंदर ने उठाया और गोंगोरा को हराने में सफलता प्राप्त की. गोंगोरा को मामूली मुक्केबाज़ नहीं हैं, वे चार बार यूरोपीय चैंपियन रहे हैं. इस जीत के साथ ही विजेंदर सेमी फाइनल में पहुंचे गए हैं और उनका कांस्य पदक पक्का हो गया है, हो सकता है कि अगले मैचों को जीतकर वे रजत या स्वर्ण पदक के दावेदार बन जाएँ.
अगस्त 17, 2008
मनीष एक अदबी शायर
मनीष और मेरा साथ गत १० बरस का है। मनीष से मेरा साथ तब से है जब हमारी नयी नयी नौकरी लगी थी । हम ट्रेनिंग में लखनऊ में थे वित्त संस्थान में ट्रेनिंग ले रहे थे तभी शेर ओ शायरी के शौक ने हम को एक दूसरे के करीब ला दिया । हम लोग नैनीताल में भी ट्रेनिंग साथ साथ कर रहे थे ....तब ये शौक परवान चढा। हम दोनों घंटो एक दूसरे को शेर ओ शायरी को शेयर करते। बहरहाल मनीष के साथ रिश्ते दिन ब दिन मजबूत हुए मुझे ये कहने में कोई हिचक नही की मनीष आज मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक है। उम्र में ५ बरस बड़ा होने के कारण मनीष मेरे बड़े भाई के रूप में भी है। उनकी सबसे ख़ास बात ये है की अच्छे अधिकारी होने के साथ साथ वे एक अच्छे शायर भी हैं। बड़ी खामोशी के साथ वे अपना साहित्य srijan में लगे हुए हैं और मज़े की बात ये है की उनकी शायरी में अदब तो है ही जीवन के मूल्यों की गहरी समझ भी है। मेरे अन्य शायर दोस्तों की तरह वे भी दिखावे और मंच की शायरी से दूर रहते हैं । उनको पहली बार मंच पर लाने का काम मैंने तब किया जब मैं मीरगंज में ऊप जिलाधिकारी था और एक मुशायरा वहां आयोजित कराया था। १९७० को उन्नाओ में जन्मे मनीष शुक्ला की कुछ ग़ज़ल यहाँ पेश है ............निश्चित रूप से अच्छी लगेंगी।
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कागजों पर मुफलिसी के मोर्चे सर हो गए, और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए।
प्यास के शिद्दत के मारों की अजियत देखिये ,खुश्क आखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए।
ज़र्रा ज़र्रा खौफ में है गोशा गोशा जल रहे, अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए।
सबके सब सुलझा रहे हैं आसमा की गुत्थियां, मस आले सारे ज़मी के हाशिये पर हो गए।
फूल अब करने लगे हैं खुदकुशी का फैसला, बाग़ के हालात देखो कितने अब्तर हो गए।
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गए मौसम का डर बांधे हुए है।
परिंदा अब भी पर बांधे हुए है।
मुहब्बत की कशिश भी क्या कशिश है,
समंदर को कमर बांधे हुए है।
हकीकत का पता कैसे चलेगा,
नज़ारा ही नज़र बांधे हुए है।
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आसमा धरती समंदर किसलिए, ये तमाशा बन्दा परवर किसलिए।
कौन सी मंजिल पे जाना है हमें,ये सर ओ सामान ये लश्कर किसलिए।
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याद करने का बहाना चाहिए,आरजू को इक ठिकाना चाहिए।
कुछ नही झूठा दिलासा ही सही ,हौसले को आब ओ दाना चाहिए।
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मुय्याँ kaid की मुद्दत नही है, रिहाई की कोई सूरत नही है।
ठहर जाता हूँ हर शये से उलझ कर , अभी बाज़ार की आदत नही है।
अगस्त 12, 2008
शाबास अभिनव ......गर्व है तुम पर
जैसे ही ख़बर मिली कि ओलम्पिक में अपने देश के अभिनव ने गोल्ड मैडल जीत लिया है। दिल बल्लियों उचल गया। उन्होंने सोमवार को यह करिश्मा कर ओलंपिक के 112 वर्षों के इतिहास में पहली बार भारत की ओर से किसी व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक हासिल किया. भारत के शूटिंग स्टार अभिनव बिंद्रा 10 मीटर एयर राइफ़ल में स्वर्ण पदक हासिल किया. भारत ने 1980 के बाद पहला स्वर्ण पदक जीता है. इसके पहले भारत हॉकी में स्वर्ण पदक जीता था.खेल रत्न से सम्मानित बिंद्रा क्वॉलिफाइंग राउंड में चौथे स्थान पर रहे थे. उन्होंने 596 के स्कोर के साथ फ़ाइनल के लिए क्वॉलिफ़ाई किया था. लेकिन अंतिम मुक़ाबले में उन्होंने सबको पीछे छोड़ दिया. एक ऐसे माहौल में जब देश में सिर्फ़ हताशा, निराशा और असंतोष की ख़बरें ही सुर्खियाँ बन रही थीं, उस सबके बीच अभिनव का यह स्वर्ण पदक जैसे एक प्यासे राष्ट्र के लिए आशा की बूंद बन कर आया है. शायद बहुत लोगों को आज भारत में एक अजीब तरह की खुशी का एहसास हुआ होगा. एक ऐसी खुशी जिसमें शायद 20-20 चैंपियनशिप की जीत का उन्माद नहीं है और शायद अभिनव कभी भी धोनी, युवराज जैसी लोकप्रियता की बुलंदी भी नहीं छुए, पर आज के स्वर्ण पदक में एक अलग और अजब से ठहराव, गर्व और राष्ट्रवाद का समिश्रण है. और इस अनुभूति में कुछ भी जिंगोइस्टिक या कहिए नकारात्मक राष्ट्रवाद नहीं है. आज की अनुभूति में एक ख़ास तरह का इत्मिनान है, आत्मसम्मान है कि आख़िरकार दुनिया के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राष्ट्र में एक अरब से भी ज़्यादा लोगों में एक तो ऐसा निकला जिसने आज भारत को पहली बार अंतरराष्ट्रीय और वह भी ओलंपिक के मंच पर अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया. हम होंगे कामयाब गाने को सुनते हुए इतने वर्ष हो गए थे कि लगने लगा था कि इस गीत के बोल शायद ही कभी यथार्थ बन पाएं. कम से कम ओलंपिक के संदर्भ में तो आज अभिनव ने इस गीत को चरितार्थ कर दिखाया है. और भरा है राष्ट्र में और भारत के युवा में एक नया आत्मविश्वास कि हमारे लिए भी असंभव कुछ नहीं है. अभिनव बिंद्रा ने ओलंपिक तक का सफ़र कड़ी मेहनत और लगन से तय किया है.
देश की तरफ़ से उनको लाख लाख सुभकामनाएँ काश कि हम कुछ और पदक जीत पाते............... ।
अगस्त 07, 2008
डॉ विक्रम सिंघ -यथार्थ के साथ
अगस्त 03, 2008
fasahat की कविता मेरे लिए
IAS pariksha me
सफलता प्राप्त करके
माता - पिता
guroo जन
एवं जनपद का मान badhaya है।
mayan ऋषि की tapo भूमि को
भारत के कोने कोने से
parichit karaya है।
निश्चय ही तुम mahan हो
गुणों की अनुपम khan हो
ishwar तुम्हे
सफलता के शिखर तक pahuchaye
विश्व तुम्हारी sajjanta को sarahe ।
pankaj hirdesh और श्याम kant भी
tumhara anusaran करें
भाई के aadarshon को sir माथे dharen।
mainpuri wasion ने तुम्हे
दिल me basaya है
सैकड़ों abhinandan, vandan कर
vatavaran को
पवन maya बनाया है।
'anwar' की duayen sadaiv
तुम्हारे साथ हैं
तुम्हे ashirwad देने के लिए
उठ रहे सैकड़ों हाथ हैं।
अगस्त 01, 2008
एक ग़ज़ल कच्ची सी........
दिलों का रिश्ता कुछ इस तरह निभाया जाए, अजनबी शहर में नया दोस्त बनाया जाए।
वो नही पर उसका ख्याल बिखरा है हरसू, उसके ख्याल की रौशनी से नहाया जाए।
ताल्लुक कुछ तकल्लुफ से भी जुदा हैं, उन ताल्लुकों को तकल्लुफ से निभाया जाए।
उसके आने का कुछ शोर तो है शहर में ,अपने दर को कई रंगों से सजाया जाए.... ।
ये ग़ज़ल मेरी पत्नी अंजू ने लिखी... ग्रामर के हिसाब से ये ग़ज़ल इस्लाह की ज़रूरत महसूस करती है.मैं चाहता तो इसे ठीक कर भी सकता था मगर इस तरह इसकी खोऊब्सूरती और कच्चापन जाता रहता...ये सोच कर बिना मरम्मत के ताजी ग़ज़ल पोस्ट कर रह हूँ........आपको क्या लगता है.............अच्छे ख्याल को बस ठीक से लफ्ज़ मिल जाए.........फ़िर क्या ......या .......और क्या ? आपकी सच्ची प्रतिक्रिया की बात में आपका ही..........
अकील नोमानी - मेरे अज़ीज़ शायर
दिल से निबाह कर के मुसीबत में आ गए, दो हर्फ़ जिंदगी को कहानी बना गए।
महदूद कर दिया था बिखरने ke शौक ने, ख़ुद में सिमट गए तो ज़माने पे छा गए।
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ख़ुद को सूरज का तरफदार बनने क लिए,
लोग निकले हैं चरागों को बुझाने क लिए,
गम तो ये है क parinde ही मदद करते हैं,
जब ही आता है कोई जाल बिछाने क लिए,
कितने लोगों को यहाँ चीखना पड़ता है अकील,
एक कमजोर आवाज़ दबाने क लिए।
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मैं मकान रहा वो मकीं रही,
जो बजाहिर और कहीं रही,
कोई हुस्न मेरी नज़र में रहा,
सो ये कायनात हसीं रही,
उन्हें आसमानों का शौक रहा,
मera ख्वाब सिर्फ़ ज़मीं रही,
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जेहन जैसे तो कभी दिल जैसे, मुझमे कुछ log hain shamil jaise ।
जब भी देखा तो थकन ख्वाब हुई, है कुछ लोग थे मंजिल जैसे।
उसने यूँ भी देखा हमें अक्सर, हम भी हो दीद क काबिल जैसे।
जिंदगानी की ये मुहतातार्वी, कोई दुश्मन हो मुकाबिल जैसे।
जब मिला इज्ने तकल्लुम तो अकील, यों मेरे होंट गए सिल जैसे।
************* खुदा हाफिज़ कैसा लगा.......... जल्दी फ़िर आऊंगा.
जुलाई 30, 2008
एक ग़ज़ल मेरी भी
लफ्ज़ पत्रिका ग़ज़लों को प्रकाशित करने वाली त्रैमासिक पत्रिका है। ये पत्रिका दिल्ली से प्रकशित होती है । इसके सम्पादक तुफैल चतुर्वेदी हैं जो मेरे मित्र भी हैं। आज जितनी भी पत्रिकाएं ग़ज़लों को प्रकाशित करने की दिशा में काम कर रही हैं उनमे इस पत्रिका का नाम काफी वज़नदार है। बहरहाल इस पत्रिका में दो gazal मेरी भी प्रकाशित हुई हैं उसमे से एक ग़ज़ल को मैं आपको post कर रहा हूँ padhiye शायद acchi लगे
दिल में कोई खलिश छुपाये हैं , यार आइना ले के आयें हैं।
उनकी किस्मत हैं क्या ये पत्थर ही, जिन दरख्तों ने फल उगाये हैं।
दर्द रिश्ते थे सारे ज़ख्मों से,ऐसे नगमे भी गुनगुनाये हैं।
जंग वालों की इस कवायद पर, सुनते हैं " बुद्ध मुस्कुराये हैं"।
ये भी आवारगी का आलम है, पाओं अपने सफर पराये हैं।
जब की आँखे ही तर्जुमा ठहरी, लफ्ज़ होठों पे क्यों सजाये हैं।
कच्ची दीवार मैं तो बारिश वो, हौसले खूब आजमाए हैं।
देर तक इस गुमा में सोते रहे, दूर तक खुशगवार साए हैं।
जिस्म के ज़ख्म हो तो दिख जाए, रूह पर हमने ज़ख्म खाए हैं।
जुलाई 26, 2008
फ़साहत अनवर - एक शायर
सिविल सेवा में चयन के बाद मुझे ढेरों शुभ कामनाए मिली। कई संस्थाओं ने सुंन्दर ग्रीटिंग भेजे तो कई लोग व्यक्तिगत रूप से मिले और खुशी का इज़हार किया । लगभग दो माह तक ये सिलसिला चला अब जबकि ये सिलसिला थमा तो मैं सोचता हूँ की इनमे से कुछ शुभकामनाये महज रस्मी थी तो कुछ सीधे दिल से। ऐसे में जब मैं कल देर रात यह याद कर रहा था कि कौन सी शुभकामनाये दिल से थी तो ऐसे में एक नाम मुझे कौंधा ........ फ़साहत अनवर। फ़साहत भाई मैनपुरी के रहने वाले एक शायर हैं । गिफ्टेड शायर होने के बावजूद वे इतने दौलतमंद नही है कि वे ख़ुद को एक्सपोज कर पाते ( जैसा कि आज कल का चलन है ) धीमी गति के साथ वे अपनी शायरी को अंजाम दे रहे हैं। मेरी उनसे मुलाकात लगभग पन्द्रह baras पुराni है जब मैं मैनपुरी में दैनिक जागरण अखवार में सिटी रिपोर्टर था और उनके प्रेस नोट मुझे मिला करते थे। यह प्रेस नोट न केवल किसी भी घटना पर त्वरित टिपण्णी के रूप में हुआ करते थे बल्कि मैनपुरी कि सामान्य समस्याओं के विषय में भी हुआ करते थे। सारे के सारे प्रेस नोट उनकी हैण्ड राईटिंग में हुआ करते थे और उनकी राईटिंग भी माशा अल्लाह काफी खूबसूरत हुआ करती थी ........... उनकी प्रेस नोट पर वे एक साहित्यिक संस्था आइना-ऐ -अदब के सेक्रेटरी कि हैसियत से दीखते थे........मुझे कई बार महसूस हुआ कि वे शायद इस संस्था के अकेले आलम बरदार थे....... अपनी रचनात्मकता को औपचारिक रूप देने के लिए ही वे शायद इस संस्था का नाम इस्तेमाल करते थे वरना सारे विचार उनके अपने व्यक्तिगत हुआ करते थे। अभी जब मैं मैनपुरी अपने घर गया तो उन्होंने मिलकर emअपनी शुभकामनाये दी साथ ही एक लिफाफा भी....लिफाफे के चिट्टी थी -चिट्टी में एक कविता थी.... कविता इस ब्लॉग पर फ़िर कभी पोस्ट करूंगा। फिलहाल मैं वापस आता हूँ फ़साहत भाई कि जानिब........ वे एक स्कूल चलाते हैं मजबूरी है जीने के लिए शायरी काफी नही है ....काम भी ज़रूरी है। गैर मज़हबी होते हुए वे हिन्दी - उर्दू शायरी के बंटवारे को नही मानते उनकी ग़ज़लों में राम और रहमान को बराबर महत्त्व मिला है। उनका कोई भी किताब अभी तक प्रकाशित नही हुई है । मैनपुरी के एक प्रकाशक ने उनकी एक किताब अवश्य छापी है .......खुसबू नाम से.... ये किताब किसी नामी पुब्लिकाशन से प्रकाशित होती तो शायद इसे अच्छा रिस्पोंस मिलता.......मगर जाने दीजिये । ख़ुद फ़साहत बहूत खूबसूरत हैं बिल्कुल फूल जैसे ऐसे में उनकी शायरी खूबसूरत होना लाजिमी है । चलिए उनकी शायरी की बानगी देखिये
कही अजान तो कहीं शंख की सदाओं में,
हमें ख़बर है खुदा के कई ठिकाने हैं
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कोई बतलाये की अब जाके कहाँ हम डूबे
हमने सूखा हुआ हर संत समंदर देखा।
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कह दो न कोई isko कलेजे से लगाये
नफरत तो समंदर में डुबोने के लिए है।
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और भी शामिल है मेरे कत्ल में, मैं तुम्हारा नाम लेकर क्या करूंगा।
राम औ रहमान दोनों chahiye ,मैं अकेला राम लेकर क्या करूँगा
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तेरी आखें हसीं झीले है,मेरी आंखों में प्यास रहती है
सोचना है की आज रिश्तों में , क्यों बहुत कम मिठास रहती है।
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चाँद पर जाने की दावत बाद में , पहले हर भूखे को खाना चाहिए.
जुलाई 25, 2008
Tapan Sinha - A Great Film Director
“Present-day films create no impact on the audience. They are either slick films for the multiplexes or cheap potboilers for the rural audience.” This burning statement is from senior and superb film maker Tapan Sinha.
I am a big fan of him film making style. Just before one year I had nothing to do and I was sitting in my room infront of TV . As usual I switch on remote, a film was running on a channel.My interest was only in Pankaj kapoor because he was in film, before a commercial break the name of that film flashed on screen “ ek doctor ki maut”. Suddenly I remember this film’s director name… Tapan Sinha. That movie was a best example of film craft. Everything was absolute there.
Recently I remember him after getting news on TV as he is honored by DADA SAHEB FALKE AWARD 2006. Even he is a Bengali fil maker but if you see his movie , you ‘ll never feel to not to being Bengali. I am Hindian so I saw his film “ek doctor ki maut, and Sagina. People and critics say in Hindi Sagina was not powerful as well as in Sagina Mahto in Bengali. You all know Sagina was acted by Dilip Kumar. SALA MAIN TO SAHEB BAN GAYA…………………..was a popular song of Sagina.
Kolkata borned Tapan Sinha is a well respected Bengali film director. He is arguably the most uncompromising filmmaker outside the orbit of parallel cinema. His awe-inspiring body of work can possibly be matched by only a Mrinal sen or a Satya jit rai . Tapan Sinha’s works have won 19 National Film Awards in various categories. As I already said though he is primarily based in the Bengali film industry, he has also made films in different languages like Hindi and Oriya. His masterpiece Kabulliwalaah(1956), based on a story by Rabindranath Tagore. Tapan Sinha has been greatly influenced by Rabindranath Tagore. So he made three films on his masterpieces, ‘Kabuliwala’, ‘Atithi’ and ‘Khudito Pashan’. The director whose versatility is well visible in films like ‘Kabuliwala’, ‘Atithi’, ‘Hate Bazare’ and ‘Ek Doctor Ki Maut’ is nationally known for respecting his audience.Ek Doctor… won National Award for Second Best Film, Best Director in 1991. I think Tapan sinha’s last film was Anokha moti(2000). Due to his illness he is not making films nowadays.
Plz put your hands together for his master creation in Bengali, Hindi and Orriya. It is a sheer tragedy that a filmmaker of Tapan’s calibre has been recognised so late. In western countries he would have received recognition long ago. Magar DER AAYE DURUST AAYE……………………………………………….
जुलाई 24, 2008
मेहंदी हसन के लिए दुआएं
Just before some days I read in newspaper that ghazal maestro Mehdi Hassan is gone under medical supervision in Karachi .We all know that Mehdi Hassan Saheb is such a brilliant singer, no any singer can take his place in this continent. We wish GOD to grant him good health . Let me tell you which I know about this superb ghzal singer. All of his fans know a severe illness in the late 80s, Mehdi Hassan stepped down from playback singing. Later due to severity of his illness he completely departed from music. He came in India last time in 2005 and in middle of this tour but due to illness this tour was not completed.
Mehdi Hassan was born in 1927 in Luna (Rajsthan) into a family of rich traditional musicians. He claims to be the 16th generation of hereditary musicians hailing from the Kalawant (means "artist"). Ustad Azeem Khan was his father who groomed him in music and his uncle Ustad Ismail Khan who was classical musicians, well-versed in dhrupad singing. They instructed him in classical music and voice production within the framework of classical forms of Thumari Khayal dadra from the young age of eight. After the partition 20 year-old Mehdi Hassan and his family migrated to Pakistan and suffered severe financial hardships. To make ends meet, Mehdi Hassan began working in a bicycle shop and later became a car and diesel tractor mechanic. Despite the hardships, his passion for music didn't wither and he kept up the routine of practice on a daily basis. The struggle ended when Mehdi Hassan was given the opportunity to sing on radio in1952, primarily as a thumri singer, which earned him recognition within the musical fraternity. At the time, Ustad Barkat Ali Khan Begum Akhtar were considered the stalwarts of ghazal gayaki. Mehdi Hassan also had a passion for Urdu poetry and began to experiment by singing ghazals on a part-time basis. He sang ghazals of all the renowned poets and his innovative style was soon appreciated by both masses and discerning audiences.
Mehdi Hassan’s voice and unique performance skills in ghazal singing were unmatched in the world of South Asian music. The 60s and 70s can be named Mehdi Hassan’s decades’, as there was hardly any hero in the Pakistani musical scene on whom Mehdi Hassan’s songs were not filmed. He is universally acclaimed as the finest ghazal singer of his time. His unsurpassed vocal range and his mastery over even the most difficult of raagas makes him the undisputed emperor of ghazals. His popularity amongst the masses, appreciation by the masses, and continued success over five decades. The ultimate tribute to his greatness is from Lata ji who compared his songs to " voice of god " .
Talat Aziz (fir chidi baat raat phoolon si -fame) is one of his famous disciples.
In his ghazals I like some very much, like these.....
· Aaj Tak Yaad Hai Woh Piar Ka Manzar
· Aaye Kuchh Abr Kuchh Sharaab Aaye
· Ab Ke Hum Bichde To Shaayad Kabhi Khwaabon Mein Mile
· Bhuuli bisri chand umeedein
· Dil-E-Nadan Tujhe Hua Kya Hai ( Lyrics: Mirza Ghalib )
· Dil Ki Baat Labon Par Laakar
· Dil Men Toofan Chupae Betha Hon
· Duniya Kisi Ke Pyaar Mein Jaanat Se Kam Nahin
· Dayam Pada Hua Tere Dar Pe Nahi Hoon Main
· Ek Bar Chale Aao
· Gulo.N Me.N Rang Bhare, Baad-E-Naubahaar Chale
· Har Dard Ko
· Ik Husn Ki Dewi Se Mujhe Pyaar Hua Thaa
· Jab Bhi Aati Hei Teri Yaad Kabhi Shaam ke Baad
· Kahan Gai Woh Wafa
· Kiya Hei Pyaar Jisse Humne Zindagi ki Tarah
· Main Hosh Mein Tha
· Main khayal hoon
· Mohabat Karne Wale
· Mujhe Tum Nazar Se Gira To Rahe Ho
· Pyaar Bhare Do Sharmile Nain
· Rafta Rafta Wo Meri Hasti Ka Saamaan Ho Gaye
· Ranjish Hi Sahi Dil Hi Dukhaane Ke
· Shola tha jal bujha hoon
· Tu Meri Zindagi Hei (Copied by Nadeem Sharavan in "Ashiqi" Hindi Movie India)
· Usne Jab Meri Taraf
· Wo Dil Nawaaj Hei Lekin Nazar Shinaas Nahin
· Ye Dhooan Kahan Se Uthta Hei
· Ye Mojazaa Bhii Muhabbat Kabhii Dikhaaye Mujhe
· Ye Tera Naazuk Badan Hai Ya Koi Mehka Gulaab
· Zindagi Mein To Sabhi Pyaar Kiya Karte Hain
· Zulf Ko Teri Ghataon Ka Payam Aaya Hai
Khuda Mehadi sahib ko jaldi swasth kare aisi hamari iltiza hai………….
जुलाई 23, 2008
सिविल सेवा में मेरी सफलता-एक यात्रा
SOME OF MY FRIEND ASK ME MY SECRET OF SUCCESS IN CIVIL SERVICES EXAM 2007 WITH RANK OF 122 (AIR). IT IS VERY DIFFICULT TO TELL EVERYONE SEPARETLY. SO I AM POSTING MY STORY ON BLOG SO THAT ANYONE CAN SEE IT.
Pawan Kumar(122nd Rank)
I would like to start from my family background. I was born in Mainpuri district. Mainpuri is known as the less developed and less resourceful town such as less guidance, less power supply and very few educational facilities. I had to face these challenges when I begin to prepare for Civil Services. Mainpuri was so unaware that for years none had been selected in state or civil services. In fact in my family also there was no such person who could guide me but even then I started preparation. My father is an inspector in Uttar Pradesh Police and my mother is a housewife. My parents not only motivated me but also encouraged and provided enough resources for making a career in civil services. At the age of 21 I appeared in the State Civil Services Exam and fortunately I got success in the very first attempt and was selected for Treasury Services. Afterwards I was selected for the posts of Dy. SP and SDM in two successive attempts. Finally I joined as SDM and I worked in Lucknow, Bareilly and Ghaziabad.
In 2006 when I was posted in Bareilly as SDM my younger brother Shyamu was preparing for the UPSC. He suggested me to make an attempt for UPSC. I did not consider it very seriously but at the same time my wife also forced me to appear for the UPSC. Then I became serious but it was a huge gap of 5 years. Then I decided to have less significant posting somewhere in Lucknow so that I could prepare for the UPSC. I got posting in Directorate of Sports as Asst. Director. With my childhood friend Satyendra Sagar (Presently working as Finance Officer in Govt. of UP) I started preparation. After a long gap I felt some problems like changed syllabus, negative marking in prelims and new trends in GS mains but the consistent encouragement of my family members and teachers and Sagar helped me to fight with these hurdles. Some of my friends who were preparing in Delhi provided me the valuable notes. I took the chance in selection of the optional. In fact in state civil services I always opted for Law and Public Administration. In this time I was not confidant with the Law so I decided to go with History because History is a consistent subject and Public Administration was my natural choice as I had wide behavioral experience of administration.
Before prelims I took one month leave from my office and one and half month leave before the mains. It did not have the enough time but I managed all the things in this limited time. Due to the shortage of time I couldn’t prepare World History properly. For mains I went through the whole syllabus and made notes on every topic in both optional and in the second phase of preparations I selected some topics and worked out them effectively. In the meantime when the mains were going on I was transferred to Ghaziabad and I had to join there with charge of SDM. So half of schedule of mains I completed from Lucknowand and half from Ghaziabad. Finally with the blessings of the almighty God and hard work of mine, I got success in the mains and was called for the interview. Again for the interview I couldn’t prepare well because in my sub-division By-Election was declared and my full time was engaged in it. When the election was over very little time had left for me to consult for interview. Nearly all the coaching institutions had finished the mock sessions for interview. Then there was only way for me to consult the experts individually. Some noted institutions in Delhi helped me. My friend Sagar who unfortunately could not succeed in the mains and Mukteshwar ji from Lucknow came to my house in the meantime and discussed valuable topics with me and gave their valuable suggestions. I cannot ignore the personal attachment of Arunesh Singh, Vikas Divyakirti, S.P. Jha and Shekhar Tripathi.
My interview was on 28th April 2008(Afternoon) in the board of Parveen Talha. Board asked me 60% qust. based on my administrative experience and 40% on my biodata, hobbies and academic background. Ultimately my interview was much satisfactory . I got 122nd rank (It is very good with Hindi medium and in SC category). Lastly I would like say that where is will there is success. Right approach in the right direction always leads to success. My hard work and strong determination was crucial for my success. I cannot forget my well wishers and my brothers Pankaj (Asst. Commnr. UP Commercial Tax Service), Hirdesh, Shyamu,Bajesh (IAS 2005 Uttranchal cader), my wife Anju and above all my parents who always saw great dreams for me.
**********************
जुलाई 19, 2008
मेरे haiku
1
आसमान में,
सूरज चाँद तारे,
किसने टाँके ?
2
एक तरफा,
फैसला तुम्हारा भी,
मुझे मंज़ूर।
3
मिले हो तुम,
फ़िर से महेकेगी,
ये रात रानी।
4
अन्नान बोले-
अगला युद्ध होगा,
पानी के लिए।
5
टूटे सम्बन्ध,
लाख चाहो मगर,
जुड़ते नही।
6
भरी भीड़ में,
हरेक पे हावी था,
अकेलापन।
7
अखबार में,
खबरें नही ,सिर्फ़
विज्ञापन हैं।
8
पैसा नही है
सब कुछ, सिर्फ़ है
हाथ का मेल।
9
कागजी फूल
ही सजते हैं अब ,
गुलदानों में
10
कैसे dekhun मैं
तुम्हारी नज़रों से ,
कायनात को।
11
मुश्किल वक्त,
ज़रूर गुजरेगा,
धैर्य तो रखो।
12
कोशिश तो की,
मगर उदा न सका,
फ़िक्र धुँए में।
१३
भीग जाता हूँ
अंतर्मन तक मैं
भीगी ऋतू में।
१४
स्वाद रिश्ते का
काश मीठा हो जाता,
चलते वक्त।
१५
अवसर था-
खो दिया ,अब तो था
पछताना ही।
१६
थक जाती हैं
राहें भी,साथ -साथ
चलते हुए।
१७
सिर्फ़ अच्छाई
याद रह जाती है
मौत के बाद।
जुलाई 16, 2008
जाने तू - dekhi kya
ज़ल्दी में एक पिक्चर जाने तू..... देखने का अवसर प्राप्त हुआ। इस बर्ष जो फ़िल्म आई हैं उनमे अच्छे शिल्प और अच्छी कहानी का बड़ा अभाव रहा है इस कारण फ़िल्म देखने की कोई विशेस इच्छा नही थी मगर पत्नी आग्रह मैं thukra नही सका ...फ़िल्म इतनी अच्छी नही थी की बहुत तारीफ की जाती लेकिन अख़बार में चारो तरफ़ इस फ़िल्म की तारीफ पढने को मिली। प्रसंग वश मैं ये कहना चाहूँगा की मीडिया चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक हर जगह चेहरा देख के कसीदे पढने वाली स्थिति मौजूद है। आमिर खान का नाम jude होने की वज़ह से इस फ़िल्म को पर्याप्त फूटेज mइलना ही था भले ही यह फ़िल्म किसी स्तर की न होती। यहाँ यह सौभाग्य था की फ़िल्म औसत से अच्छी थी तो ऐसे में मीडिया को बढ़ा चढा के कहने का पूरा अवशर mila. कहानी में तो कोई nayapan नही था लेकिन कहानी के tantuon को जिस bariki से एक दूसरे में piroya गया है woh kabil ऐ तारीफ है। हीरो imran का look accha है लेकिन अभिनेत्री zeneliya की सहज acting मन mohti है वे एक समर्थ अभिनेत्री हैं और उनमे kafi sambhavnaye मुझे दिखाई दी। फ़िल्म के सारे चरित्र thik से ubhare गए जो हिन्दी फिल्मों में amuman कम होता है jahan हीरो heroen के अलावा किसी भी चरित्र को thik से ukera नही jata। NASIR भाई का मैं zabardast fan हूँ और मैं यह danke की चोट पे कहना चाहता हूँ की उनसे बड़ा actor आज फ़िल्म industry में मौजूद नही है वे इस फ़िल्म में अपने नए रूप में cha jate हैं full marks unhe । ratna pathk नए zamane की माँ में behad perfect हैं.arbaaz और sohail की जोड़ी फ़िल्म का bonus point है। paresh rawal ज़रूर निराश करते है पर इतना तो चलता है। sangeet accha है AR REHMAN का music हमेशा की तरह ही प्रयोग dharmi है। aaditi..... wala song फ़िल्म की जान है abbas tyre wala को उनकी behatreen प्रस्तुति के लिए १० में ७ marks। और अंत में smita patil की यादें ताज़ा कीजिये उनके पुत्र pratik को देख कर......क्या सहज acting की है उन्होंने। "शिल्प की kangali के दौर ऐसी filme भी ख़राब नही लगती"
bachpan
कई दिनों से एक विचार मन में आता है पर अभिव्यक्ति के आभाव की वज़ह से कहीं सिमट जाता है। बचपन में आदमी सबसे सच्चा होता है उसका बाहरी रूप अन्दर वाले मन में कोई अन्तर नही होता। पर जैसे जैसे आदमी बड़ा होने लगता है उसमे दोहरा पन आने लगता है यानि डबल स्टैण्डर्ड मुझे यह फितरत आदमी की सबसे ख़राब लगती है कि जिसे आप पीछे बुरा कहते हैं सामने उसी के कसीदे पढ़ते हैं और आप उसके सबसे करीब हैं.यह ठीक है के आप लोक लिहाजके कारन आप ढंग से दुआ सलाम करे लेकिन झूटी आत्मीयता दिखाना........................... क्या कहूँ. मैं बहुत असहज महसूस करती हूँ। हो सकता है मैं ज़्यादा समझ दार न होऊं परन्तु मुझे लगता है के ऐसे वाव्य्हरिक होने से बेहतर है अ vyvaharik होना। ( जैसा मेरी पत्नी anju ने मुझसे कहा)
जुलाई 15, 2008
कमलेश भट्ट - संस्कृति के padaaw
अक्षर धाम मन्दिर देखते समय धर्म और आस्था के बीच झूलते आम आदमी की भ्रम की स्थिति को वे सहज भाव से व्यक्त करते हैं। यदि हम गंभीर विमर्श की बात करे तो वे डंडी यात्रा , वाली दखिनी ,अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पर भी लिखने में ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अपनी बात कहीं चुपके से कह ही जाते हैं .यही उनकी लेखकीय कुशलता है।कस्तूरबा के विषय में ग्यारह पन्नों का दस्तावेज़ इस किताब की बेहतरीन प्रस्तुति है। आम तौर पर गाँधी जी के विषय में बहुत कुछ पढने को मिल जाता है लेकिन बा के विषय में कम ही लिखा पढ़ा गया है।
अंत में अपने और लेखक के विषय में .......कमलेश भाई से मेरी मुलाकात बरेली से है । वे वहां व्यापार कर samyukt आयुक्त थे और मैं upzila adhikari था। कई mulakaten उनसे होती थी बरेली में लेकिन हमारी guftgu का केन्द्र बिन्दु sahitya ही होता था। सरकारी naukari के साथ lekhan कार्य mushkil काम होता है लेकिन वे इस zimmedari को निभा रहे हैं। haiku विधा में वे एक aandolan की bhumika tyyar कर चुके हैं.मैं चाहता हूँ की उनकी lekhan यात्रा aviraam chalti रहे । subhkamnaon के साथ उनके lekhan को naman..